विश्लेषण : बैंक कर्ज में कमी चिंताजनक

Last Updated 23 Jan 2020 12:35:06 AM IST

नोटबंदी में 2016 के नवम्बर में जब 500 और 1000 रुपये के नोट बंद किए गए थे, उससे अचानक बड़ी भारी मात्रा में नकदी बैंकों की तिजोरियों में आ गई थी।


विश्लेषण : बैंक कर्ज में कमी चिंताजनक

लेकिन जनता को मजबूरी में ही सही, जो यह नकदी जमा करानी पड़ी थी, उस पर बैंकों को तो ब्याज देना पड़ रहा था। स्वाभाविक रूप से वे इस नकदी का इस्तेमाल इस तरह से करने की कोशिश कर रहे थे कि इससे उनकी कुछ कमाई हो जाए वरना यह नकदी बैंकों की तिजोरियों में ही पड़ी रहती तो उससे तो बैंकों की लार्भाकता में छेद ही हुआ होता। बहरहाल, यह बहुत ही ज्ञानवर्धक है कि बैंकों ने अचानक अपने हाथों में आ गई अतिरिक्त नकदी का इस्तेमाल किस तरह से किया।
भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने हाल में विचार पेश किया था कि बैंकों ने इस नकदी का इस्तेमाल, रीयल एस्टेट तथा अन्य क्षेत्रों को नॉन-बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनियों के जरिए ऋण देने के लिए इस्तेमाल किया था। इससे हमारी अर्थव्यवस्था में उछाल आया था। अब जब यह उछाल बैठ गया है, इससे अर्थव्यवस्था में वह गिरावट तो आई ही है, जो हम सब देख रहे हैं लेकिन इसके साथ डुबाऊ ऋणों की गंभीर समस्या भी आई है, जिसके शकिंगे में आज बैंकिंग क्षेत्र खास तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हैं। बहरहाल, इस विचार की पुष्टि करने वाले शायद ही कोई साक्ष्य नजर आते हैं।

