सामयिक : ताइवान को मान्यता मिले

Last Updated 22 Jan 2020 03:01:00 AM IST

ताइवान के राष्ट्रपति चुनाव में श्रीमती साई इंग वेन को दूसरी बार मिली भारी जीत ने किस तरह चीन को परेशान किया है, इसके प्रमाण लगातार सामने आ रहे हैं।


सामयिक : ताइवान को मान्यता मिले

चीन ने उन सारे देशों की कटु आलोचना की जिनने साइ को जीत की बधाई दी थी। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो के साथ ही ब्रिटेन और जापान के शीर्ष राजनयिकों ने बयान जारी कर साई को बधाई दी।
चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने कहा, ‘चीनी पक्ष इस पर कड़ी नाराजगी जाहिर करता है और इसका विरोध करने का संकल्प लेता है। हम ताइवान एवं ऐसे देशों के बीच किसी भी तरह के आधिकारिक संवाद का विरोध करते हैं, जिनका चीन के साथ कूटनीतिक संबंध हैं।’ चीन के सरकारी मीडिया ने साई की जीत पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया। सरकारी सवाद समिति शिन्हुआ ने कहा कि साई और उनकी डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) ने वोट हासिल करने के लिए ठगी, दमन और धमकी का सहारा लिया। शिन्हुआ ने साई पर वोट खरीदने का आरोप लगाया। कहा कि चुनाव परिणामों के लिए बाहरी ताकत जिम्मेदार हैं। चीन की बिलबिलाहट स्वाभाविक है क्योंकि साई ने चीन की चाहत के विपरीत अकेले 57 प्रतिशत यानी 84 लाख मत पाए। स्वयं को चीनी अधिनायकवाद के विरु द्ध लोकतांत्रिक मूल्यों तथा ताइवान की आजादी को हर हाल में बनाए रखने वाले नेता के रूप में प्रस्तुत किया था।

