ग्रामीण संकट : समाधान में समग्रता हो
हाल के वर्षों में किसानों का संकट बहुत चर्चा में रहा है। खेती-किसानी वास्तव में बहुत कठिनाई के दौर से गुजर रही है।
ग्रामीण संकट : समाधान में समग्रता हो |
इसके बावजूद यदि हम केवल किसान के संकट के स्थान पर गांव के संकट को विमर्श के केंद्र में रखें तो यह और सार्थक प्रयास होगा। इसके कई कारण हैं। एक वजह तो यह है कि अनेक गांवों में भूमिहीन मजदूर परिवारों की संख्या अब काफी अधिक है। वे भी खेती में मजदूर या बटाईदार या ठेके पर खेती करने वाले के रूप में महत्त्वपूर्ण रूप से जुड़े हैं पर प्राय: सरकारी परिभाषा में उन्हें किसान के रूप में मान्यता नहीं मिलती है। यदि गांव के सबसे निर्धन परिवारों को विमर्श के दायरे में रखना है तो भूमिहीन परिवारों व प्रवासी मजदूरों पर आधारित परिवारों को भी ध्यान में रखना होगा। इसके अतिरिक्त किसान परिवार के विभिन्न सदस्य भी अब मजदूरी सहित अन्य रोजगारों में आ रहे हैं।
अनेक छोटे किसानों की आर्थिक मजबूती के लिए यह जरूरी हो गया है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अधिक विविधता भरी आजीविकाएं हों, जिससे वे खेती-किसानी का अपना मूल आधार बनाए रखते हुए भी अन्य रोजगारों से पर्याप्त धन अर्जन कर सकें। खेती-किसानी के टिकाऊपन के लिए गांवों में जल-संरक्षण के कार्य जरूरी हैं, गांव के पर्यावरण व हरियाली की रक्षा जरूरी है। इन सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों को ध्यान में रखते हुए किसान-संकट के समाधान के साथ ग्रामीण संकट के समाधान का अधिक व्यापक विमर्श होना चाहिए। खेती-किसानी पर तेजी से बढ़ते हुए खर्च व इससे जुड़े कर्ज को कम करना बहुत जरूरी हो गया है।
इसी तरह डेयरी कार्य के खर्च को कम करना जरूरी हो गया है। इसके लिए चारागाहों व चारे के वृक्षों को बढ़ाना, जल व नमी के संरक्षण में वृद्धि, आपसी सहयोग से कंपोस्ट खाद में वृद्धि, परंपरागत बीजों का संरक्षण व आदान-प्रदान तथा बुजुर्गों के खेती-किसानी के ज्ञान से सीखना बहुत जरूरी है। परंपरागत दस्तकारी को नवजीवन देकर या आधुनिक सूचना तकनीक का लाभ उठाकर गांवों में विविधतापूर्ण रोजगार उपलब करने चाहिए। दैनिक उपयोग की अधिक वस्तुओं का उत्पादन गांव व कस्बे के कुटीर उद्योगों में होना चाहिए। इन सभी के लिए गांवों में आपसी सहयोग व भाईचारा बढ़ाना व शोषण, भेदभाव तथा दबंगई को दूर करना भी जरूरी है। समाज-सुधार व न्याय के लिए समर्पित युवा आगे आएं व संगठित हों तो गांवों का संकट दूर करने में व गांवों की आत्मनिर्भरता बढ़ाने में बहुत मदद मिलेगी।
इन युवाओं में से उस गांव या आसपास के गांवों के लिए भावी शिक्षक व स्वास्थ्यकर्मी निकलने चाहिए व गांवों के प्रतिभाशाली युवाओं को इसके लिए जरूरी शिक्षा व प्रशिक्षण देने के लिए विशेष कार्यक्रम चलने चाहिए। बालिकाओं, किशोरियों व महिलाओं को हर स्तर पर अपनी प्रतिभाओं के विकास के लिए खुला माहौल मिलना चाहिए व प्रोत्साहन मिलना चाहिए। शराब, गुटखा व सभी तरह के नशे व जुए को दूर करने के लिए गांव में स्थाई ना-विरोधी समिति बनाकर निरंतरता से प्रयास करना चाहिए ताकि इन बुराइयों को 95 प्रतिशत तक तो दूर कर ही दिया जाए। पुराने झगड़ों, कोर्ट-कचहरी, रिश्वत के खर्चे, गुटबंदी, भेदभाव व वैमनस्य को दूर करने के लिए सद्भावना समिति बनाकर निरंतरता से प्रयास होने चाहिए।
