मुद्दा : कसौटी पर पूंजीवाद

Last Updated 22 May 2020 12:38:10 AM IST

कोरोना वायरस न केवल पूरी दुनिया में इंसान की जान ले रहा है, बल्कि इसने अर्थव्यवस्था के सामने भी गंभीर संकट पैदा कर दिया है।


मुद्दा : कसौटी पर पूंजीवाद

इनमें उन देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी हैं, जिन्हें विकसित और मजबूत माना जाता रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में पूरी दुनिया खासकर अमेरिका और यूरोप के वामपंथी विचारक उम्मीद करने लगे हैं कि पूंजीवाद का अंत नजदीक आ गया है। इनकी दृष्टि में अर्थ सत्ता के लोकतंत्रीकरण के लिए यह उपयुक्त क्षण है। ये तो 2008 के आर्थिक संकट के दौरान भी इसकी उम्मीद लगाए बैठे थे, लेकिन उनकी अपेक्षा के अनुरूप पूंजीवाद का विघटन नहीं हो सका।
सवाल है कि इनकी आशा जिस बुनियाद पर आधारित है, वह कितनी ठोस है? क्या कोरोना के कारण बाजार विफल हो गया है? नहीं, तो क्या यह राज्य की विफलता है? राज्य विफल नहीं है, तो क्या वह पूंजीवादी ताकतों को मजबूत करने का काम करेगा? 2008 में आर्थिक संकट पैदा हुआ था, तब राज्यों के हस्तक्षेप से ही संकटग्रस्त वैश्विक अर्थव्यवस्था को उबारने का प्रयास हुआ था। ध्यान रखना होगा कि 2008 का संकट उतना विकट नहीं था, जितना अभी है। बाजार आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है कि लोग काम करने के लिए घर से बाहर जाएं और अपनी कमाई खर्च करें। काम से दूर रहने का मतलब कमाई से दूर रहना होगा। श्रम बाजार पर वैश्विक पूंजीवाद की निर्भरता ने भी स्थिति को और जटिल बना दिया है, जिसे वैीकरण की प्रवृत्ति ने मजबूती प्रदान की है। ऐसे में इस बात का विशेष महत्त्व नहीं रह जाएगा कि अर्थव्यवस्था का आधार कितना मजबूत है। यह स्थिति अंतत: आर्थिक मंदी की ओर ले जा सकती है। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप दुनिया भर की सरकारें आर्थिक पैकेज की घोषणा करने लगी हैं।

कोई इसे मुक्त अर्थव्यवस्था का लक्षण कह सकता है, लेकिन वस्तुत: यह पूंजीवाद की नैतिक पराजय है। यह पूंजीवाद की उस धारणा के खिलाफ है, जिसके तहत वह उद्यम और प्रतिस्पर्धा में विश्वास रखता है। 2008 के बाद पूंजीवाद ने नया चोला धारण कर लिया है, तो मौजूदा संदर्भ में इसकी प्रकृति पर विचार करना आवश्यक है। कोरोना-जनित संकट में पूंजीवाद के प्रतिनिधियों से समाज के दबे-कुचले समूह के प्रति जिस उत्तरदायित्व की उम्मीद थी, वह अपेक्षा के अनुरूप नहीं रही। उल्टे उसकी स्वार्थपरता ही उजागर हुई। श्रम कानूनों को पूंजीपतियों के पक्ष में शिथिल किया गया तो यह मजदूरों में असंतोष को ही जन्म देगा। सरकारें कमजोर पड़ीं तो वैश्विक व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो सकता है। वैीकरण के खिलाफ प्रवृत्ति उभरी तो अंतरराष्ट्रीय संधि और समझौते खतरे में पड़ जाएंगे।
अमेरिका और चीन की तनातनी के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे संगठनों की विसनीयता पर उठ रहे सवालों को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 1930 के दशक में भी करीब-करीब ऐसी ही स्थिति बनी थी, जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी एक देश को निर्णायक बढ़त हासिल नहीं थी। इसके अभाव में दुनिया में एक व्यवस्था बनाने में मदद नहीं मिल सकी और द्वितीय विश्व युद्ध होने से रोका न जा सका। कोरोना महामारी ने वैश्विक पूंजीवाद के संकट को उजागर कर दिया है। कुछ आलोचक तो अभी से उत्तर पूंजीवादी युग की कल्पना करने लगे हैं। लेकिन यह सोच अति उत्साह से प्रेरित प्रतीत होती है। अभी कोई वैकल्पिक आर्थिक मॉडल सामने नहीं आया है, तो दूसरी ओर वामपंथियों का सामाजिक आधार भी खिसक चुका है। वैीकरण के दौर में पूंजीवादी ताकतों ने अपनी जड़ें इतनी गहरी कर ली हैं कि राजनीतिक-सामाजिक विमर्श से गरीबों और मजदूरों की चर्चा ही प्राय: गायब हो गई है। सो, कोरोना संकट के आधार पर निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि बाजार विफल हो गया और पूंजीवाद खत्म हो जाएगा। कोई विफलता होगी तो राज्य की होगी, पूंजी की नहीं। ऐसे में राज्य आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करेंगे या पूंजीवाद को प्रश्रय देंगे।
नि:संदेह राज्यों पर चुनावी राजनीति के चलते लोककल्याणकारी कदम उठाने का दबाव होगा। पूंजीवादी लोकतंत्र समाजवादी राज्य की कुछ खासियतों को अपना ले तो पूंजीवाद के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा नहीं होगा। लेकिन उसने पूंजी को बेलगाम छोड़ा तो देर-सबेर उसके खिलाफ असंतोष पैदा होने से इनकार नहीं किया जा सकता। दोनों ही स्थितियों में पूंजीवाद के रंग-रूप में बदलाव होगा। जाहिरन पूंजीवाद में समय के साथ अपने में बदलाव लाने की क्षमता है, लेकिन यह बदलाव संपूर्ण विश्व में एक समान नहीं होगा, बल्कि क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों के अनुरूप होगा।

सत्येन्द्र प्रसाद सिंह


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