उत्तर कोविड-दक्षिण एशिया : क्षेत्रवाद महत्त्वपूर्ण है

Last Updated 20 May 2020 12:26:38 AM IST

कोरोना वायरस महामारी ने हमारे पेशेवर और निजी जिंदगी को बदल कर रख दिया है।


उत्तर कोविड-दक्षिण एशिया : क्षेत्रवाद महत्त्वपूर्ण है

घर से काम करना अब नये तरह की सामान्य बात हो गई है और यहां तक कि स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय ऑनलाइन मोड में शिफ्ट हो रहे हैं। संक्षेप में, कोरोना वायरस महामारी दुनिया अंकों में बदल देने वाली है। 21 वीं सदी में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आने वाला यह दूसरा सबसे बड़ा बदलाव है। पहला था जब 11 सितम्बर 2001 को अल कायदा ने दुनिया के सबसे ताकतवर देश पर हमला किया। इसके बाद रणनीतिक मुद्दों के जानकारों ने ‘सीमारहित दुनिया’ की बात करनी शुरू कर दी। कई लोग तो 9/11 की व्याख्या के लिए सैम्यूअल हंटिंगटन के बेहूदा ‘सभ्यता का संघषर्’ को सही ठहराने में लग गए।
9/11 के बाद वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद पर कोई लगाम नहीं रहा लेकिन लोगों के एक देश की सीमा पार कर दूसरे देश आने-जाने पर नियंत्रण बना रहा। पश्चिमी देशों में हमने प्रवासियों के खिलाफ और इस्लाम के खौफ की राजनीति में उभार देखा है, जिसने दुनिया में दक्षिणपंथी राजनीति को मजबूत किया है। कोरोना महामारी के फैलने से दुनिया की राजनीति में एक और युगांतकारी घटना घट रही है और आर्थिक वैीकरण के लिए इसके परिणाम दूरगामी होंगे। अब जरा इस बात पर गौर करें कि कैसे यह महामारी दक्षिण एशिया के आर्थिक खुशहाली को नष्ट करेगी। इस संदर्भ में दक्षिण एशिया का प्रत्युत्तर क्या होगा इसका आकलन भी हमें करना होगा।