दहेज प्रथा समाप्त करने व शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर अनावश्यक खर्च कम करने के प्रयास भी निरंतरता से होने चाहिए। शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं को सस्ता व सुलभ बनाने के लिए सरकार पर विशेष दबाव बनाना चाहिए व गांव समुदाय को अपनी ओर से सहयोग भी देना चाहिए। स्वयं सहायता समूहों का गठन कर अचानक आई जरूरत को पूरा करने के लिए कर्ज की बहुत कम ब्याज पर व्यवस्था करनी चाहिए। पहले से बैंकों व साहूकारों का जो कर्ज जमा हो गया है, उसका बोझ कम करने के न्यायसंगत उपाय सरकार को घोषित करने चाहिए। राष्ट्रीय व राज्य नीति स्तर पर ग्रामीण विकास के लिए अधिक बजट उपलब होना चाहिए। इन उपायों से व्यापक ग्रामीण संकट व किसानों के संकट को एक साथ कुछ ही वर्षो में कम किया जा सकता है। दुर्भाग्यवश इस तरह की समग्र सोच को प्राय: उपेक्षित किया जाता है। सरकारी प्रयास अपनी विभिन्न स्कीमों की संकीर्ण सोच से आगे बढ़कर समग्र सोच नहीं अपना सके हैं। इतना ही नहीं, प्राय: उनका प्रयास इन स्कीमों व कार्यक्रमों की उपलब्धियों का अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से प्रचार करने पर ही लगा रहता है जिससे कि सही तस्वीर भी सामने नहीं आती है।
जब हकीकत को छिपाया जाता है तो यह स्वयं वास्तविक प्रगति की राह में बाधा बन जाता है। गलतियों को स्वीकार ही नहीं किया जाता है तो उनसे सीखा कैसे जाए? दूसरी ओर अनेक संस्थाओं के प्रयास भी किसी तरह अपने प्रोजेक्ट पूरे करने पर सिमट गए हैं। हालांकि कुछ संस्थाएं वास्तव में बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं, पर प्राय: यह प्रोजेक्टों की परिधि के भीतर ही हैं व समग्र सोच से वे भी काम नहीं कर पा रहे हैं। वहीं, कुछ संस्थाएं मात्र सरकारों की पिछलग्गू बन कर रह गई हैं व कुछ कॉरपोरेट क्षेत्र की सोच में सिमट गई हैं। अतिश्योक्ति भरे दावों की कमजोरी यहां भी मौजूद है। इस माहौल में बहुत जरूरी है कि आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-पर्यावरणीय सोच को समग्रता से अपना कर कुछ सार्थक प्रयासों की सक्रियता व प्रसार हो। विषमता व आधिपत्य को कम करने के साथ पर्यावरण रक्षा व समाज सुधार को बढ़ाना बहुत जरूरी है, पर इन्हीं बुनियादी कार्यों की उपेक्षा हो रही है। छिटपुट छोटे प्रयास अपनी ईमानदारी के बावजूद कोई बड़ी छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं।
क्या हम कुछ ऐसे कुछ गांवों के उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं जहां विषमता तेजी से कम हो, शोषण समाप्त हो, पर्यावरण की रक्षा वाली आत्मनिर्भर व बहुत कम खर्च की खेती को अपनाया जाए, वृक्षों व चरागाह की हरियाली में वृद्धि हो, आपसी सहयोग तेजी से बढ़े व गुटबाजी समाप्त हो, मुकदमेबाजी व आपसी झगड़े समाप्त हों, शराब व सब प्रकार की नशाखोरी 95 प्रतिशत कम हों, छुआछूत पूरी तरह समाप्त हो, महिला जागृति में उभार आए, कर्ज बहुत कम हो व स्वयं सहायता समूह सशक्त हों, शादी-ब्याह जैसे खचरे व उपभोक्तावाद में भारी कमी हो। जब ऐसे कुछ प्रयास समग्रता से होंगे तो उनकी सफलता का संदेश तेजी से फैलेगा व ग्रामीण संकट असरदार ढंग से दूर होगा।
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