जम्मू-कश्मीर : राजनीति नये दौर में
जम्मू-कश्मीर की राजनीति में कभी फीके क्षण नहीं आए हैं। कोरोना वायरस के चलते लागू किए लॉकडाउन के दौरान भी यहां दो महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई हैं।
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पहली यह कि नये केंद्र शासित प्रदेश में सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए नया ‘आवास कानून’ बनाया गया। यह नया कानून यहां के वास्तविक निवासियों को भर्ती में विशेषाधिकार से वंचित करता है। यह विशेषाधिकार इन्हें 31 अक्टूबर, 2019 तक मिला हुआ था। उस समय तक जम्मू-कश्मीर एक पूर्ण राज्य था।
दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना यह हुई कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को जन सुरक्षा कानून (पीएसए) के तहत सात महीने तक हिरासत में रखने के बाद मुक्त कर दिया गया। इस दौरान उन पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया गया। इसके अलावा उनके पिता फारूक अब्दुल्ला को पहले ही छोड़ा जा चुका है। उनका उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस में बड़ा रुतबा है और वह राज्य के तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इसके अलावा वह लोक सभा में श्रीनगर संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस समय केवल राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता सलाखों के पीछे हैं। साफ तौर पर केंद्र की भाजपा सरकार देश के संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 को हटाने के बाद वहां के हालात को परख रही है। ये दोनों अनुच्छेद 5 अगस्त, 2019 तक यहां के निवासियों को जहां एक तरफ विशेष दरजा देते थे वहीं उनके विशेषाधिकारों को भी संरक्षित करते थे। सरकार ने जो ये फैसले किए थे, फिलहाल वे डगमगा रहे हैं। इसमें ताजा मिसाल नये आवास कानून की है।
एक अप्रैल की गजट अधिसूचना के अनुसार इस केंद्र शासित प्रदेश के निवासियों के लिए केवल चौथी श्रेणी की नौकरियों को आरक्षित किया गया। इससे भाजपा के प्रभुत्व वाले हिंदू बहुल क्षेत्र के लोगों में भारी आक्रोश पैदा हो गया। इससे घबराकर सरकार ने तुरंत ही 3 अप्रैल को कानून में बदलाव कर सभी श्रेणी की सरकारी नौकरियां यहां के निवासियों के लिए आरक्षित करने की घोषणा कर दी। ऐसा करते समय सरकार ने उन लोगों की तरफ ध्यान नहीं दिया जो लोग पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में 1947 तक रहे और उन्हें गैर-कानूनी तरीके से राज्य छोड़ने के लिए विवश कि या गया था। ये वे लोग थे, जो जम्मू क्षेत्र में न बसकर देश के अन्य हिस्सों में बस गए। इनमें से बहुत से लोग दिल्ली में भी बस गए और उन्हें जम्मू-कश्मीर में अपनी संपत्ति के साथ वहां की नौकरियों में भी अधिकार प्राप्त है। नये कानून के तहत वे वहां का आवास प्रमाणपत्र बनवाने के पात्र नहीं हैं। इस नये कानून के तहत वही ये प्रमाणपत्र बनवाने का पात्र है, जो पिछले 15 साल से वहां रह रहा हो या सात वर्ष से पढ़ रहा हो और राज्य में स्थित किसी शैक्षणिक संस्थान में 10/12 वीं की परीक्षा में बैठा हो। इस कानून के अनुसार वे बच्चे भी राज्य के निवासी माने जाएंगे, जिनके माता-पिता राज्य में दस वर्ष से ऑल इंडिया सर्विसेज में, सरकारी उपक्रमों में, केंद्र सरकार के स्वायत्त निकायों में, सरकारी क्षेत्र के बैंकों में, संवैधानिक निकायों में, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और केंद्र सरकार से मान्यताप्राप्त अनुसंधान संस्थानों में अफसर हैं।
