मीडिया : अगर आज खबर चैनल न होते..

Last Updated 12 Apr 2020 12:29:01 AM IST

बहुत दिन बाद उनकी तमाशेबाजी, शोशेबाजी और बात-बात पर हंगामा खड़ा करने और धार्मिक विभाजन करने की कुछ बुरी आदतें छूटी हैं। भले कुछ दिन के लिए।


मीडिया : अगर आज खबर चैनल न होते..

आज इतने खबर चैनल न होते तो हम ‘कोरोना’ या कोविड 19 जैसी महामारी से कैसे लड़ते? ‘लॉकडाउन’ को नीचे तक कैसे ले जा पाते?
इतिहास गवाह है कि 1894 में जब प्लेग की महामारी चीन के युन्नान से शुरू होकर भारत में फैली तब जनता उससे कितनी अनभिज्ञ थी और इसीलिए उसकी आसान शिकार बनी। कुछ ‘चिरनिंदक’, अपने मीडिया की ऐसी ‘टॉप डाउन’ भूमिका को भारत में ‘कमान सिस्टम’ लाने की कवायद मानते हैं। ऐसे संशयवादी भूल जाते हैं कि कोरोना से बचेंगे तो ‘कमान सिस्टम’ से भी निपट लेंगे। बहरहाल, मीडिया से यहां हमारा मतलब सिर्फ खबर चैनलों से नहीं है। सोशल मीडिया या डिजिटल मीडिया से भी है। अपनी सारी मक्कारियों और फेकरीबाजी के बावजूद सोशल मीडिया भी बड़ी भूमिका निभा रहा है। यह सबके ‘सर्वाइवल’ की लड़ाई है। कहने की जरूरत नहीं कि इन दिनों खबरों की कीमत बढ़ी है। वे हमें कोरोना की महामारी के दैनिक फैलाव, उससे निपटने के ग्लोबल प्रयत्नों और उससे नित्य लड़ने में व्यस्त डॉक्टरों, नसरे और पुलिस-प्रशासन अधिकारियों और अनिवार्य सेवाओं में लगे लाखों लोगों की सच्ची ‘हीरोइक्स’ की खबर देते हैं। साथ ही ‘लॉक-डाउन’ से अपने घरों को पलायन करते करोड़ों दैनिक मजदूरों और फसल की कटाई न कर पाने वाले किसानों के प्रति हमदर्दी महसूस कराते हैं। बहुत से विशेषज्ञ ग्राफिक्स के जरिए समझाते रहते हैं कि इस महामारी से निपटने में भारत की स्थिति, अमेरिका, फ्रांस, स्पेन या इटली के मुकाबले बुरी नहीं है, कि हमारे पास कोरोना से लड़ाई में दुनिया को देने के लिए जरूरी दवा ‘हाइड्रोक्सिल क्लोरोरीन’ यानी ‘कुनैन’ भी है।

अपने यहां चौबीस बाई सात रियल टाइम में खबरें देने वाले भारतीय भाषाओं के सैकड़ों खबर चैनल न होते तो कोरोना से लड़ने में  ‘लॉकडाउन’ को सफलतापूर्वक लागू करने में कैसी-कैसी दिक्कतें आतीं, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। कब, क्या करें, क्या न करें? घर में बंद रहें। बाहर निकलें। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ करें और मुंह पर ‘मास्क’ पहनें या ‘गमछा/अंगोछा या रूमाल लपेटें। हाथ धोते रहें। डरने की जरूरत नहीं। आस्था रखें-ऐसे संदेश अब घर-घर पहुंच चुके हैं। अपने इस ‘लॉकडाउन’ को डब्लूएचओ तक ने सराहा है। ‘कोरोना’ के खतरे ने देश को एक सूत्र में पिरो दिया है। कई विपक्षी मुख्यमंत्रियों के मुख से यही सुनने को मिलता है कि इस लड़ाई में पूरा राष्ट्र एक है और हम सब मिलकर ही इस महामारी से लड़ सकते हैं।
यह मूलत: टीवी का कमाल है। आम आदमी खबरों के लिए टीवी ही देखता है। कोरोना ने ‘डिजिटल मीडिया’ को भी केंद्र में ला दिया है। बहुत से शिक्षा संस्थान ‘ऑनलाइन’ शिक्षा दे रहे हैं। ‘सोशल डिस्टेसिंग’ के इन दिनों में ‘वीडियो कान्फ्रेंसिंग’ अच्छा विकल्प बना है। सेमिनारों की जगह साहित्यकार ‘बेबिनार’ अपना रहे हैं। ‘लॉक-डाउन’ के सोशल मीडिया में अंनत हीरो उत्पन्न हो गए हैं, जो अपने जैसे ही लोगों को अपनी नाना लीलाएं दिखाते रहते हैं और इस तरह अपनी बोरियत को काटते रहते हैं। इसी तरह बहुत से किनारे पड़े गायक कोरोना को हराने वाले गीत गाते दिखते हैं तो बहुत से कवि, अकवि, कुकवि कोरोना के खिलाफ कविता करते पढ़ते दिखते हैं। यह सब इतना इतना है कि अच्छे-बुरे का फर्क करना मुश्किल है। घरों में बंद सारे खुराफाती दिमाग इसमें बिजी हैं, यह भी अच्छा ही है। सब सामान्य होगा तब  ये ‘सामान्य’ हो पाएंगे कि नहीं? यह आगे की बात है।
हां! प्रिंट मीडिया अवश्य संकटग्रस्त हुआ है। उसका कारण उसका ‘फिजीकल’ होना है। बिजनेस बंद होने से उनके विज्ञापन कम हुए हैं। पेज कम हुए हैं। पाठक ‘डिजिटल पेपर’ या ‘ई-पेपर’ की ओर जा रहे हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया का जो हिस्सा किसी तरह अपने को बचाए हुए है, वह प्रशंसा का पात्र है। यकीनन जब हालात सामान्य होंगे तो एक बार हम फिर प्रिंट मीडिया का वैसा ही उभार देखेंगे जैसा कि आपातकाल के बाद देखा था। कोरोना ने दूरदर्शन के दुर्दिन भी दूर कर दिए हैं। उसके पुराने सीरियल रामायण, महाभारत, चाणक्य आदि उसे विपुल दर्शक मुहैया करा रहे हैं और इनके स्पांसर उपलब्ध हो रहे हैं। घाटे में चलता दूरदर्शन अचानक ‘कमाऊ पूत’ बन गया है। यह भी ‘लॉक-डाउन’ का प्रसाद है : न लॉक-डाउन होता। न लोग घरों में बंद होते। न दूरदर्शन को उसके खोए हुए दर्शक मिलते और न वह अपने पुराने माल को फिर से ‘रिसेल’ कर पाता।

सुधीश पचौरी


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