विश्लेषण : सहजानंद का किसान विमर्श

Last Updated 24 Feb 2020 04:47:03 AM IST

भारत में किसानों का सवाल राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय स्तर व्यापक आन्दोलन का रूप लेता जा रहा है।


विश्लेषण : सहजानंद का किसान विमर्श

सरकारों द्वारा किसान आन्दोलनों का दमन तथा कहीं-कहीं पुलिस फायरिंग में किसानों की हत्या की भी घटना घटती रहती है। बावजूद देश में किसानों की समस्याओं के समाधान की दिशा में धीमी गति से ही सही लगातार प्रयास भी अवश्य होते रहे हैं परन्तु वैीकरण के बाद किसान संकट की दिशा बदली है तथा किसान आत्महत्या करने को भी विवश है। इन परिस्थितियों में देखा जाए तो आजादी के आन्दोलन के समय अखिल भारतीय किसान सभा द्वारा 1936 में स्वामी सहजानन्द सरस्वती की अगुआई में किसानों के सभी प्रकार के कर्ज की माफी, कृषि उत्पादों के उचित मूल्य का निर्धारण तथा सहकारी तथा सहकारी क्रय-बिक्रय का प्रसार तथा बिचौलियों से मुक्ति का अंग्रेजों के समक्ष उठाया गया सवाल आज 85वें वर्ष में भी जिंदा है और उन मुद्दों पर संघर्ष जारी है।
22 फरवरी भारत में संगठित किसान आन्दोलन के जनक तथा किसान संघर्ष के सिद्धांतकार, सूत्रधार और संघषर्कार स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्मदिवस है। इस मौके पर स्वामी जी द्वारा अंग्रेजी हुकूमत तथा जमींदारों के खिलाफ एक साथ आवाज उठाना कितना साहस भरा अभियान रहा होगा; आज उसे यादकर हमें ऊर्जा प्राप्त करने तथा किसानों के अधूरे सवालों को पूरा करने का संकल्प लेने का वक्त है। स्वामी जी ने कहा ‘मैं ईश्वर को ढूंढ़ने चला था, मैंने उसे जंगलों तथा पहाड़ों में ढूंढा, ग्रंथों तथा पुस्तकों में भी कम नहीं ढूंढा मगर उसे पा नहीं सका। अगर वह कहीं मुझे मिला तो किसानों में। किसान ही मेरे भगवान हैं और मैं उन्हीं की पूजा किया करता हूं और यह तो मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई मेरे भगवान का अपमान करे।’