इसके अलावा केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर के राहत एवं पुनर्वास कमिशनर के यहां जो लोग प्रवासी के तौर पर दर्ज हैं, उन्हें भी यहां का निवासी माना जाएगा। इसलिए ऐसे लोगों के बच्चे जो रोजगार, कारोबार या शिक्षा आदि के उद्देश्य से केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर से बाहर हैं, उन्हें भी यहां का निवासी माना जाएगा। तत्कालीन जम्मू-कश्मीर खास तौर पर पाकिस्तान के कब्जे वाले मीरपुर के 5300 ऐसे परिवार हैं, जो काम-धंधे और पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के होने के नाते उन्हें वहां के सभी विशेषाधिकार प्राप्त हैं। आवास कानून ने जम्मू कश्मीर के निवासियों की स्थिति में अहम बदलाव किया है, जो अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाए जाने का स्वाभाविक परिणाम है। यह भी स्वाभाविक है कि गैर-भाजपाई पार्टियों ने इसका जी-जान से विरोध किया। उनमें से कई पार्टियां ने इसकी काफी आलोचना की है। केवल चौथी श्रेणी की नौकरियों को आरक्षित करने के बाद हुए भारी हंगामे के बाद सरकार द्वारा किए गए संशोधनों को भी इन पार्टियों ने खारिज कर दिया है। उमर अब्दुल्ला ने इस बात का भी संकेत दिया है कि इसके परिणामस्वरूप आगे क्या होने जा रहा है। ट्वीट्स की एक श्रंखला में उन्होंने कहा है कि कोविड महामारी फैलने के समय सरकार का सारा ध्यान जहां इस महामारी पर होना चाहिए था; वहां ऐसे समय में सरकार जम्मू-कश्मीर के लिए नया आवास कानून ला रही है। यह घाव पर नमक छिड़कने के सामान है क्योंकि यह कानून किसी को ऐसा कोई संरक्षण नहीं देता है जिनका वादा किया गया था। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी के एक पूर्व मंत्री अल्ताफ बुखारी द्वारा ‘जेएंडके अपनी पार्टी’ बनाए जाने से उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि आवास कानून कितना खोखला है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नई दिल्ली के आशीर्वाद से बनी इस नई पार्टी के नेता भी इस कानून की आलोचना करने के लिए बाध्य हो गए हैं। अल्ताफ बुखारी महबूबा मुफ्ती की पार्टी में भी रह चुके हैं। कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने इस बात पर हैरानी जताई है कि कुछ टिप्पणीकार इस पार्टी को जम्मू-कश्मीर के लिए नया सवेरा बता रहे हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही है।
चुनावी रणक्षेत्र में यह नई पार्टी परम्परागत प्रतिद्वंद्वियों कांग्रेस और भाजपा के बीच पिस कर रह जाएगी। जम्मू क्षेत्र और कश्मीर घाटी में नई राजनीतिक शक्तियों के उदय से चौंकाने वाली बातें सामने आएंगी। इससे बुखारी का भी कोई फायदा नहीं मिलेगा। बेशक, वह राजनीतिक बंदियों की रिहाई की तरफदारी कर रहे हैं। हालांकि विधानसभा चुनाव होने का समय कभी का हो चुका है लेकिन लगता है कि ये विधानसभा सीटों के परिसीमन के बाद ही होंगे। ऐसी संभावना है कि आवास कानून दोबारा उन लोगों के लिए असामान्य हालात पैदा करेगा, जिन्हें अभी तक विशेषाधिकार मिले हुए थे। कोरोना वायरस या बिना कोरोना वायरस का जम्मू-कश्मीर राजनीति की सांस लेना पसंद करता है। संदेह हमेशा बने रहेंगे। बेशक, हिमालय पार क्षेत्र लद्दाख को इससे अलग करके एक नया क्षेत्र बना दिया गया हो। अगर राजनीतिक पार्टियां अपने पार्टीगत स्वाथरे से ऊपर उठकर देखेंगी तो ही अलग हुए दो जम्मू-कश्मीर के ये क्षेत्र साथ रह पाएंगे।
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