मीडिया : नई भाषा की दरकार

Last Updated 15 Dec 2019 03:12:16 AM IST

इंडिया रेप कैपिटला! दिल्ली रेप कैपिटल! समस्या होगी लिमिटेड। लेकिन चैनल बना देंगे अनलिमिटेड। कैपिटल न हुई अतिरंजना की नुमाइश हो गई।




मीडिया : नई भाषा की दरकार

यह खबर की भाषा न होकर एनजीओ-एक्टिविस्टों की भाषा है। याद करें। कुछ पहले दिल्ली को ‘कार्बन कैपिटल’ कहा जा रहा  था। शहर में कुछ हत्याएं हो जाती हैं, तो खबर चैनल लाइनें लगाने लगते हैं: ‘दिल्ली र्मडर कैपिटल’! ऐसी ‘अतिरंजनापूर्ण’ लाइनें दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए दी जाती हैं। चैनलों की भाषा ‘हाइपर’ इसीलिए बनाई जाती है ताकि खबर खबर की तरह न जाकर किसी बड़े हल्ले की तरह जाए और उत्तेजित कर दे। भाषा का ऐसा हाइपर चलन निर्भया कांड के लाइव प्रसारणों के दौरान विकसित हुआ। विरोध प्रदर्शनों के प्रसारण ने ‘सूचना’ की ‘सामान्य भाषा’ को बेकार कर दिया। एक धक्कामार भाषा ईजाद हुई जो सबको उस रेप की भयावहता को बताती।

ऐसे अतिरंजनात्मक मुहावरे विज्ञापनों में सबसे पहले दिखे। ‘महाभारत’ सीरियल का एक प्रायोजक अपने ब्रांडेड मक्खन की मारकेटिंग करने के लिए कैचलाइन देता था कि ‘ये है स्वाद इंडिया का’! उसने सारे भारत को अपना मारकेट बना डाला। एक ब्रांडेड नमक के विज्ञापन में कैचलाइन आने लगी : ये है नमक इंडिया का! ऐसे ही कोई बनियान बेचने वाला कहता कि ‘भारत की बनियान’ तो कोई कच्छी बेचने वाला कहता कि ‘ये है भारत की कच्छी’। बनियान-कच्छियां ‘भारत’  को पहनाई जाती रहीं। विज्ञापन वाले भारत ‘बनियान-कच्छी’ की अलगनी बनाते रहे। ऐसे ही जब दिल्ली में डेंगू का  प्रकोप हुआ तो खबर चैनलों ने उसे ‘डेंगू कैपिटल’ बना दिया या कूड़ा न उठा तो ‘कूड़ा कैपिटल’ बना दिया। प्रदूषण का प्रकोप बढ़ा तो दिल्ली को ‘जहरीली हवा की कैपिटल’ कहने लगे।

इस तरह की अतिरंजनापूर्ण पदावली के चलन का कारण हमारे खबर चैनल हैं, जो एक दूसरे के कंपटीशन के बीच दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए ऐसी ‘भड़काऊ खेंचू’ लाइनें लगाकर दर्शक जुटाते हैं। अगर वे कहें कि ‘दिल्ली का आसमान साफ नहीं’ तो यह सामान्य भाषा किसी का ध्यान न खींच पाएगी लेकिन जैसे ही टीवी कहेगा कि ‘दिल्ली की हवा में जहर’ है, तो लोगों की ‘सांसें’ थम जाएंगी। टीवी आजकल खबर की जगह देकर ‘शॉक’ देकर हमें अधिकाधिक ‘संवेदनशून्य’ बनाता है। अगर खबर चैनल बताएं कि आज दिल्ली में ‘अलग-अलग जगहों पर तीन रेप हुए’ तो ये खबरें उसी तरह की बनेंगी जैसी कि अखबार के किनारे के कॉलम में छपती हैं। लेकिन जैसे ही कहेंगे कि ‘दिल्ली रेप कैपिटल’ या ‘इंडिया रेप कैपिटल’ है, तो ऐसी अतिरंजना कुछ देर के लिए ध्यान अवश्य खीचेगी, भले कुछ देर बाद हम इसके आदी हो जाएं। दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए खबर चैनलों ने अपनी भाषा ‘विज्ञापनी भाषा’ बना डाला है। इसीलिए कोई-कोई तो ‘नेशन वांट्स टू नो’ या ‘इंडिया वांट्स टू नो’ कहकर अपने को ‘नेशन’ ही बना डालता है। चुनाव आते हैं, तो लिखा आता है ‘इंडिया डिसाइड्स’। ‘आम चुनाव’ या ‘संसदीय चुनाव’ कहने की जगह ‘इंडिया डिसाइड्स’ कहना आलंकारिक लगता है।

इस तरह के अतिरंजनापूर्ण मुहावरों को कई बार राजनीति में भी इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि कोई अपने को  ‘युवक हृदय सम्राट’ कहलवाता है, तो कोई अपने को ‘भारत की आशा’ कहलवाता है, या कोई अपने को ‘भारत का गौरव’ (चाहे वह भारत का गोबर भी होने लायक न हो) कहलवाता है, तो कोई ‘भारत की शान’ कहलवाता है। ऐसे ही मुहावरे क्रिकेट के लिए भी इस्तेमाल किए जाते रहे हैं। एक दिन भारत की क्रिकेट की टीम ‘टीम इंडिया’ कही  जाने लगी। इसी तरह कई फिल्मी गानों में ‘ये मेरा इंडिया’ ‘ये मेरा इंडिया’ होने लगा। एक दिन पहले जब राहुल गांधी ने कहा ‘इंडिया इज रेप कैपिटल’ तो वे उसी विज्ञापनी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे, जिसे कभी गुजरात के सीएम मोदी ने किया था।

इसीलिए राहुल के ‘रेप कैपिटल’ कहने पर जब भाजपा के नेता उनसे ‘इंडिया’ से माफी मांगने पर जोर देने लगे तो राहुल ने मोदी के 2013 के एक भाषण की क्लिप को ट्विटर पर लगा दिया जिसमें मोदी दिल्ली को ‘रेप कैपिटल’ कहते नजर आते हैं। यह भी खबर चैनलों ने दिखाई और विवाद ठंडा पड़ गया। लेकिन समस्या सिर्फ इतने से नहीं निपटती कि ‘अगर इनने कहा तो उनने भी तो कहा’। असल समस्या खबर की भाषा को ‘विज्ञापनी भाषा’ बना देने की है। इसके जरिए चैनल खबरों को ‘अनलिमिटेड’ बना देते हैं। खबर की अतिरंजनात्मकता हमें अधिकाधिक ‘संवेदनहीन’ बनाती जाती है। जरूरत है खबरों की नई ‘रचनात्मक-भाषा’ की!

सुधीश पचौरी


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