जम्मू-कश्मीर : यह कैसा एकीकरण!

Last Updated 08 Nov 2019 05:49:48 AM IST

मोदी सरकार ने बहत्तर साल के इतिहास को पलट दिया। सरदार पटेल के 144वें जन्म दिन पर उस जम्मू-कश्मीर के टुकड़े कर दिए।


जम्मू-कश्मीर : यह कैसा एकीकरण!

उसका राज्य का दरजा छीन लिया जिसे भारतीय संघ के अन्य राज्यों से भी ज्यादा स्वायत्तता देने के पवित्र वादे के साथ भारतीय संघ में शामिल करते समय दिया गया था। अक्टूबर की आखिरी तारीख को लद्दाख तथा जम्मू-कश्मीर के नये उपराज्यपाल के पद पर क्रमश: आर के माथुर तथा गिरीश चंद्र मुर्मू को जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल द्वारा शपथ दिलाए जाने के साथ ही भारतीय संघ ने औपचारिक रूप से जम्मू-कश्मीर से किए गए उक्त पवित्र वादे से मुकरने का ऐलान कर दिया।
अचरज नहीं कि खुद जम्मू-कश्मीर में जिस तरह से इसका औपचारिक ऐलान हुआ है, उसने बहत्तर साल पहले हुए देश के विभाजन की याद दिला दी।ेकिन वाकई इसे इतिहास निर्माण कहा जा सकता है, तो यह इतिहास निर्माण एक माने में बहत्तर साल पहले अंगरेजी राज के हाथों कराए हुए इतिहास निर्माण से भी ज्यादा निरंकुश तरीके से हुआ। बेशक, 1947 के विभाजन में जनता खास तौर पर विभाजन से सीधे-सीधे प्रभावित होने वाले राज्यों की जनता की शायद ही कोई राय शामिल थी। लेकिन बहत्तर साल बाद अब हो रहे इतिहास निर्माण में जम्मू-कश्मीर की जनता की राय से ‘मुक्ति’ को मुकम्मल ही बना दिया गया। सारे फैसले दिल्ली ने ही किए। इनमें सबसे बढ़कर यह फैसला शामिल है कि विभाजन के बाद बने दो केंद्रशासित प्रदेशों में तमाम महत्त्वपूर्ण फैसले अब केंद्र सरकार ही लेगी। अचरज नहीं कि दिल्ली के ही निर्देश पर जहां शेष सारे देश में इस ‘इतिहास निर्माण’ का उत्सव सुरक्षा बलों पर केंद्रित बहुत ही तड़क-भड़क भरे आयोजनों के साथ ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाया गया, वहीं खुद लद्दाख तथा जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपालों का शपथ ग्रहण तक बिना जरा भी शोर-शराबे के निपटाया गया। लोगों के भड़कने का डर जो था।

