आकलन : भविष्य के लिए गिरिराज

Last Updated 21 Feb 2020 03:01:08 AM IST

गिरिराज किशोर कितने बड़े या महान लेखक थे इसका निर्धारण करना मेरी सीमित क्षमताओं से परे है।


आकलन : भविष्य के लिए गिरिराज

पक्षपोषी आलोचना के युग में बड़े-से-बड़े लेखक को भी छोटा बताया जा सकता है और छोटे-से-छोटे लेखक को भी असीम महिमाओें से मंडित किया जा सकता है। यह इस पर निर्भर करता है कि समीक्षक-आलोचक स्वयं किस विचार का पोषक है, किस खेमे से जुड़ा है, उसकी अपनी लागडॉट और उसके अपने राग-द्वेष क्या हैं। एक लेखक का बड़ापन अगर उसकी लोकप्रियता और पठनीयता से जाना जाये तो गिरिराज किशोर अपने समय के पठनीय और लोकप्रिय लेखक थे।
अगर सम्मान-पुरस्कारों से नापा जाये तो गिरिराज किशोर ने हिंदी साहित्य के बड़े-बड़े सम्मान प्राप्त किये। अगर अगली-पिछली पीढ़ियों से संपर्क-संबंध से नापा जाये तो इस लिहाज से गिरिराज किशोर अत्यधिक समृद्ध लेखक थे और अगर लेखक की किसी कृति को उसके बड़ेपन का पैमाना बनाया जाये तो मोहनदास कर्मचंद गांधी के दक्षिण अफ्रीका के प्रवासीय जीवन को केंद्र में रखकर लिखा गया उनका उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ उन्हें निर्विवाद-निर्विरोध बड़े लेखकों की कतार में बिठा देता है। यहां मेरी चिंता गिरिराज किशोर को किसी खांचे में बिठाना नहीं है बल्कि भविष्य की अनेक आशंकाओं के बीच वर्तमान में उस खांचे की खोज करना है, जो गिरिराज किशोर जैसे लेखक को स्वत: आत्मसात करने को तैयार हो।