स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति साई को कहना पड़ा है कि चीन ने उनके देश पर हमला किया तो पेइचिंग उसकी बड़ी कीमत चुकाएगा। साई का मुकाबला कुओमिनतांग पार्टी के खान ग्वो यी से था जिन्होंने चीन के साथ तनाव कम करने का वादा किया था जबकि साई ने चीन के साथ नरमी से इनकार। उनका कहना है कि चीन ताइवान पर काबिज होने के विचार को रद्द करने के बाद संबंधों के लिए आगे आए। हांगकांग में चीन विरोधी आंदोलनों ने लोगों के मनोविज्ञान पर व्यापक असर डाला। चीन ने ताइवान के सामने हांगकांग की तरह का राजनीतिक फॉर्मूला पेश किया था, जिस पर साई ने कहा कि एक देश दो व्यवस्था हॉन्गकॉन्ग में पूरी तरह नाकाम हो गई है। उन्होंने पिछले साल जून में हॉन्गकॉन्ग विरोध प्रदशर्नों के दौरान कहा था कि जो भी ताइवान की संप्रभुता और लोकतंत्र को कमज़ोर करने या राजनीतिक सौदेबाजी के लिए इस्तेमाल करेगा, वो असफल हो जाएगा। यह भी कहा कि उम्मीद है कि बीजिंग प्रशासन समझेगा कि ताइवान और यहां की चुनी हुई सरकार धमकी के दबाव में नहीं आएगी। चुनाव में मुख्य नारा चीनी साम्राज्यवाद के खतरे से लोकतांत्रिक ताइवान को बचाना बन गया था। साई इसकी प्रतीक थीं। ताइवान के साथ अतीत का विडंबनापूर्ण अध्याय जुड़ा है। मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश होने के बावजूद उसके अंदर असुरक्षा बोध हमेशा रहा है। चीन की लगातार धमकियों के कारण। चीन कहता है कि ताइवान को हर हाल में अपना भाग बनाना है। भले सैन्य कार्रवाई क्यों न करना पड़े।
ताइवान को चीन में मिलाने के मंसूबों पर इंग-वेन ने तीखे हमले बोले हैं। यह ताइवान का सबसे बड़ा राष्ट्रीय विमर्श बन गया जिसका लाभ साई को मिला है। साई के नेतृत्व में ही ताइवान की संसद ने एक जनवरी को चीन के खतरे को देखते हुए एंटी-इन्फिल्ट्रेशन लॉ पास किया था। इस कानून के खिलाफ चीन ने हमला बोला और दोनों देशों के तनाव चरम पर पहुंच गए। चीन कहता है कि साई की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी ताइवान को औपचारिक रूप से स्वतंत्र देश बनाने को लेकर काम कर रही है, जिसे स्वीकार नहीं किया जाएगा। 1949 की क्रांति में चीन ने कुओमिनतांग को उखाड़ फेंका और कम्यनिस्ट राज कायम किया। च्यांग काई शेक ताइवान भाग गए और वहां उनका लंबा शासन रहा। चीन का आधिकारिक नाम है पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और जिसे ताइवान के नाम से जानते हैं,  उसका आधिकारिक नाम है रिपब्लिक ऑफ चाइना। दोनों स्वयं को असली चीन मानते हैं। एक दूसरे की संप्रभुता को मान्यता नहीं देते। चीन वैसे किसी देश के साथ राजनयिक संबंध नहीं रखता जो ताइवान को मान्यता दे दे। इसी दबाव में दुनिया के देशों ने ताइवान के साथ आर्थिक एवं सांस्कृतिक संबंध रखे हैं, लेकिन उसे राजनयिक मान्यता देने से परहेज किया है। लेकिन ताइवान अलग-थलग पड़ा देश नहीं है। अनेक देशों ने उससे रक्षा संबंध भी विकसित किए हैं। 1980 के दशक से यह प्रगतिशील लोकतंत्र के रूप में आगे बढ़ा है। चीन के दबाव के कारण ताइवान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनयिक रूप से सक्रिय देश नहीं बन सका लेकिन वहां के लोगों ने राष्ट्रीयता की भावना, संकल्प शक्ति तथा परिश्रम की बदौलत अपने देश को प्रमुख आर्थिक और करोबारी के साथ वैज्ञानिक शक्ति में बदल दिया है। 
तो साई अपनी सीमित ताकत में चीन का साहस से सामना कर रहीं हैं। दुनिया का भी कुछ दायित्व है। एक समय ताइवान ही संयुक्त राष्ट्र में चीन नाम से प्रतिनिधित्व करता था। इसका अंत कर दिया गया। अब चीन सैन्य कार्रवाई की धमकी दे रहा है। ताइवान के पास 290,000 सैन्यकर्मी हैं। 1,30,000 थल सेना में, 45, 000 नौसेना व मरीन कोर में तथा 80,000 वायु सैनिक हैं। चीन के सामने यह कहीं नहीं टिकता। इसलिए दुनिया को ताइवान के प्रति ही नहीं बल्कि एक चीन नीति, जिसमें तिब्बत भी शामिल है, निर्धारित करनी चाहिए। फरवरी, 2017 में भारत ने ताइवान के एक प्रतिनिधिमंडल को आमंत्रित किया था जिसमें वहां के कुछ सांसद भी शामिल थे।
चीन ने इस पर काफी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और उसके सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने तो गंभीर परिणाम तक की चेतावनी दे दी। भारत ने चीन की कम्युनिस्ट सरकार को 1950 में मान्यता दिया एवं ताइवान के साथ संबंध नहीं रहे। लेकिन 1995 में नरसिंह राव सरकार ने साहस दिखाते हुए इंडिया ताइपाई एसोसिएशन का गठन कर अनौपचारिक संबंध की शुरुआत की। दोहरे कराधान को समाप्त करने सहित कई समझौते हुए हैं। ताइवान की कई कंपनियां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया योजना में निवेश कर रहीं हैं। विज्ञान, तकनीक और संस्कृति के क्षेत्र में हम सहयोग कर रहे हैं। साई ने जनवरी, 2016 में अपनी पहली विजय के समय कहा था कि भारत के साथ संबंध प्राथमिकता है। भारत ने व्यवहार में लगभग अनुकूल प्रत्युत्तर दिया। पर यह पर्याप्त नहीं है। ताइवान को अलग देश के रूप में मान्यता देने की दिशा में प्रमुख देशों को आगे बढ़ना चाहिए और इसकी शुरुआत संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता देने से हो सकती है।

अवधेश कुमार


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