कश्मीर की घाटी ने तो खैर मुकम्मल लॉकडॉउन तथा बंद के जरिए इस ‘इतिहास निर्माण’ का एक तरह से बॉयकाट किया ही जिसे अनेक जानकारों ने एक प्रकार के जन नागरिक अवज्ञा आंदोलन का नाम देना शुरू कर दिया है। इसके अलावा, लद्दाख में इसे लेकर लोगों के मन में आशंकाएं ही ज्यादा थीं, उम्मीदें कम। वास्तव में मुस्लिम बहुल करगिल ने तो इसके खिलाफ जोरदार तरीके से विरोध भी दर्ज कराया। सच तो यह है कि इस कथित ‘इतिहास-निर्माण’ ने एक काम जरूर किया है कि उसने हिंदू बहुल जम्मू को मुस्लिम बहुल कश्मीर के खिलाफ और बौद्ध बहुल लेह-लद्दाख को मुस्लिम बहुल करगिल के खिलाफ ऐसे खड़ा कर दिया है जैसा आतंकवादियों की सारी कोशिशों के बावजूद इससे पहले कभी नहीं हुआ था। इस बंटवारे की गहराई को समझने के लिए सिर्फ  एक उदाहरण काफी होगा। श्रीनगर में नवनियुक्त उपराज्यपाल के शपथ ग्रहण समारोह में जम्मू के चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष राकेश गुप्ता तो शरीक हुए लेकिन उनके कश्मीर के समकक्ष शेख आशिक को आमंत्रित ही नहीं किया गया। शेख आशिक का कहना था : ‘एक कश्मीरी के नाते और केसीसीआई के अध्यक्ष के नाते मैं सिर्फ  एक बात कहना चाहता हूं कि उनका कहना है कि आज इतिहास रचा जा रहा है..लेकिन यहां जमीनी सतह पर पूरी तरह से शटडॉउन है। दूकानें बंद हैं। सड़कों पर कोई आवाजाही नहीं है। उनके फैसले पर हर कश्मीरी की यही प्रतिक्रिया है..मुझे लगता है कि सभी मायूस हैं।’
याद रहे कि जिस रोज ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के नाम से शेष देश भर में सरकारी तौर पर सरदार पटेल का जन्म दिन मनाया जा रहा था, वह कश्मीर में करीब-करीब मुकम्मल लॉकडॉउन का 88वां दिन था। बेशक, इस लॉकडाउन में इन तीन महीनों में पहले लैंडलाइन फोन व आगे चलकर काफी हद तक पोस्टपेड सैल फोन सेवाएं बहाल करने जैसी मामूली ढील भी दी गई। इसी प्रकार, घाटी के सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं को कैद या नजरबंदी में रखते हुए भी माफीनामे लिखवाने के साथ मध्यम स्तर के कुछ कार्यकर्ताओं की रिहाई भी शुरू की गई है। इसके बावजूद सरकार के ‘सब कुछ सामान्य है’ के दावों के विपरीत घाटी में कुछ भी सामान्य नहीं हुआ है। उल्टे, कश्मीरियों ने जैसे खुद ही अपने आप को दरवाजों के पीछे बंद कर लिया है। यहां तक कि सरकार के स्कूल खुलवाने के सारे दबाव और परीक्षाएं कराने जैसी तिकड़मों के बावजूद स्कूलों में बच्चे नहीं पहुंच रहे हैं। इसी प्रकार एक प्रकार के अघोषित नागरिक कर्फ्यू के तहत बाजार कमोबेश बंद हैं। सड़कों पर इक्का-दुक्का ही लोग निकलते हैं। पर्यटकों के लिए कश्मीर के खोले जाने के बावजूद पर्यटन पूरी तरह से ठप है। ऐसा ही किस्सा सेब की फसल की मंडी में आवक का है। जिंदा रहने की जरूरतों की अपरिहार्यताओं के चलते इस लॉकडाउन में अगर इस लंबे अर्से में थोड़ी ढील आई भी थी, जैसे जरूरत की चीजों की दूकानों का सुबह एकाध घंटे के लिए खुलना भी शुरू हुआ था, तो उसे भी दो दर्जन छंटे-छंटाए दक्षिणपंथी, इस्लामविरोधी यूरोपीय सांसदों के कश्मीर दौरे की मोदी सरकार की जनसंपर्क कसरत ने पीछे धकेल दिया। इस तिकड़म के सामने कश्मीरियों ने खुद को और भी बंद कर लिया। इसी मुकम्मल बंद से जम्मू-कश्मीर के केंद्रशासित प्रदेश बनने का स्वागत किया!
बेशक, यह तमाम सचाई भी नरेन्द्र मोदी को दावा करने से रोक नहीं पाई है कि उनकी सरकार जम्मू-कश्मीर के लिए ‘नई सुबह’ ले आई है। जिस कदम के लिए एक समूचे राज्य को महीनों के लिए कैद करना पड़ा हो और कोई नहीं जानता कि यह स्थिति कब तक चलेगी, उसे उन्होंने एक बार फिर संबंधित राज्य की ‘आजादी’ बताया है। फिर भी सरदार पटेल के जन्म दिन पर राष्ट्रीय एकता दिवस के पालन के हिस्से के तौर पर जिस तरह जम्मू-कश्मीर की जनता से किए गए पवित्र वादे को तोड़ने का औपचारिक ऐलान किया गया है, वह प्रचार के  जरिए झूठ को सच बनाने की गोयबल्सीय तिकड़म पर मोदी सरकार के विश्वास को ही दिखाता है। लेकिन आरएसएस के विपरीत, आजादी की लड़ाई के बीच से राष्ट्रीय एकता का निर्माण करने वाली धारा के अग्रणी नेताओं में  रहे सरदार पटेल, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र की सुरक्षा के अंतर को भली-भांति पहचानते थे। इसीलिए उन्हें राष्ट्रीय एकता के लिए जम्मू-कश्मीर की जनता को भारतीय संघ में अधिकतम स्वायत्तता का आश्वासन देना जरूरी भी लगा और उपयोगी भी। मोदी सरकार उनके नाम पर चाहे सबसे ऊंची प्रतिमा बनवा दे, पर उनसे ठीक उल्टे रास्ते पर चल रही है।

राजेन्द्र शर्मा


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