मीडिया : नाराजगी और तमाशा

Last Updated 12 Jan 2020 04:10:34 AM IST

ये दिन फ्रांसीसी चिंतक गाइ दबो की 1970 में लिखी पुस्तक ‘द सोसाइटी ऑफ स्पेक्टेकिल’ को पढ़ने के दिन हैं।


मीडिया : नाराजगी और तमाशा

स्पेक्टेकिल का मतलब है ‘तमाशा’ या ‘लीला’। दबो का मानना है कि नये पूंजीवाद ने हमारे यथार्थ को छवि या फोटो में बदल दिया है। हम यथार्थ अनुभव के जरिए एक दूसरे से रिलेट नहीं करते, उसकी छवियों के जरिए रिलेट करते हैं। छवियों के जादू को तोड़कर हम यथार्थ में नहीं घुस पाते बल्कि छवियों से छवियों तक ही चक्कर लगाते हैं, फिर भी भ्रम पालते हैं कि हम यथार्थ को जानते हैं। साक्षात ऐंद्रिक अनुभवों की जगह हमारा जीवन छवियों या बाइटों के तमाशों से आक्रांत है। अगर दबो आज होते तो आज की साइबर तकनीक से ‘मार्फ्ड’ या ‘मीम्स’  या ‘फेकरी’ को देख अपनी स्पेक्टकिल की थीसिस को और भी पुष्ट होती पाते। कहने की जरूरत नहीं कि नित्य के तमाशे या लीला में बदल दिए गए हमारे जीवन को समझने के लिए दबो की यह किताब आज और भी पठनीय है।
जेएनयू के छात्र आंदोलन के उदाहरण से हम दबो के लीला सूत्रों को बेहतर समझ सकते हैं। एक रात बहुत से नकाबपोश जेएनयू में जमकर हिंसा करते हैं। इसका प्रतिकार करने के लिए छात्र कैम्पस में सभा करते हैं। इसी बीच, हीरोइन दीपिका पादुकोण उनके बीच दस मिनट का स्पेशल अपीयरेंस देती हैं। घायल छात्राध्यक्ष को हाथ जोड़कर उनके नमन करने और अपनी मुस्कान के साथ कुछ देर खड़े रहने ने छात्रों के आजादी के नारों को कुछ नरम सा कर दिया। बंद गले का काला लंबा कोट पहने वे अपनी लंबाई और चेहरे की चमक से अलग ही दिखती रहीं। उनने कुछ न बोलकर बहुत कुछ बोल दिया कि वे छात्रों के साथ हैं।

आहत छात्रों के बीच एक आइकन की छवि की मिक्सिंग ने आक्रोश के सीन को बदल दिया। दीपिका के ग्लैमर की चमक में ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ के लांछन को कमजोर किया। दीपिका सादा मेकअप में  रहीं जो छात्रों के सादेपन के साथ खप गया। एक फिल्मी ब्यूटी आइकन और एक रफ टफ आंदोलन एक दूसरे में मिक्स हुआ नजर आया। आंदोलित छात्रों ने दीपिका को जिस आसानी से अपने बीच स्वीकार किया उसे देख लगा कि दीपिका के ऐसे आने को उनकी स्वीकृति थी अन्यथा कोई नहीं घुस पाता। दीपिका का ग्लैमर पाकर छात्र अपने आंदोलन की बढ़ती स्वीकार्यता को देखकर खुश हुए होंगे। उधर, दीपिका तीन दिन बाद रिलीज होने वाली फिल्म ‘छपाक’ के लिए कैम्पस को लॉन्च पैड की तरह देखकर संतुष्ट हुई होंगी। इस तरह दो अलग-अगल उद्देश्य एक दूसरे के पूरक रहे। नारे लगाते छात्र कुछ देर को चुप हो गए, दीपिका फिल्म का लाइव प्रोमो करती रहीं। ग्लैमर ने विरोध के तीखेपन को कुछ देर के लिए नरम कर दिया। दीपिका यहां दीपिका की तरह ही आई। उस युवती की तरह नहीं आई जिसके ऊपर तेजाब डाल दिया गया था जिसकी भूमिका फिल्म में उन्होंने निभाई है।
मान लीजिए कि दीपिका अपने हीरोइन वाले ग्लैमरस चेहरे की जगह उस सर्वाइवर युवती के उस जले हुए और प्लास्टिक सर्जरी से बने चेहरे का मेकअप करके आतीं तो क्या वही ‘संदेश’ जाता जो दीपिका के चमकीले चेहरे को प्रसारित करके गया? अगर वे फिल्मी चरित्र के विद्रूपित मेकअप के साथ आतीं तो छात्रों को क्या मिलता? दीपिका के ग्लैमर ने उनको जिस तरह की एस्थेटिक जगर मगर दिलाई, क्या वह तब भी मिलती जब दीपिका, तेजाब हमले की शिकार उस रीयल सर्वाइवर की तरह अपना चेहरा विद्रूपित बनवाकर आतीं जैसा कि फिल्म में हैं? एकदम नहीं क्योंकि तब उस आहत सर्वाइवर की तस्वीर हमें आकृष्ट नहीं करती बल्कि शायद वितृष्णा ही पैदा करती; जैसा कि ऐसी कई सर्वाइवर कहती रही हैं कि हमें अगर सामने पड़ते हैं तो लोग मुंह फेर लेते हैं। हमारा चेहरा कोई नहीं देखना चाहता। इस तरह अगर दीपिका उस चरित्र के विद्रूपित चेहरे को पहनकर आतीं तो छात्रों को दीपिका के ग्लैमर की चमक न मिलती।
यही नहीं, अगर मान लीजिए कि वास्तविक सर्वाइवर स्वयं जेएनयू आ जातीं तो क्या छात्रों को वो कवरेज मिलता जो मिला? इसीलिए हमने कहा कि इन दिनों अंसतोष या आंदोलन भी एक स्पेक्टेकिल यानी एक तमाशे या लीला की तरह ही नजर आता है। छात्रों की नाराजी में दीपिका के ग्लैमर की मुस्कान मिक्स हो जाती है, तो नाराजी भी अपने मानी खोकर नरम हो जाती है।  छवियों की छलना का जादू हमारी नाराजियों तक को तमाशेबाजी में बदल देता है।

सुधीश पचौरी


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