पुलिस- वकील विवाद : अवज्ञा की परिणति
दिल्ली में साकेत के पास मोटरसाइकिल से वर्दी में जा रहे पुलिस के एक सिपाही को कुछ वकीलों द्वारा अनायास पीटने की घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ।
पुलिस- वकील विवाद : अवज्ञा की परिणति |
वीडियो के अनुसार, सिपाही अकेला जा रहा था और वकील उसे पीट रहे थे। सिपाही ने सब्र रखना बेहतर समझा। सिपाही अकेला न होता या उसके पास कोई हथियार होता तो हो सकता है कि तीसहजारी जैसी कोई घटना फिर घट जाती।
इसमें दो राय नहीं कि वकील सत्ता के लिए एक दबाव समूह के रूप में पुलिस से अधिक उपयोगी हैं जबकि पुलिस सरकार का एक विभाग है-नियम कानून से बंधा, हजार बंदिशें। दिल्ली पुलिस के जवानों के धरने को अनुशासनहीनता की दृष्टि से कुछ मित्र देख सकते हैं पर मेरी राय थोड़ी अलग है। अनुशासन का यह कतई अर्थ नहीं है कि अपनी बात कही ही न जाए। इसका अर्थ यह भी है कि अपनी बात विभाग के आला अधिकारियों तक खुल कर कही जाए। जो आक्रोश अभिव्यक्त हो रहा है, उसका समाधान ढूंढा जाए। पुलिस विभाग को किसी फैक्ट्री या अन्य सरकारी विभागों की तरह देख कर समझने की कोशिश करेंगे तो नहीं समझ पाएंगे। इसे सेना या सशस्त्र बलों की तरह देख कर समझें। दिल्ली पुलिस में तीसहजारी अदालत के बाद उपजे असंतोष का बड़ा कारण यह है कि हाईकोर्ट ने बिना पुलिस का पक्ष जाने ही उनके साथियों का न केवल तबादला कर दिया बल्कि कुछ को निलंबित भी कर दिया।
जब वे अपनी बात कहने पुलिस मुख्यालय पहुंचे तो पुलिस कमिश्नर भी उनसे मिलने, उनकी बात सुनने नहीं आए। पुलिसकर्मिंयों को लगा कि ऐसे नाजुक समय में उनके अफसर भी उनके साथ नहीं हैं। असंतोष और आक्रोश का यह तात्कालिक कारण था। घटना पर बार कॉउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष का बयान उनके पद के अनुरूप नहीं था। वकीलों का एक ग्रुप पुलिस मुख्यालय पहुंच कर यही कह देता कि हम अपने समूह में ऐसे कुछ लोगों, जो अनावश्यक विवाद पैदा करते हैं, के खिलाफ कार्यवाही करेंगे तो काफी हद तक समस्या सुलझ जाती। बीसीआई प्रमुख के बयान में मामले को हल करने लायक कोई बात नहीं थी। उन्होंने साकेत कोर्ट की घटना के बारे में भी कुछ नहीं कहा। मान लिया कि यह धरना न्यायिक जांच से बचने के लिए धरना है। उनका कहना था कि पुलिस अनुशासनहीनता कर रही है। यह तो जांच के पहले ही पुलिस को दोषी ठहराना हुआ।
मॉब लिंचिंग की परंपरा से बहुत पहले ही कचहरियों में मुल्जिम के साथ, जो पेशी पर ले जाए जाते हैं, लिंचिंग की परंपरा कानून के जानकार व पैरोकार कहे जाने वाले वकीलों द्वारा शुरू की जा चुकी है। इस एलीट लिंचिंग से खबरें तो बनीं पर र्भत्सना न हुई, न मुकदमे कायम हुए और न जांच हुई। कुछ ने इसकी सराहना की तो कुछ ने औचित्यपूर्ण तक ठहरा दिया। कुछ ने तर्क दिया कि सजा हो न हो कम से कम यही सही। वैसे भी सजा कहां इतनी जल्दी मिलती है। यह सीधे-सीधे कानून को न मानने की पैरोकारी है। यह प्रवृत्ति हमें विधिपालक समाज के बजाय ऐसा समाज बना रही है जहां विधि की अवज्ञा ही समाज का स्थायी भाव बनता जा रहा है। आप इस पर समझौता कर बैठेंगे कि सजाएं चाहे वकीलों द्वारा कचहरियों में मारपीट कर के दी जाएं या पुलिस गैरकानूनी तरीकों से दे, कुछ हद तक उचित है तो वह हद कभी न कभी बेहद होगी ही। उसकी जद में आप-हम-सभी आ जाएंगे। कानून को कानूनी तरीके से ही लागू होने पर जोर दीजिए अन्यथा विधिविहीन और अराजक समाज की दस्तक सुनने के लिए तैयार रहिए।
