मीडिया : सांस्कृतिक राजनीति

Last Updated 26 Jan 2020 04:24:35 AM IST

एक मुस्लिम नेता ने कहा कि ‘हलवा’ अरबी भाषा का शब्द है। वे सीएए के खिलाफ बोल रहे थे और इतिहास में मुसलमानों के योगदान पर जोर दे रहे थे।


मीडिया : सांस्कृतिक राजनीति

अगले रोज भाजपा के एक नेता ने कह दिया कि मेरे यहां कुछ मजदूर काम करते थे। मैंने एक दिन उनको एक साथ पोहा खाते देखा। उनके खाने के ढंग से मैं पहचान गया कि वे बांग्लादेशी मुसलमान हैं। हमारे कई चैनलों ने अपने प्राइम टाइम में इसे ‘हलवा बरक्स पोहा’ की बहस में बदल दिया। देर तक ‘हिंदू-मुसलमान’ करते-कराते रहे।
उसी दिन सीएए के विरोध में भाषण देते हुए एक अन्य मुस्लिम नेता ने कह दिया कि हमने यहां आठ सौ साल हुकुमरानी और जांबाजी की है..। इसके जवाब में भाजपा के एक प्रवक्ता ने कह दिया कि हां, हमें मालूम है कि आपके बाप-दादों ने अपनी लैलाओं के लिए ताजमहल बनवाए हैं..। फिर एक मुस्लिम युवा नेता ने अलीगढ़ में कह दिया कि हमारी कौम के सब्र को देखा। हम उस कौम से हैं, जो अपनी सी पर आ गए तो सब कुछ बर्बाद करके रख देंगे। मुल्क के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे लेकिन नहीं करेंगे..। जब एक चैनल ने इस युवक को बुलाकर चरचा की तो एंकर ने इस युवक को ‘देशद्रोही’ कहकर उसे ‘अरेस्ट’ करने की मांग तक कर डाली और उसे फटकारता हुआ कहता रहा कि तू तोड़ेगा मेरे देश को! बता कैसे तोड़ेगा? बता कैसे तोड़ेगा? फिर भाजपा के एक युवा नेता की धमकी आई कि आप अगर शाहीन बाग बनाओगे, चांद बाग बनाओगे या इंदल्रोक बनाओगे तो आठ फरवरी को दिल्ली के लोग हिंदुस्तान बनाएंगे..।

हमारे खबर चैनल इन दिनों ऐसे ही धार्मिक व भावनात्मक मुद्दों को बड़ी खबर बनाने के आदी हैं। जिस तरह से एक दल अरसे से ‘सांस्कृतिक राजनीति’ करने में लगा है, लगभग उस के समानांतर हमारे कई चैनल भी ‘सांस्कृतिक राजनीति’ का निर्माण करते रहते हैं। सांस्कृतिक राजनीति भावों को जगाने, उनको उत्तेजित करने और उसी तरह के उन्मद-व्यवहार को करने की राजनीति है। तथ्य, तर्क और विचार करना यहां हेय माने जाता है। जब बजट आता है, तब अवश्य हमारे चैनल एक-दो दिन ठोस आर्थिक खबर बनाते हैं लेकिन अगर कहीं कोई उत्तेजक ‘हेट कथा’ मिल जाती है, तो उसे जम के बताते हैं। ‘इन दिनों जो एंकर व चैनल दर्शकों की भावनाओं को जितना ही अधिक तिकितिकाते व उत्तेजित करते हैं, अपनी ‘रेटिंग्स’ बढ़ाने में वे उतने ही सफल होते हैं।
जीडीपी गिरने, बेरोजगारी या मंदी जैसी  समस्याएं हमारे एंकरों का ध्यान अधिक नहीं खींचतीं क्योंकि ऐसे मुद्दे गहन सोच-विचार करने और उनके उपाय सोचने को विवश करते हैं। ‘सांस्कृतिक राजनीति’ के भड़काऊ मुद्दे सामान्य मानवीय मुद्दों तक को भुलवा देते हैं। जैसे दिल्ली के मंडी हाउस के सतराहे पर कुछ दिनों पहले हुए रेलवे सेवाओं में चयनित विकलांगों के लंबे धरने को याद करें जिसके जरिए वे रेलवे प्रशासन से नौकरी ज्वॉइन करने-कराने की मांग कर रहे थे। एकाध चैनल को छोड़कर किसी ने भी विकलांगों के उत्पीड़न की इस कहानी को अपना मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि इन विकलांगों की यह कष्ट-कथा किसी को ‘उत्तेजित’ करने वाली नहीं थी। उनको देख हमें ‘हमदर्दी’ महसूस होती और अधिक मानवीय बनने को उद्यत होते।
लेकिन तब ‘हेट’ की ‘सांस्कृतिक राजनीति’ कैसे बिकती और घृणा के बढ़ते मार्केट का क्या होता? माना कि सीएए, एनआरसी का विरोध एक बड़ी खबर है, लेकिन जिस तरह से कुछ तत्व उसे हिंदू बरक्स मुस्लिम बनाए दे रहे हैं, उसी तरह हमारे चैनल भी उसे हिंदू-मुस्लिम बनाने-बताने में लगे हैं। राजनीतिक दल या उनके नेता भावनात्मक सांस्कृतिक राजनीति करें तो समझ में आता है, लेकिन अगर एंकर और चैनलों की भाषा भी वैसी ही सांस्कृतिक राजनीति करने लगे तो दलों व मीडिया में क्या फर्क रहेगा?
मीडिया की भाषा भावनात्मक या उत्तेजनात्मक नहीं हो सकती। हड़काऊ-भड़काऊ नहीं हो सकती, बल्कि विश्लेषणात्मक तथ्य-सम्मत और तर्कसंगत ही हो सकती है। लेकिन इन दिनों तो हमारे कई एंकर व कई रिपोर्टर तक ऐसी उत्तेजक व भावोन्मादी भाषा बोलने लगते हैं। अगर आप उत्तेजना की दुकान लगाएंगे तो अन्य उन्मादी तत्व अपने उन्मादी माल को भी आपके लिए बनाएंगे ताकि आप उसे बेच सकें और इस तरह आप ध्रुवीकरण का मंच बन जाएं।
जब मीडिया ही ‘भावोत्तेजक सांस्कृतिक राजनीति’ का औजार बन जाएगा तो क्या वह मीडिया रह जाएगा?

सुधीश पचौरी


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