मीडिया : मीडिया का नया शब्दकोश

Last Updated 23 Feb 2020 12:14:33 AM IST

टीवी चैनलों ने हमें बहुत से नये शब्द दिए हैं। जैसे ‘लुटियंस जोन’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ या ‘खान मार्केट गैंग’।


मीडिया : मीडिया का नया शब्दकोश

‘लुटियंस जोन’ सिर्फ नई दिल्ली में नौकरशाहों से आबाद नहीं है, बल्कि इस इलाके की ‘ऐलीट कल्चर’ का प्रतीक भी है। मगर कुछ बरस पहले से  मीडिया ने इसके मानी बदले हैं। दो हजार चौदह के बाद के मीडिया ने इस ‘ऐलीटिस्ट लिबरलिज्म’ के प्रति एक खास किस्म की ‘उत्तर औपनिवेशिक’ हिकारत पैदा की है। पिछले ‘सत्तर साल का अपराधी’ और इस तरह सबका ‘पंचिंग बैग’ बनाया गया है। 
सत्ता के साथ अपने लिप-सिंक के जरिए मीडिया इसी तरह अपने निशाने फिक्स करता है ताकि दूसरे का ‘खलत्व’ तय करने में आने वाली बहुत-सी जटिलताओं से मुक्त हो लिया जाए। इसी क्रम में हमारे कुड एंकरों ने दूसरा शब्द गढ़ा : ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’। यह नामकरण जेएनयू के छात्रों द्वारा लगाए जाने वाले कथित ‘देशविरोधी आजादीवादी’ नारों की एवज में किया गया। यों इनका ‘देशद्रोह’ अब तक सिद्ध नहीं हो पाया, लेकिन पहचान फिक्स कर दी गई। फिर आया ‘खान मार्केट गैंग’। यह नाम लोदी गार्डन के पास छोटी-सी खान मार्केट में अक्सर आने वाले, महंगी काफी शॉपों में बैठने वाले, ऑक्सफोर्डी, हॉरवर्डी, पब्लिक स्कूली अंग्रेजी बोलने वाले कथित ‘लिबरलों’ लिए दिया गया।

दिल्ली में यों तो अनेक दिल्लियां हैं, लेकिन ‘खान मार्केट गैंग’ ने पढ़े-लिखे संभ्रात वर्ग के लोगों तक को ‘गैंग’ में बदल दिया। अपने मीडिया का जलवा कि सिर्फ ‘खान मार्केट’ कहिए तो ‘गैंग’ शब्द आपकी जुबान पर आते-आते रह जाएगा। शुरू का यह रिफ्यूजी मार्केट’ है ही। ऐसा साफ-सुथरा इलाका कि बाकी दिल्ली वालों को चिढ़ाता लगता है। टीवी चैनल चिह्नों के जरिए काम करते हैं। हर खबर को बाइट में बदलते हैं, चिह्न में बदलते हैं और इसी तरह बाइट टू बाइट काम करते हैं। पहले अपनी सुविधा के लिए ‘चिह्नों’ या ‘निशानों’ को फिक्स करते हैं और उनकी अनंत लीला रचते हुए ही ‘संप्रेषण’ का काम करते हैं। प्रिंट के जमाने में ऐसा नहीं था। जब तक प्रिंट का बोलबाला था, तब तक ‘बहादुरशाह जफर मार्ग’ या ‘आइटीओ’ का इलाका मीडिया की पहचान माना जाता था। ‘साउथ ब्लॉक’, ‘नॉर्थ ब्लॉक’ व ‘रायसीना रोड’ सत्ता की पहचान माने जाते थे। लेकिन प्रिंट मीडिया की ‘बाई-लाइन’ खबर और खबरिये की पहचान मानी जाती थी। घटना के उत्स में ही खबर का पता रहता था। रिपोर्टर, उसकी बाई-लाइन और उसके बाद के ब्यौरे खबर का पूरा पता दिया करते थे। तब खबर के तथ्य और उनका विवरण भरोसे की चीज हुए करते थे। इसीलिए बहादुरशाह जफर मार्ग या आइटीओ प्रिंट मीडिया के अड्डे की तरह थे। सत्ता के अलावा अन्य कोई ठिकाना उनका निशाना नहीं होता था। अपने होने पर इतराते नहीं थे। सत्ता से सुरक्षित दूरी पर दिखा करते थे, बल्कि होते भी थे।
लेकिन जब से रोज के मुकदमेबाज एंकर और चैनल आए, जब से प्राइम टाइम की डिबेट्स ने ‘पॉप पॉलिटिक्स’ को विचार विमर्श का पर्याय बनाया और जब से एंकरों का नया ‘भक्तावतार’ हुआ तब से चैनलों ने अपने ‘प्रभुत्वबोधक के चिह्नों’ं और ‘खलत्वबोधक चिह्नों’ को पूर्व-निश्चित कर लिया। तभी से चिह्नों को फिक्सिंग करने की कला परवान चढ़ी। पहले कुछ शब्दों से खल चिह्न को फिक्स करो, फिर उसे समग्र खलत्व का प्रतीक बना दो और निरंतर कूटते रहो।
प्रिंट हर खबर के जटिल विश्लेषण में यकीन करता था, लेकिन टीवी सरलतावादी चिह्नों का माध्यम है। जटिल को भी सरल बनाकर पेश करता है। दृश्यों और साउंड बाइटों यानी बोली से बात करता है। तकनीकी नजर से रंगीन होते हुए भी टीवी सिर्फ काले सफेद के विलोम चिह्नों (बाइनरीज) के जरिए ही काम करता है। उसके फ्रेम में दिखता आदमी या तो अच्छा हो सकता है, या बुरा। बीच का चक्कर नहीं।   इसीलिए टीवी की बहसें भी ‘विलोमों’ से काम लेती हैं। इसी के चलते आज कोई खबर, कोई मुद्दा, कोई विचार, कोई वक्तव्य या तो देश का मित्र हो सकता है, या देश का शत्रु। यहां या तो आदमी राष्ट्रवादी है, राष्ट्रविरोधी, या हिंदू है, या मुसलमान या बहुसंख्यक है, या अल्संख्यक या वह भारतीय है, या पाकिस्तानी या वह ‘देशभक्त’ है, या ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ है, या  ‘राष्ट्रभक्त’ है, या ‘लुटियंस क्लब वाला है, या वह ‘देश का सेवक’ है, या ‘खान मार्केट गैंग’ वाला है। इस तरह चैनलों ने हमें एकदम ‘नया शब्दकोश’ दिया है। अफसोस कि आज हम उसी की कैद में हैं।

सुधीश पचौरी


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