आये दिन वकीलों के कभी पुलिस तो कभी किसी सामान्य व्यक्ति के साथ मारपीट की खबरें आती रहती हैं। यह रोग तो अब हाईकोर्ट तक पहुंच गया है। न्यायिक अधिकारियों से बात कीजिए तो वे भी इस उद्दंडता और गुंडई से दु:खी हैं पर कुछ कर नहीं पाते। कानपुर में वकीलों की अनिश्चितकालीन हड़ताल का आह्वान हुआ। कारण, वकीलों ने एक रेस्टोरेंट में जाकर मारपीट की और मौके पर पुलिस पहुंची से उलझ गए। मामले पर मुकदमा दर्ज हुआ तो हड़ताल कर दी। वकीलों का यह आचरण विधिविरु द्ध गिरोह की तरह ऐसे अवसर पर आचरण करता है। दिल्ली की घटना भीड़ हिंसा के प्रति नरम रुख रखने और उसे मौन सहमति देकर गुंडागर्दी का वातावरण बनाने का परिणाम है। यह एक मनोवृत्ति को जन्म दे रहा है, जो त्वरित न्याय के तौर पर खुद को ही फरियादी, और खुद को ही मुंसिफ के तौर पर समझ कर तदनुसार आचरण कर रही है। यह मनोवृत्ति प्रतिशोध की है। अपराध और दंड का दशर्न प्रतिशोध की बात नहीं करता। वह कानून के दंड की बात करता है। अपराधी को दंड देना किसी भी प्रकार का बदला लेना नहीं है। वह एक न्यायिक प्रक्रिया है जिसके अंग वकील भी हैं, और पुलिस भी। पर लगता है हम एक अधीर, उद्दंड और जिद्दी समाज में बदलते जा रहे हैं। जिसके पास संख्याबल और शारीरिक ताकत मौके पर होगी वह अपने विरोधी से सड़क पर निपट लेगा और कुछ इसका औचित्य भी ढूंढ लेंगे। जो पिटेगा वह भी मौका ढूंढेगा और बदला ले लेगा। नये और बिना काम के वकीलों में एक बात घर कर जाती है कि वे कानून और कानूनी प्रक्रिया के ऊपर हैं। बार काउंसिल व बार एसोशिएशन, दोनों को इस प्रवत्ति पर अंकुश लगाना होगा अन्यथा सबसे अधिक हानि वादकारियों की होगी।
पुलिस में बहुत सी कमियां हैं पर कभी भी पुलिस ने एक समूह के रूप में जैसे दिल्ली पुलिस ने किया है, अपने विरु द्ध दर्ज भ्रष्टाचार या कदाचार के आरोपों में दंडित या कार्यवाही किए जाने पर सामूहिक विरोध प्रदशर्न नहीं किया। पुलिस को राजनैतिक दबाव से मुक्त करने और प्रोफेशनल की तरह से कानून लागू करने वाली संस्था बनाने के लिए पूर्व डीजी प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ निर्देश भी दिए पर आज तक किसी सरकार ने कोई भी सक्रिय कार्यवाही नहीं की क्योंकि वे सुधार राजनीतिक आकाओं के हितों को प्रभावित करते हैं।
मूल समस्या है कानून के प्रति बढ़ता अवज्ञा भाव। यही भाव सड़क पर वर्दी उतरवा देने की धमकी देता है, यही भाव यातायात उल्लंघन पर चेकिंग होने पर ईगो को आहत कर देता है, यही भाव कभी वकीलों को संक्रमित कर देता है तो कभी वर्दीधारी को, और यही भाव पुलिस सहित कानून लागू करने वाली सभी संस्थाओं का राजनीतिक आकाओं द्वारा दुरुपयोग कराता है। जब तक कानून की अवज्ञा का भाव समाज में हावी रहेगा तब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी। दिल्ली का तीसहजारी कांड न तो पहला है, और न ही अंतिम।
| Tweet |