सरोकार : आजाद होतीं औरतें बनाम अरब स्प्रिंग

Last Updated 16 Feb 2020 01:04:37 AM IST

अच्छी खबर है कि अरब देशों की औरतों ने फ्री स्पेस पर धीरे-धीरे अपनी मौजूदगी दर्ज करानी शुरू कर दी है। खाड़ी के कई देशों ने श्रम शक्ति के राष्ट्रीयकरण की नीतियां अपनाई हैं।


सरोकार : आजाद होतीं औरतें बनाम अरब स्प्रिंग

सऊदी अरब में 2030 तक श्रम बाजार में औरतों की हिस्सेदारी 30 फीसद करने का लक्ष्य रखा गया है। कुवैत में श्रम शक्ति में औरतों की संख्या पुरु षों से अधिक हो चुकी है। सऊदी अरब ने गार्जियनशिप प्रणाली में संशोधन किए हैं जो औरतों पर उनके पुरु ष संबंधियों के अधिकारों को पुख्ता करते थे। अब वहां औरतें अपने आप पासपोर्ट ले सकती हैं, विदेश यात्रा कर सकती हैं, अपनी शादियां पंजीकृत करा सकती हैं।
बदलाव की बयार ने औरतों की जिंदगी बदली है, उन्हें आर्थिक स्तर पर आजाद किया है। घरेलू मामलों में वे अपनी आवाज बुलंद करने लगी हैं। फिर भी पश्चिम एशिया की औरतों के लिए अब भी सामाजिक-कानूनी गैर-बराबरी कायम है। वे परंपरागत भूमिकाओं में कैद हैं। दरअसल, 1930 के दशक में खाड़ी क्षेत्र में तेल की खोज ने अरब देशों को अंतरराष्ट्रीय मंच का बड़ा खिलाड़ी बना दिया। वैीकरण ने इन देशों पर अपने कानूनों और रीति-रिवाजों को आधुनिकता का जामा पहनाने का दबाव बनाया। अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि उदार बनाने की ख्वाहिश में अरब देशों को अपनी औरतों की तरक्की पर ध्यान देना पड़ा। पर चूंकि इन देशों के शीर्ष नेतृत्व को अपना वर्चस्व कायम करने के लिए परंपरागत सोच वाले प्रभावशाली धार्मिंक नेताओं और लोगों का समर्थन चाहिए इसलिए वे जनता को पश्चिमीकरण का भय दिखाते हैं। कहते हैं कि पश्चिमीकरण से उनकी भाषा, पहनावे, भोजन और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों पर असर होगा। वे ऐसी धार्मिंक मान्यताओं को बढ़ावा देते हैं, जो औरतों को परंपरागत भूमिकाओं में कैद करती हैं। औरतों के घरेलू चरित्र को सेलिब्रेट करके वे साबित करते हैं कि वे धार्मिंक और परंपरागत मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। 

जैसे कतर में आर्थिक-सामाजिक विकास के ब्ल्यूप्रिंट नेशनल मिशन, 2030 में कहा गया है, ‘हमारे देश ने अरब और इस्लामी देश के सांस्कृतिक और परंपरागत मूल्यों को बरकरार रखा है, जिसमें परिवार को ही समाज का मुख्य स्तंभ माना जाता है।’ जाहिर सी बात है, इस स्तंभ को ऊंचा रखने की जिम्मेदारी औरतों की ही है। पर इस्लाम खुद औरतों के दमन का समर्थन नहीं करता। हां, इतिहास गवाह है कि खाड़ी देशों के पुरुष-प्रधान नेतृत्व ने पितृसत्तात्मकता को धार्मिंक मान्यता से जोड़ा है। उदाहरण के लिए सभी खाड़ी देशों की औरतों को शादी करने के लिए पुरु ष गार्जियन की सहमति चाहिए। कतर में 25 साल से कम उम्र की सभी सिंगल औरतों को विदेश यात्रा के लिए अनुमति लेनी होती है। कतर के पुरु ष अपनी बीवियों की ट्रैवलिंग को कानूनन रु कवा सकते हैं। सऊदी अरब में पुरु ष अपनी महिला संबंधियों के खिलाफ अवज्ञा की शिकायत कर सकते हैं, अगर वे अनुमति के बिना घर से बाहर निकलती हैं। कतर, कुवैत और बहरीन में पुरु ष अपनी बीवियों का नौकरी करना रुकवा सकते हैं।
इसीलिए खाड़ी देशों की औरतें 21वीं सदी में खुद को विरोधाभासी स्थितियों में देख रही हैं। घरेलू जिम्मेदारियों से उनका पीछा नहीं छूट रहा और पेशेवर अवसर बांहें फैलाए खड़े हैं। एरिजोना विश्वविद्यालय की  पीएचडी स्कॉलर अलैना लिलोई ने इस पर एक थीसिस लिखी है। थीसिस के लिए उनने कई अरब औरतों से इंटरव्यू किए। शैखा नाम की एक लड़की ने कहा, ‘मेरे पास अच्छी नौकरी और उज्ज्वल भविष्य है। मैं शादी क्यों करूं..।’ बेशक, दुनिया बदल रही है, और लड़कियां बदलती दुनिया का नया चेहरा हैं।

माशा


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