बिहार : यात्राओं पर टिकी राजनीति
बिहार विधानसभा चुनाव इसी वर्ष नवम्बर में होना है और नीतीश कुमार द्वारा घोषित पर्यावरण संरक्षण के लिए ‘जल ज़मीन हरियाली अभियान’ से जुड़ी यात्रा आजकल चर्चा में।
बिहार : यात्राओं पर टिकी राजनीति |
नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव का आरोप है कि चुनावी वर्ष में 24,500 करोड़ रुपये की योजना की जागरूकता अभियान की आड़ में आगामी विधानसभा चुनाव का प्रचार है। इस अभियान यात्रा से नीतीश कुमार अपने स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, यह सत्ता-स्वार्थ से प्रेरित एक राजनैतिक कार्यक्रम है जिसमें सरकारी तंत्र और साधन का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह व्यवस्थित भ्रष्टाचार का नया रूप है।
वैसे तो विपक्षी दल के नेतागण राजनीतिक यात्रा के माध्यम से जनता के बीच जाकर सरकार की विफलताओं को उजागर कर उन्हें जागरूक करते हैं। यह सत्ता परिवर्तन के कई बार महत्त्वपूर्ण कारक बन जाते हैं। जन जागरूकता फैलाने में राजनीतिक यात्राएं एक कारगर और प्रभावी राजनीतिक अस्त्र साबित हुई हैं। लेकिन ऐसी अभियान यात्राओं के आयोजन से जुड़े खर्च को लेकर एक नैतिक सवाल काफी अहमियत रखता है। अगर इसका आयोजन खर्च कोई राजनीतिक दल खुद वहन करता है तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यह जायज़ है अन्यथा यह सरकारी सुविधाओं का दुरु पयोग माना जायेगा। मुख्यमंत्री जब ऐसी अभियान यात्राओं के आयोजन में पूरे सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करें और इससे जुड़े खर्च का भार भी राजकीय कोष पर डालें तो उन पर सवाल उठाना लाज़मी है। नीतीश कुमार ने न्याय यात्रा से अपना पहला राजनीतिक अभियान शुरू किया था, जिसमें उन्होंने फ़रवरी 2005 के त्रिशंकु विधान सभा भंग को अन्याय बताया था।
लेकिन बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जो दर्जनों राजनीतिक यात्राएं कीं, वह सार्वजनिक पद का दुरु पयोग थीं। जैसे विकास यात्रा 2009, धन्यवाद यात्रा 2009, विश्वास यात्रा 2010, सेवा यात्रा 2011, अधिकार यात्रा 2012, संकल्प यात्रा 2014, संपर्क यात्रा 2014, निश्चय यात्रा 2016, विकास कार्यों का समीक्षा यात्रा 2017 और फिलहाल जारी जल जमीन हरियाली यात्रा है। एक आकलन के अनुसार न्याय यात्रा और विकास यात्रा से उन्हें राजनीतिक फायदे हुए, लेकिन संकल्प यात्रा, संपर्क यात्रा और अधिकार यात्रा पूर्ण रूप से फ्लॉप रही। विकास समीक्षा यात्रा 2017 के दौरान तो नीतीश कुमार को बक्सर के नन्दन गांव के ग्रामीणों के ईट और पत्थरों से विरोध तक झेलना पड़ा था। खैर यात्राओं से फायदे, घाटे या उसके विरोध से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि यह कितनी जनहितकारी रही। विपक्षी दलों के नेताओं से लेकर सहयोगी दल के नेता भी राज्य के सुशासन और विकास में इन सरकारी यात्राओं की उपयोगिता पर कई दफा सवाल उठाए हैं। सुशील मोदी ने भी नीतीश की निश्चय यात्रा को चेहरे चमकाने की कसरत कहकर खिल्ली उड़ाई थी। आखिर इन यात्राओं से शिक्षा और रोज़गार, निवेश और व्यापार, स्वास्थ्य और अस्पताल तथा किसानी और कृषि विकास में क्या फायदे हुए? क्या वित्तीय घोटाले, अपराध, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे और महिला सुरक्षा के साथ-साथ विधि व्यवस्था चुस्त हुई? ये सारी आशंकाएं वाज़िब लगती हैं। डिजिटल उपकरणों से लैस सरकारी विभागों में योजनाओं की समीक्षा के लिए जिला मुख्यालय स्तर पर मुख्यमंत्री का यात्रा गैर-जरूरी प्रतीत होती है। नीतियों और योजनाओं को लागू करने में सरकारी तंत्र स्वयं ही बहुत हद तक सक्षम है। मुख्यमंत्री और विभागीय मंत्रियों की कुशलता काफी है।
सुशासन के विभिन्न बिंदुओं पर असफलता उनके नेतृत्व क्षमता और कार्यकुशलता पर बहुत बड़ा सवाल खड़ी करती है। एनडीए काल में दर्जनों घोटाले और अमानवीय कांड चर्चित रहे। उनमें सबसे संगठित वित्तीय अपराध के तौर पर सृजन घोटाला तो मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में असहाय बालिकाओं का यौन शोषण और बलात्कार कांड शर्मसार करने वाली मुख्य खबर बनी। चमकी बुखार से नवजात शिशुओं पर कहर से अस्पताल और स्वास्थ्य विभाग के दावे खोखले साबित हुए। शिक्षण-परीक्षण प्रणाली में व्याप्त कदाचार तथा सत्र विलंब से ग्रसित विश्वविद्यालय ने तो शिक्षा प्रणाली को मरणासन्न अवस्था में धकेल दिया है। बाढ़ पीड़ित इलाके आज भी उतने ही बदहाल हैं। नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में बिहार के प्रदर्शन को बेहद खराब बताया गया है। इस परिस्थिति में यात्राओं का जन-आकलन तो बनता है। क्या यह वाकई में सुशासन, चेहरे, छवि और शुचिता का महज़ प्रचार प्रबंधन है?
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