बैंकों में बड़े पैमाने पर जमा हुई नकदी का सहारा लेकर वाकई बैंकों द्वारा दिए गए ऋणों को बढ़ाया गया होता, भले ही ये ऋण नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनियों के जरिए दिए गए होते तथा रीयल एस्टेट जैसे क्षेत्रों को ही दिए गए होते, तब भी अगर यह सब एक ठीकठाक लंबे अरसे में उल्लेखनीय परिघटना के रूप में हो रहा होता, उससे जनता के मुद्रा-जमा अनुपात में ऐसी गिरावट तो होती ही होती यह गिरावट भी झट से काफूर हो जाने वाली नहीं होती। इसलिए बंदीशुदा नोटों के बड़ी तादाद में जमा होने के चलते, अपने ऋण वितरण में बढ़ोतरी करने के जरिए आर्थिक उछाल लाने की स्थिति बैंक सिर्फ उसी सूरत में पैदा कर सकते थे, जब जनता बंद हुए नोटों को नये नोटों से बदलने के बजाए टिकाऊ आधार पर इस तरह जमा कराया अपना पैसा बैंकों में जमा रखती यानी मुद्रा के रूप में अपना धन रखने के बजाए उसे बैंक जमा-राशियों के रूप में रखने के लिए टिकाऊ तरीके से तैयार होते। दूसरे शब्दों में बैंकों के हाथों में ज्यादा नकदी आने से अर्थव्यवस्था में उछाल तो उसी सूरत में आ सकता था, जब जनता के मुद्रा-जमा अनुपात में टिकाऊ तौर पर बढ़ोतरी हुई होती। लेकिन ऐसी कोई टिकाऊ बढ़ोतरी तो हुई ही नहीं। लोगों ने बंद किए गए नोटों का 99 फीसद, बैंकों में जमा कराने के जरिए, सरकार की इस पूर्व-धारणा को तो पूरी तरह से झुठलाया ही कि नोटबंदी से ‘काला धन’ नष्ट हो जाएगा, इसके साथ ही उन्होंने अपना धन नये नोटों के रूप में रखना ही ज्यादा पसंद किया न कि बैंक जमाओं के रूप में। अर्थव्यवस्था का जैसे-जैसे पुनमरुद्राकरण हुआ, वैसे-वैसे लोगों के हाथों में मुद्रा बढ़ती गई। वास्तव में, नोटबंदी के एक साल के अंदर-अंदर जनता का मुद्रा-जमा अनुपात बढ़कर कमोबेश नोटबंदी से पहले की ऊंचाई तक पहुंच चुका था। इसलिए नोटबंदी के बाद के घटनाक्रम का उक्त आख्यान निराधार ही नजर आता है कि नोटबंदी के चलते, एनबीएफसी के जरिए ही सही, रीयल एस्टेट जैसे क्षेत्रों के लिए बैंक ऋणों का परिमाण बढ़ गया था और इसके चलते इन क्षेत्रों में उछाल आया था।
सचाई यह है कि उस दौर में, जब बैंकों के पास नकदी के पहाड़ लगे हुए थे, उन्होंने अपनी इस नकदी को या तो ‘रिवर्स रेपो ऑपरेशन’ के जरिए रिजर्व बैंक के पास जमा करा दिया था या फिर इसके लिए खास तौर पर गढ़े गए सरकारी बांडों को खरीदने में इस नकदी का निवेश किया था। इस तरह से बैंकों को इस नकदी पर ब्याज तो मिल रहा था, लेकिन इस तरह हासिल हुई नकदी का सरकार खर्च के लिए इस्तेमाल कर ही नहीं रही थी क्योंकि उसके ऐसा करने से राजकोषीय घाटा उस सीमा से ऊपर निकल गया होता, जिसका पालन किए जाने की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी सरकार से मांग करती है। सचाई यह है कि बैंकों में आई उस अतिरिक्त नकदी ने ऋण वितरण में शायद ही किसी बढ़ोतरी को उत्प्रेरित किया था।
वास्तव में, नोटबंदी के वषर्, 2016 के मार्च से 2017 के मार्च के बीच, अधिसूचित वाणिज्यिक बैंकों द्वारा दिए गए गैर-खाद्य ऋण की वृद्धि, एक साल पहले की इसी अवधि के मुकाबले वास्तव में धीमी ही पड़ी थी और पिछले साल के 9.1 फीसद के स्तर से घटकर 8.4 फीसद ही रह गई थी। कृषि तथा संबद्ध गतिविधियों के लिए ऋण वृद्धि की दर 15.3 से घटकर 12.4 फीसद पर आ गई और उद्योग के लिए 2.7 फीसद से घटकर, ऋण में 1.9 फीसद हो गई। यहां तक कि समग्रता में ‘प्राथमिकता वाले क्षेत्र’ में ऋण वृद्धि की दर, 10.7 फीसद से घटकर 9.4 फीसद रह गई।  याद रहे कि नोटबंदी से किसानों के हाथों में नकदी की भारी तंगी पैदा हुई थी। किसानों के अपनी पैदा की हुई फसल की बिक्री के जरिए हासिल होने वाली नकदी से, नई फसल के लिए लागत सामग्री खरीदने का चक्र टूट गया था। इसके चलते उन्हें अगली फसल के लिए लागत सामग्री खरीदने के लिए निजी महाजनों से अनाप-शनाप दरों पर ऋण लेने पड़े थे और इसने उनके सिर पर कर्ज का बोझ बढ़ाया था और उनकी बदहाली में और इजाफा कर दिया था।
यह नोटबंदी के बड़े स्थायी घावों में से एक है और इसी के चलते अर्थव्यवस्था को इसने स्थायी क्षति पहुंचाई है, और इसे सिर्फ एक तात्कालिक असुविधा की तरह नहीं देखा जा सकता है, जो पुनमरुद्राकरण होने के साथ ही गायब हो गई हो। फिर भी हम देखते हैं कि इस दौर में ठीक उस समय जब किसानों को कजरे की भारी जरूरत थी और उन्हें कर्ज लेने के लिए निजी महाजनों के द्वार खटखटाने पड़ रहे थे, अभूतपूर्व पैमाने पर अपने पास नकदी के अंबार लगे होने के बावजूद बैंक, उन्हें ऋण देने के लिए तैयार ही नहीं थे। यहां तक कि कृषि के लिए दिए जाने वाले ऋणों की वृद्धि की दर बढ़ने के बजाए पहले से धीमी ही पड़ गई। अगर सरकार का किसानी-खेती की तरफ ज्यादा ध्यान होता तो वह एक तीर से दो शिकार कर सकती थी। एक तरफ तो नकदी की तंगी के मारे किसानों की मदद कर सकती थी और दूसरी ओर, विशेष बांड जारी करने जैसे असाधारण कदमों का सहारा लिए बिना ही, बैंकों की लाभकरता को बहाल कर सकती थी। लेकिन उसे इसका तो ख्याल तक नहीं आया। यह भी नवउदारवादी राज में सरकार की प्रकृति को ही दिखाता है।

प्रभात पटनायक


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