अस्सी के दशक में मेरा उनसे जो संबंध स्थापित हुआ वह व्यक्तिगत मुलाकातों, उनके द्वारा स्थापित आईआईटी, कानपुर के रचनात्मक लेखन केंद्र के कार्यक्रमों, राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ की साहित्यिक सक्रियताओं, हरिनारायण और ‘कथादेश’ द्वारा उपलब्ध कराये गये अवसरों, प्रियंवद के कथा संगमनों आदि के माध्यम से निरंतर चलता रहा। वह मुझे आत्मीयता देते रहे और मैं उन्हें भरपूर सम्मान। मैं उन्हें एक व्यक्ति और लेखक के रूप में समझता-जानता रहा, उन्हें पढ़ता रहा और अपना भी थोड़ा-बहुत उन्हें पढ़वाता रहा। कई मायनों में गिरिराज किशोर अपने समकालीन लेखकों की जमात से भिन्न थे। यह भिन्नता उनके व्यक्तित्व की थी। अगर यहां तुलना करूं तो गिरिराज जी के प्रतिपक्षीय व्यक्तित्व के तौर पर राजेन्द्र यादव का नाम ले सकता हूं। ये दोनों गहरे मित्र थे, लेकिन आचरणगत व्यवहृति में दोनों दो छोर थे। पारंपरिक नैतिक वर्जनाएं राजेन्द्र यादव के लिए सर्वथा उल्लंघनीय थीं तो गिरिराज किशोर इन वर्जनाओं को अर्थवान मानते थे और उन्हें सम्मान देते थे। उनके समय के बहुत से लेखकों को राजेन्द्र ज्यादा आकषिर्त करते थे और अपनी कहूं तो मुझे भी। जब गिरिराज किशोर ने गांधी के जीवन को अपनी औपन्यासिक कृति का कथ्य बनाने का संकल्प लिया था, तब बहुतों के मन में यह सवाल था कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, और क्यों उनके समकालीन किसी अन्य लेखक ने गांधी के जीवन में पैठने का दुस्साहस नहीं किया? वस्तुत: अधिकांश लेखकों को गांधी की रूढ़ नैतिकताएं विलगाती थीं जबकि गिरिराज किशोर को आकषिर्त करती थीं। वह स्वयं को इन नैतिकताओं के निकट पाते थे।
गांधी की मूल्यगत नैतिकता को गिरिराज किशोर श्रेष्ठ मानवीय जीवन की एक उदात्त गर्त के रूप में देखते थे यानी गिरिराज किाोर के भीतर पहले से ही एक गांधी मौजूद था जो मोहनदास गांधी की विराटता से नैकट्य स्थापित करना चाहता था। यही प्रेरणा थी कि उन्होंने गांधी के जीवन को उपन्यासबद्ध करने के लिए अनथक प्रयास किये। गांधी के अफ्रीकी जीवन के अन्वेषण के लिए हर कोने से संसाधन जुटाये, संसाधनों के लिए जिन-जिन व्यक्तियों और संस्थाओं तक वह पैठ बना सकते थे, उन तक पैठ बनायी और मानापमान की अनेकानेक स्थितियों से गुजरते हुए अंतत: उन्होंने अपना संकल्प पूरा किया। वह कृति सामने रखी जो गांधी को मनुष्यवत समग्रता में देखती है और एक व्यक्ति की लघुता के विराटता में बदलते पड़ावों को शब्दबद्ध करती है। अब यह एक निर्मम सवाल है कि ‘पहला गिरमिटिया’ के लेखक गिरिराज किशोर की इस दौर में कोई प्रासंगिकता है? क्या ऐसी प्रासंगिकता है जिसे भविष्य के लिए सहेजा जा सके? उस दौर में जिसमें वर्तमान जीवन की समझ विकसित करने वाला, मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियों को चिह्नित करने वाला, परिस्थितियों के सापेक्ष नयी मानवीय संवेदनाओं का अन्वेषण करने वाला और उन्हें जन चेतना में स्थापित करने वाला उदात्त कथा लेखन स्वयं विस्थापित हो गया है और इसकी संवाहक वैचारिक-साहित्यिक पत्रिकाएं या तो तिरोहित हो गयी हैं या होने के कगार पर हैं।
उस दौर में; जिसमें अखबारी पत्रकारिता दलालों या पक्षपोषकों के हवाले हो गयी हो, टेली मीडिया की कहानियां जीवन के सारे सरोकारों से कटकर घटियापन की नित नई नीचाइयां नाप रही हों, सोशल मीडिया ने सतही सामग्री की बाढ़ लाकर सारे बौद्धिक विमशरें को पंकाच्छादित कर दिया हो, हिंदी का विशाल पाठक वर्ग किसी भी गंभीर विमर्श से बाहर हो गया हो, समूची राजनीति मनुष्य निरपेक्ष सत्ताकांक्षियों, धर्मविग्रहियों, काली पूंजी के प्रभुओं के हवाले हो गयी हो तब किसी भी गंभीर लेखक की जगह कहां, कैसे और किनके बीच तलाशी जाये? जब स्वयं गांधी की मानवीय विराटता को बिसराकर उनको राजनीति के चालू मुहावरे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा हो यानी जब स्वयं गांधी की विराटता अप्रासंगिक हो गयी हो तब गांधी पर लिखने वाले लेखक की विराटता को कैसे और कहां रोपा जाये?
यह संवेदनशील और उदात्त मानवीय मूल्यों के संवाहक लेखकों के सत्ताविहीन होते जाने का समय है। एक लेखक की सत्ता उसकी लोकप्रियता यानी उसके पाठकों से बनती है। जब पाठक वर्ग विमर्शशील तथा मनुष्य विरोधी स्थापित सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रतिरोधी साहित्य से जुड़ता है, उसे सहेजता है और उसका प्रसार करता है, तब एक लेखक की सत्ता स्थापित होती है। लेखक की सत्ता एक अर्थ में पाठक की सत्ता से प्रसूत होती है, लेकिन जब स्वयं पाठक गायब हो रहा हो तो फिर लेखक की सत्ता कैसी? एक बड़े लेखक की पाठकीय सत्ता ही उसे भविष्य के लिए महत्त्वपूर्ण बनाती है। जब पाठक ही भविष्यविहीन हो तो लेखक का भविष्य कैसा? यह वह सूरत है जिसमें किसी भी बड़े हिंदी लेखक को दोहराना या उसे भविष्य के लिए सहेजना अत्यधिक कठिन प्रतीत होता है। लेकिन अगर यह चुनौती है तो वर्तमान हिंदी रचनाधर्मिता को इसे स्वीकारना चाहिए और इस रचना विरोधी काल से सीधे मुठभेड़ करनी चाहिए। गिरिराज किशोर को जीवित रखना हिंदी की संवेदनशील वैचारिक चेतना को जीवित रखना है। अब देखना यह है कि हिंदी विश्व इस कार्य को कैसे पूरा करेगा?

विभांशु दिव्याल


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