बतंगड़ बेतुक : यह युग था नकाब के पीछे
झल्लन हमें देखते ही बोला, ‘काहे ददाजू, कुछ पता किये नकाब के पीछे कौन था?’ हमने प्रति-प्रश्न किया, ‘किस नकाब के पीछे कौन था, क्या कह रहा है, तू किस नकाब की बात कर रहा है?’
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झल्लन बोला,‘क्या ददाजू, कभी-कभी हमें लगता है कि आप संन्यासी हो गये हो या किसी और दुनिया के वासी हो गये हो। हम उसी नकाब की बात कर रहे हैं जिसका देश-दुनिया में हल्ला चल रहा है पर नकाब के पीछे कौन था, इसका पता नहीं चल रहा है।’ हमने प्रश्नवाचक दृष्टि झल्लन पर डाली तो वह बोला,‘ददाजू, पूरब से पश्चिम तक नकाब की हवा बह रही है, टीवी बहसों में नकाब पर ही चर्चा हो रही है, नेताओं में नकाब को लेकर ही तलवार खिंच रही है और जिसे उठाने के चक्कर में दिल्ली पुलिस की जान निकल रही है। और इधर आप हैं..हम सोचे थे कि आप हमें कुछ ठोस बताएंगे और काले नकाब से पर्दा उठाएंगे?’ तो झल्लन उस नकाब की बात कर रहा था जो जेएनयू में घुस आया था और जिसने विद्या-बहस के इस मंदिर में जमकर उत्पात मचाया था। हमने कहा, ‘तूने क्या हमें जेम्स बांड समझ लिया है कि जो भी नकाब सामने आएगा उसे तुरंत उठा देंगे, उसके पीछे कौन है तुझे झट से बता देंगे?’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, आप बता पायें न बता पायें पर हमें लगता है इस मुल्क में नकाब दिनोंदिन मजबूत हो रहा है, किस नकाब के पीछे कौन छिपा है पता करना मुश्किल हो रहा है।’ हमने कहा,‘नकाब तो पहना ही इसलिए जाता है कि जो भीतर है, वह बाहर न दिख पाये, कोई उसे पहचान न पाये और कोई आरोप आये तो सिर्फ नकाब पर आये।’ झल्लन दार्शनिक अंदाज में बोला,‘ददाजू, हमें लगता है कि लोग अपने चेहरे पर नहीं अपने भीतर भी नकाब दबाए रहते हैं, नकाब में अपने इरादे छिपाए रहते हैं और चेहरे पर मुस्कान बनाए रहते हैं।’ हमने कहा,‘लोग तो अपने चेहरे को ही नकाब बनाए रखते हैं, मजाल है जो भीतर है वो बाहर आ जाये और किसी को उनका असली चेहरा दिख जाये।’ झल्लन बोला,‘सच कह रहे हैं ददाजू, हम तो लोगों को देखकर ही कनफुजिया जाते हैं, हमें कभी कोई चेहरा नकाब नजर आता है और कभी कोई नकाब चेहरा नजर आता है। समझ में नहीं आता कि यह चेहरा है या सरापा नकाब है।’
हमने कहा,‘दरअसल झल्लन, यह नकाबी युग है, यहां लोग नेकर बिना रह लेते हैं पर अपने खोल से निकलते हैं तो नकाब जरूर पहन लेते हैं।’ झल्लन बोला,‘ददाजू, ये काम तो हमारे नेता लोग करते हैं, आप नेताओं के काम का इल्जाम बाकी लोगों पर क्यों धरते हैं।’ हमने कहा,‘अच्छी बात है झल्लन, तू इतना तो जानता है, आखिर राजनीति और नकाब के रिश्ते को पहचानता है। बिना नकाब के राजनीति चल नहीं सकती, नेताओं की दाल गल नहीं सकती। जब ये कुछ बोलते हैं तो ये नहीं इनके नकाब बोलते हैं, ये बिना नकाब के कभी अपना मुंह नहीं खोलते हैं। इनकी भाषा, बोली, भाषण, वक्तव्य सब पर नकाब चढ़ा होता है, चेहरे पर नकाब नहीं नकाब पर चेहरा जड़ा होता है। यह कभी वह नहीं कहते जो इनके भीतर होता है, बाहर जो आता है वह सिर्फ नकाब होता है। ये जनता तक अपने असली इरादे नहीं अपने नकाब पहुंचाते हैं और मूर्ख जनता को अपने इसी नकाब में फंसाते हैं। जनता नकाब को चेहरा समझ लेती है और नेता के पीछे लग लेती है।’
झल्लन बोला, ‘लगता है ददाजू, जनता को भी नकाब ही भाते हैं, जो नकाब नहीं लगाते वे उसे रास नहीं आते हैं।’ हमने कहा, ‘ठीक कहता है झल्लन, नकाब हमारे भीतर बहुत गहरे तक धंस गये हैं और हम इंसान नहीं सिर्फ नकाब रह गये हैं।’ झल्लन गंभीर स्वर में बोला, ‘जब हम सब नकाब बन गये हैं तो नकाबों पर क्यों इतना हो-हल्ला मचाते हैं, अपने-अपने नकाब ओढ़कर आराम से सो क्यों नहीं जाते हैं।’ हमने कहा, ‘नकाबी संस्कृति की यही तो खूबी है जिसमें समूची राजनीति डूबी है। हम अपने-अपने नकाब तो भींचना चाहते हैं मगर दूसरों के नकाब खींचना चाहते हैं, हमारे नकाब हमारे चेहरे से चिपकते रहें मगर दूसरों के उतरते रहें। हम अपना असली चेहरा नहीं दूसरों का असली चेहरा सामने लाना चाहते हैं और दूसरों का गंदा चेहरा दिखाकर खुद को सुथरा दिखाना चाहते हैं। बस, यही राजनीति है जो नकाबों से चल रही है, आज चारों तरफ जो आग लगी है वो नकाबों के कारण ही जल रही है।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, अब थोड़ा जेएनयू पर भी तो आइए, जेएनयू का नकाब तो उठवाइए।’ हमने कहा, ‘किससे उठवाएं, कैसे उठाएं, कभी-कभी नकाब उठाने वाले इसलिए डर जाते हैं कि झटका न लग जाये और नकाब के पीछे उनका अपना चेहरा न निकल आये।’ झल्लन बोला,‘पर ददाजू, जेएनयू का नकाब उतरना जरूरी है।’ हमने कहा, ‘क्या फायदा, जेएनयू का नकाब उतर भी जाएगा तो तुरंत कहीं दूसरी जगह चिपक जाएगा और जो नकाब के पीछे होगा वो नकाब के पीछे होने से साफ मुकर जाएगा।’
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