स्वामीजी ने आजादी के संघर्ष के दौरान पाया कि अंग्रेजों से ज्यादा जमींदारों के शोषण से किसान त्रस्त है और उन्होंने साम्राज्यवादी तथा सामंती दोनों शोषण के खिलाफ एक साथ आन्दोलन का ऐलान कर दिया। आजादी के संघर्ष के साथ किसानों की जिन्दगी सुधारना उनका प्रमुख लक्ष्य बन गया। उन्होंने 1927 में बिहटा में सीताराम आश्रम बनाकर उसे किसान आन्दोलन का केंद्र  बनाया फिर 1929 में सोनपुर (बिहार) में किसान सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें स्वामीजी को अध्यक्ष डॉ. श्रीकृष्ण सिह को प्रांतीय मंत्री तथा स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख नेता यमुना कार्यी, गुरु सहाय लाल सहित अन्य नेताओं की कमेटी बनी और संघर्ष आगे बढ़ता रहा। इसी प्रकार 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई, जिसके अध्यक्ष स्वामी जी को बनाया गया तथा स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख नेता एन.जी. रंगा, जयप्रकाश नारायण, राहुल सांकृत्यायन, आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. राममनोहर लोहिया, नम्बूदरीपाद, पी. सुन्दरैया, पं. कार्यानंद शर्मा सहित अन्य नेताओं की कमेटी बनी तथा सुभाषचंद्र बोस के साथ मिलकर किसान संघर्ष को तेज किया गया। स्वामीजी के नेतृत्व में बिहार के बिहटा चीनी मिल में तीन बार हड़ताल हुई। इसी प्रकार टेकारी, रेबारी, साम्बे, अंबारी, धरहरा, बड़हिया टाल, कुसुम्बा टाल, गुजरात, पटना, भागलपुर, पंजाब, सहित देश में कई जगह आन्दोलन तेज हुआ। इसी का परिणाम था कि आजादी के बाद कांग्रेस भू-सुधार कानून बनाने पर मजबूर हुई थी। किसान सभा के कार्यों को लेकर स्वामीजी को विरोध तथा असहयोग का भी दंश झेलना पड़ा था।
बिहार में भूकम्प की त्रासदी (1934) में सहायता कार्यक्रम चला रहे स्वामीजी ने पाया कि उस आपदा की घड़ी में भी जमींदर कर वसूली के लिए किसानों के साथ बेरहमी से व्यवहार कर रहे हैं। उन्होंने इसकी शिकायत गांधीजी से की। गांधीजी ने दरभंगा महाराज से मिलकर समस्याओं के समाधान का सुझाव दिया। फिर स्वामीजी ने कहा, दरभंगा महाराज तो स्वंय सबसे बड़ा शोषक है फिर उनसे बात क्या करना है और गांधीजी से अलग होकर कार्यक्रम चलाने का ऐलान किया। इसी प्रकार कांग्रेस ने 1936 में कार्यसमिति से निर्णय लेकर किसान-मजदूरों  के वर्ग संघर्ष पर रोक लगा दी। इसके खिलाफ स्वामीजी तथा सुभाषचंद्र बोस ने पूरे देश में ‘प्रतिवाद दिवस’ मनाया। इसके बाद दोनों  नेताओं को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया। स्वामीजी को किसान-मजदूरों को साथ लेकर आन्दोलन बढ़ाने को लेकर कम्युनिस्टों का भी विरोध झेलना पड़ा।
कम्युनिस्ट किसान-मजदूरों को अलग-अलग रखकर आन्दोलन चलाने के पक्षधर थे, जिसे स्वामीजी ने अमान्य कर दिया। 1945 में किसान सभा के सदस्यों की संख्या 8,25,000 हो गई और पूरे भारत में किसान सभा का कारवां बढ़ता गया। आज यह चिंतन का विषय है कि आजादी के पहले कृषि अर्थतंत्र की स्थिति कमजोर थी, किसान विद्रोह हो रहे थे, किसान सूदखोरों के चंगुल में होने तथा कर्ज के बोझ तले दबे होने के बावजूद आत्महत्या की ऐसी भयावह  स्थिति में नहीं थे, जो आज आजाद भारत में देखने को मिल रहा है। खेती को 72वर्षो के बाद भी हम लाभकारी नहीं बना सके हैं। फलत: खेती छोड़ने तथा पलायन की स्थिति बनी हुई है। किसान भूख तथा तबाही की खेती कर रहा है। कृषि उत्पादों की लाभकारी मूल्य तथा सरकारी खरीद कुछ राज्यों तक सीमित है और उसे और भी सीमित तथा बंद करने की साजिश हो रही है। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के प्रयोग से खाद्यान्न, जलस्रोत तथा पर्यावरण भी जहरीला बन रहा है।
सरकार के जैविक खेती कार्यक्रम को किसानों तक पहुंचाने की गति धीमी है। खेती तथा किसानी को बाजार के हवाले करने की साजिश हो रही है और हालात ऐसे बनाए जा रहे हैं कि किसान खेती छोड़ने को विवश हो जाए। आज किसानों की पीड़ा तथा तबाही की दवा स्वामीजी के विचारों तथा संघर्ष के रास्ते में ही है। स्वामीजी के संघर्ष के परिणामस्वरूप जमींदारी उन्मूलन अवश्य हुआ परन्तु उनके दिलों में किसानों के खुशहाल होने का जो सपना था वह आज भी अधूरा है। अब पुन: किसान तथा खेती देशी तथा विदेशी कंपनियों के शोषण का शिकार बन गया है। पिछले महीने विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक के समय आक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया है कि उदारीकरण तथा भूमंडलीकरण मॉडल संपत्ति के न्यायपूर्ण बंटवारे में नाकाम साबित हुआ है। क्योंकि पूंजी आधारित इस व्यवस्था का फायदा पहले से मजबूत लोगों को ही अधिक हो रहा है। इन परिस्थितियों में आज पुन: स्वामीजी का आह्वान जिंदा है।

डॉ. आनन्द किशोर


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