कोरोना प्रभाव : पलायन से परेशां वर्षों का रिश्ता

Last Updated 20 May 2020 12:22:44 AM IST

पंजाब की सड़कों पर इन दिनों एक मंजर खूब देखने को मिल रहा है। लंबी-लंबी कतारों में जाते लोग। सिरों पर संदूक। बगल में गठरियां। हाथों में बच्चों की हथेलियां।


कोरोना प्रभाव : पलायन से परेशां वर्षों का रिश्ता

किसी-किसी कंधे पर मरियल-से बीमार वृद्ध या वृद्धा। कुछ पैर नंगे और कुछ में फटी हुई चप्पलें। इन्हें देख कर एकबारगी लगता है कि 1947 के विभाजन पर बनी किसी फिल्म के दृश्य पर्दे से बाहर आकर जिंदा रूप अख्तियार कर गए हैं। लेकिन यह सिनेमा नहीं बल्कि हकीकत है। इस मानिंद जा रहे लोग दरअसल पंजाब से हिजरत करके अपने-अपने मूल राज्यों को लौट रहे हैं। प्रवासी मजदूर हैं। पुरबिया हैं। यह कोरोना-काल का महापलायन है। पंजाब का पूरब से रिश्ता फौरी तौर पर टूट रहा है। अब से पहले इस सरहदी सूबे ने हिंदुस्तान- पाकिस्तान बंटवारे के वक्त ऐसा नागवार आलम देखा था।                                
पंजाब का पूरब से नाता बेहद गहरा रहा है। हरित क्रांति के बाद अविभाजित उत्तर प्रदेश और बिहार से कृषि मजदूर रोजी-रोटी के लिए पंजाब आना शुरू हुए थे। पंजाब के खेतों को उनके हाथ बेहद रास आए। आमद की तादाद बढ़ती गई। प्रवासी श्रमिक खेतों के साथ-साथ औद्योगिक इकाइयों में भी फैल गए।

बेशुमार पुरबिया लोग सब्जी और दूध का धंधा करने लगे। लिहाजा लाखों पुरबिया प्रवासी लगभग स्थायी तौर पर पंजाब में बस गए और बकायदा पंजाबी सभ्याचार एवं लोकाचार का अहम हिस्सा बन गए। बहुतेरों ने केश-दाढ़ी रख ली और सिर पर पगड़ी भी सजा ली। गुरुद्वारों को अपना लिया या गुरुद्वारों ने उन्हें। इन पंक्तियों के लेखक ने बतौर रिपोर्टर एक खबर की थी कि पंजाब के कुछ गुरु द्वारों में सिख बने पुरबिया प्रवासी, ग्रंथी की भूमिका भी बखूबी और निर्धारित मर्यादा के साथ निभा रहे हैं। पुरबिया प्रवासियों के बच्चे स्कूलों में शेष (स्थानीय) बच्चों के साथ पंजाबी माध्यम से पढ़ाई करते थे, सो बचपन के शैक्षणिक संस्कारों ने उन्हें पंजाबी भाषा-बोली में दक्ष कर दिया। कई तो भोजपुरी, अवधी और परंपरागत हिंदी बोलना ही भूल गए, जो उनके पुरखों और अभिभावकों की अभिव्यक्ति का माध्यम थी। प्रसंगवश, पंजाबी साहित्य में खासा नाम कमाने वाले दो बड़े (पंजाबी) लेखक सतपाल भिक्खी और लक्ष्मी नारायण भिक्खी इसकी पुख्ता मिसालें हैं। कुछ ख्यात प्राध्यापक और अध्यापक भी इसी श्रेणी में आते हैं। सरकारी नौकरियां तो अनेकों के पास हैं। खैर, पंजाब के कृषि और औद्योगिक सेक्टर के विकास में पुरबिया प्रवासी मजदूरों का जबरदस्त मुफीद योगदान है। इस बाबत हुए विधिवत शोध-प्रबंधों और सर्वेक्षण-रपटों में भी यह तथ्य रेखांकित है। खुद राज्य सरकार प्रवासी श्रमिकों की अपरिहार्यता को स्वीकार करती है। इसीलिए मुख्यमंत्री सहित कई मंत्रियों ने इस दौर में पलायन करके बिहार, यूपी और झारखंड जाने वाले प्रवासी मजदूरों से न जाने की अपील की लेकिन व्यवस्था की विसंगतियां और बेतहाशा उलझा ताना-बाना उन्हें बड़े पैमाने पर एकमुश्त पलायन को मजबूर कर रहा है। कोरोना वायरस की देन लॉकडाउन की बड़ी गाज प्रवासी मजदूरों पर गिरी। एक झटके में वे मुफलिसी का हिस्सा बन गए। जिन रिक्शों को वे चलाते थे-उनके पहिए थम गए। गोया उनकी जिंदगी ही थम गई। त्रासदियों अथवा हादसों की लकीरें ऐसी ही होती हैं। वक्त इतना गाढ़ा हुआ कि रोटी तक के लिए बेजार हो गए। किराए के मकानों से बेदखल किए जाने का सिलसिला शुरू हुआ तो फ्लाईओवर के नीचे, खुले मैदानों और पाकरे के नीचे रातें बिताने की मजबूरी आई। वहां भी पुलिसिया डंडे खदेड़ने लगे। ऐसे में क्या राह थी? तदर्थ ‘देस’ पंजाब से ‘जन्मभूमि’ लौटने के अलावा? (यकीनन ‘कर्मभूमि’ छोड़कर) यही वे कर रहे हैं। यानी घर-वापसी। पलायन! सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पंजाब में फरवरी, 2020 तक 14 लाख से ज्यादा प्रवासी श्रमिक थे। खेती और औद्योगिक क्षेत्र में।
केंद्र ने जब उनकी घर-वापसी बाजरिया रेल-मार्ग सुनिश्चित करने की विधिवत घोषणा की तो महज तीन दिन में 8 लाख से ज्यादा प्रवासियों ने लौट जाने के लिए आवेदन किया। पंजाब में रोजी-रोटी और खुशहाली हासिल करते प्रवासी मजदूरों का मौजूदा पलायन साफ जाहिर करता है कि समकालीन संकट और उससे बन रहे हालात तथा उपजी मन:स्थितियां किस दशा-दिशा में हैं। प्रवासी मजदूरों के बगैर पंजाब के बहुत सारे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र एकदम अधूरे हैं और मजदूर भी उनके सहारे चलते आए हैं। इस सिलसिले का टूटना बहुत बड़ी दुर्घटना है। खासतौर से तब, जब पलायन कर रहे श्रमिकों के जत्थे का मुखिया यह कहता मिलता है कि अब, ‘शायद लौट कर आना नहीं होगा!’

अमरीक


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