विमर्श : राष्ट्रपिता का राष्ट्रवाद

Last Updated 29 Jan 2020 12:57:58 AM IST

राष्ट्रपिता का राष्ट्रवाद। देश में हर बात पर राष्ट्रवाद भारी हो तब यह विषय बहुत जरूरी हो जाता है।


विमर्श : राष्ट्रपिता का राष्ट्रवाद

संयोग से गांधी के डेढ़ सौवें साल के साथ आयोजनों की धूम भी है, और राष्ट्रवाद का शोर मचाने वालों के अनिवार्यत: गांधी विरोधी सुर के चलते भी इस सवाल को जांचना जरूरी लगता है। गांधी से बड़ा राष्ट्रवादी कौन होगा। इसलिए  जब हम गांधी के राष्ट्रवाद की चर्चा कर लेंगे या उसके बारे में थोड़ी समझ बना लेंगे तब यह विचार करना भी आसान हो जाएगा कि आज का शोर कितना जरूरी है, और इस शोर के साथ अपने आचरण में हमें क्या बदलाव करना चाहिए क्योंकि आज राष्ट्र सचमुच के संकट में है।
एक विभाजन तो गांधी के समय ही हो गया और उसे लाख चाहकर भी वे खुद नहीं रोक पाए पर आज हम जिस विभाजक मानसिकता को बढ़ाते जा रहे हैं, उसमें राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े हों न हों, वह गर्त में जरूर गिरेगा। गांधी के अंदर जब औपनिवेशिक शोषण, अन्याय और भेदभाव से लड़ने का भाव आया तब उसका स्वरूप ठीक-ठीक वही नहीं था, जो आज राष्ट्रवाद के नाम पर समझाया जा रहा है। गांधी और हमारे राष्ट्रीय नेताओं का मानना था कि भारत में दिखने वाली इतनी विविधता असल में बिखराव की चीज नहीं है। दरअसल, हमारे यहां विविधता में बुनियादी एकता है। भारत भले राजनैतिक रूप से अंगरेजी हुकूमत वाले दौर की तरह एक इकाई न हो पर उसके सभी प्रदेशों, लोगों, मजहबों, भाषाओं और बोलियों में कोई आपसी बैर नहीं रहा है। हजारों साल से सभी मजे से साथ हैं, और इनके बीच एक बुनियादी एकता है। गांधी के पहले के नेता इस स्थापना को सामने लाने के साथ ही उन सभी मोचरे पर सक्रिय रहे जिनसे यह एकता दिखे या बढ़े। तिलक महाराज ने इसके लिए गणोश पूजा की मुहिम चलाई तो बंगाल में सार्वजनिक दुर्गा पूजा की शुरु आत उसी दौर में हुई, वरना पूजा पहले अपनी-अपनी बाड़ी की ही चीज थी। लिखने-पढ़ने-बोलने से लेकर अनेक तरह के आयोजनों के जरिए इस राष्ट्रीयता को स्थापित किया गया। राष्ट्रीयता की यह अवधारण काफी हद तक युरोपीय थी और भारत ही नहीं, पूरब के समाजों के लिए अनजान थी लेकिन जब पश्चिमी औपनिवेशिक सत्ता से लड़ना हो तो उसे उसी की जुबान में जवाब देना जरूरी था।