यह एक उन्नतिशील क्षेत्र है और पिछले कुछ दशकों में इसकी आर्थिक विकास दर काफी अच्छी रही है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका की आर्थिक विकास दर भी काफी उच्च दर की रही है। लेकिन यह विडंबना ही है कि इस क्षेत्र में आर्थिक वृद्धि की दर यहां के आर्थिक विकास में तब्दील नहीं हुआ है। मानव सूचकांक आर्थिक विकास का एक आवश्यक संकेत है और दुर्भाग्य से, श्रीलंका को छोड़कर अन्य दक्षिण एशियाई देश मानव विकास सूचकांक के मोर्चे पर पिछड़े हुए हैं। कोरोना वायरस ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों पर लगभग विराम लगा दिया है; इस तरह इससे सरकार की सामाजिक क्षेत्र में निवेश की क्षमता कम होगी। यह एक ऐसे समय होगा जब सरकार से ज्यादा कल्याणकारी कदम उठाने की उम्मीद की जाएगी। आईएमएफ ने संकेत दिया है कि विश्व की अर्थव्यवस्था तीन फीसद सिकुड़ जाएगी। दक्षिण एशिया के लिए यह शुभ समाचार नहीं है। निर्यात बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। अगर अंतरराष्ट्रीय मांग में कमी आती है तो। विश्व बैंक के अनुसार, दक्षिण एशिया पर इस महामारी का बहुत बुरा असर होगा और गरीबी को हटाने की दिशा में जो भी उपलब्धि हासिल की गई थी; वह सब बेकार चली जाएगी और विकास की दर को कम कर देगी। हो सकता है कि पिछले 40 सालों में यह सबसे कम हो जाए।
साउथ एशियन अलायंस फॉर पावर्टी इराडिकेशन (एसएपीई) की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘भारत में शीर्ष 10 फीसद लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का तीन-चौथाई हिस्से पर कब्जा है, जबकि बांग्लादेश में कुल आय में देश के सर्वाधिक गरीब पांच प्रतिशत जनता की हिस्सेदारी 0.23 फीसद है, नेपाल के सर्वाधिक अमीर 20 फीसद लोगों की देश की कुल संपत्ति के 56.2 फीसद पर कब्जा है।’ अब उत्तर-कोरोना स्थिति बहुत बुरी रहने वाली है। दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्था को लेकर इस तरह की चिंता के साथ, जाहिर है कि इस क्षेत्र में कोरोना के बाद की चर्चा में आजीविका का प्रश्न सबसे अहम होगा। दिलचस्प बात यह है कि दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्था की विकास दर दुनिया के शेष देशों की अर्थव्यवस्था से जुड़े होने के कारण थी। दक्षिण एशियाई देशों ने 1991 में अपनी अर्थव्यवस्था को उदार बनाया और इसकी वजह से उन्हें सकारात्मक आर्थिक परिणाम प्राप्त हुए हैं। इसके बावजूद वैीकरण पर निर्भर रहना और क्षेत्रीयता को नजरंदाज करना इसका जवाब नहीं है। इसे देखते हुए कि दुनिया की सबसे उदार अर्थव्यवस्था भी संरक्षणवादी रु ख अपना रहा है, अब वैीकरण के साथ पुरानी बात नहीं रही। दुनिया भर के देश क्षेत्रीय कारोबार पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। पर यह अफसोस की बात है कि दक्षिण एशिया में ऐसा नहीं हो रहा है और क्षेत्र के अंतर्गत हमारा कारोबार 5 फीसद से भी कम है।
दुर्भाग्य से दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है, अगर इसका आर्थिक और राजनीति रूप से मूल्यांकन किया जाए। दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन क्षेत्रीय एकीकरण को अंजाम देने में विफल रहा है। उत्तर-उपनिवेश और बंटवारे के बाद की दक्षिण एशिया के राष्ट्रीय राज्यों ने क्षेत्रीयता की जगह पहचान को चुना। दक्षिण एशियाई देशों में सबसे अहम राजनीतिक बहस राष्ट्रीयता को लेकर चल रही है जो कि क्षेत्रीयता के खिलाफ होती है। संप्रभुता और सीमाओं को बंद करने के विचार से पागलपन की हद तक अभिभूत, विशेषकर क्षेत्रीय स्तर पर, दक्षिण एशियाई राज्य उस समय भी साथ नहीं आ पाए जब उनकी अर्थव्यवस्था विकसित हो रही थी। अब जब यह उम्मीद की जा रही है कि दुनिया के बाजार उनकी पहुंच से बाहर हो जाएंगे और वैश्विक मांग में कमी आ रही है, क्षेत्रीयतावाद उनके उद्योगों को कुछ राहत दे सकता है। दक्षिण एशिया की जनसांख्यिकी युवा है और अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय की इस पर नजर है।
इसके अलावा क्षेत्रीय कनेक्टिविटी में सुधार की जरूरत है बड़ी बुनियादी परियोजनाओं में हर निवेश जरूरतमंद लोगों के लिए आर्थिक अवसर पैदा करेगा। इसका अंतिम बिंदु है भारत की इसमें भूमिका के बारे में। भारत को क्षेत्रीय राजनय पर ध्यान देना होगा। दुर्भाग्य से, दक्षिण एशियाई क्षेत्रवाद को भारत ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी है। हाल में, भारत ने दक्षिण एशिया से बाहर पैर रखने का संकेत दिया है। पाकिस्तान से जुड़े सीमा पार के आतंकवाद की समस्या भारत के लिए सुरक्षा की वास्तविक चिंता है पर दक्षिण एशियाई क्षेत्रीयतावाद से नजर मोड़ लेना भी इसका हल नहीं है। अच्छी बात यह है कि हाल में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना वायरस के लिए 0.10 अरब डॉलर का एक क्षेत्रीय फंड बानाने की घोषणा की। इससे एक नई आशा जगी है। भारत को चाहिए कि वह यहीं नहीं रु क जाए और उसे दक्षेस (सार्क) को मजबूत करने का प्रयास करना चाहिए। समय कठिन है और भविष्य अनिश्चित। ऐसे मौके पर क्षेत्रीय सहयोग वांछित परिणाम दे सकता है।
(लेखक साउथ एशियन यूनिर्वसटिी में पढ़ाते हैं)

धनंजय त्रिपाठी


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