केशव चंद्र सेन जैसे लोगों ने ईसाई मत अपना लिया था, लेकिन सती के देश भर में बिखरे अंगों के बीच एकता और सार्वजनिन दुर्गा पूजा के आयोजनों से उन्होंने अपना राष्ट्रवादी विमर्श आगे किया। एक बड़ी पहल विवेकानंद ने की-हिंदुस्तान में समाज की जड़ता को तोड़ने और झकझोरने की। ऊंचे-ऊंचे दर्शन के बीच हिंदुस्तानी ज्ञानी कथनी और करनी के भेद को भूल गया था। वह छुआछूत बरतने या औरत से दोयम दरजे के व्यवहार को अनैतिक नहीं मानता था जबकि दशर्न और अध्यात्म की बहुत ऊंची-ऊंची बातों का ज्ञान उसे हासिल था। गांधी ने तिलक-पाल-सेन वाली लाइन के साथ विवेकानंद की लाइन को भी माना, अपनाया और आगे बढ़ाया. बल्कि उन्होंने विवेकानंद के लाइन को ज्यादा ही माना। समाज को एक करने, कमजोर और गरीब का पक्ष लेने से लेकर आर्थिक और राजनैतिक रूप से मजबूत राष्ट्र का निर्माण और दुनिया में अच्छे मूल्यों को आगे बढ़ाने वाले स्वतंत्र मुल्क के तौर पर भारत को विकसित करने के सपने को विवेकानंद से भी ज्यादा गांधी ने आगे बढ़ाया। स्वामी जी को इसका ज्यादा वक्त नहीं मिला, लेकिन गांधी ने हिंदुस्तान लौटने के पूर्व ही यह राय साफ कर ली थी कि उन्हें कैसा हिंदुस्तान बनाना है, उसकी दुनिया में क्या भूमिका होगी और पश्चिमी शैतानी सभ्यता का क्या विकल्प होगा।
हमने देखा है कि जो गांधी दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई में हिंदू-मुसलमान एकता और औरतों की भागीदारी के साथ लड़ते हैं, भारत आते ही पंचम वर्ण अर्थात अछूतों के साथ काम की रूपरेखा को अंजाम देने लगते हैं। चम्पारण पहुंच कर सबसे पहले महिलाओं की स्थिति पर चर्चा करते हैं। अपने पहले राष्ट्रव्यापी आंदोलन में खिलाफत के सवाल को केंद्रीय बनाते हैं। चम्पारण से ही वैकल्पिक शिक्षा, ग्रामोद्योग, गोशाला-पशुपालन और स्वच्छता-स्वास्थ्य के प्रयोग शुरू करते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा और शराबबंदी की मुहिम चलाते हैं,हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान शुरू करते हैं, दक्षिण में हिंदी प्रचार के लिए अपने बेटे समेत अनेक प्रियजनों को भेजते हैं और देश को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने के लिए खादी की मुहिम उनके लिए जनून का रूप लेती है तो हरिजन उद्धार के लिए भीख मांगना उनकी राष्ट्रीय पहचान बन जाती है। वे पश्चिमी पोशाक और शानोशौकत को अपनाने की जगह आम हिंदुस्तानी की तरह लंगोट पर आ जाते हैं। उनके ‘राष्ट्र’ अर्थात रामराज्य में सिर्फ बराबरी, भाईचारा, सबकी बुनियादी जरूरतों का खयाल ही रखने की बात न थी, सबको सम्मान और निर्भयता का वायदा भी था। उनका हिंदुस्तान सबको बराबरी का अधिकार की बात पहले दिन से करता है तो दुनिया में अन्याय के खिलाफ लड़ाइयों में मददगार की भूमिका निभाने लगा था। गुजरात की बाढ़, बिहार के भूकंप जैसी आपदाओं को भी अपने से संभालने लगा था. गांधी ने तिरंगे का अपमान किया हो, उसकी परवाह न की हो इसका कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन गरीब के शरीर पर कपड़ा डालना उनका जनून था। उनके लिए खादी का खुरदुरापन या मोटे अनाज का भदेसपन समान व्यवहार की चीज थे। हर औरत-मर्द से बराबरी का व्यवहार, सादगी, मितव्ययिता और अनुशासन में से कुछ भी दिखावटी और दूसरों के करने की चीज न थी। पक्का वैष्णव होते हुए भी मन्दिर जाने की जरूरत तभी महसूस हुई जब दलितों को मन्दिर प्रवेश कराना था। कई विश्वविद्यालय/विद्यापीठ और हजारों स्कूल-कॉलेज बनवाने का जतन किया पर कहीं मन्दिर-मस्जिद या ऊंची मूर्ति लगवा कर राष्ट्रवाद को आगे नहीं बढ़ाया।
गांधी ने क्या-क्या किया, कैसे किया, किस सोच से किया यह गिनवाना आसान नहीं है पर उनकी दिशा, सोच और मंशा को बताना मुश्किल नहीं है। अगर उनको राष्ट्रपिता कहा और गिना जाता है तो इसक सीधा सा मतलब है कि आज जो राष्ट्र है उसको बनाने, मौजूदा स्वरूप देने में उनकी भूमिका सबसे बड़ी, सबसे ज्यादा थी। और जो राष्ट्र उन्होंने बनाया वह सिर्फ औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए दुनिया का मॉडल ही नहीं बना, अन्याय से लड़ाई में उनका हथियार सत्याग्रह आज सबका हथियार बन रहा है। गांधी की अहिंसा ही नहीं विकास का वैकल्पिक मॉडल दुनिया को मुक्ति का रास्ता नजर आता है। वह लोहिया की इस बुनियादी स्थापना को सही साबित करता है कि भारत जब-जब उदार हुआ है दुनिया में उसका विस्तार हुआ है। जब-जब कट्टरता बढ़ी है भारत कमजोर व खंडित हुआ है। आज राष्ट्रपिता के राष्ट्रवाद के साथ इस चीज को भी याद करने की जरूरत है।

अरविन्द मोहन


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