बतंगड़ बेतुक : मूर्ख नहीं, जनता राष्ट्रवादी है
झल्लन हमारे पास आया और बड़बड़ाया, ‘जनता वाकई मूर्ख है, देखिए महाराष्ट्र की जनता ने क्या किया, हरियाणा की जनता ने क्या किया? हरियाणा की जनता तो सौ टंच मूर्ख है।’
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हमने कहा, ‘महाराष्ट्र-हरियाणा की जनता ने तेरा क्या बिगाड़ दिया है जो तुझे इतना उखाड़ दिया है?’ वह बोला, ‘जनता हमारे जैसे नाकुछ आदमी का क्या तो बिगाड़ेगी और क्या तो उखाड़ेगी, अपनी मूर्खता से देश को ही उजाड़ेगी।’ हमने किंचित मुस्कुराते हुए पूछा, ‘बता जनता ने क्या बिगाड़ दिया जो तू इतना नाराज हो रहा है, अपना आपा खो रहा है?’ वह बोला, ‘क्या ददाजू, आप सब जानते हो मगर जानबूझकर हमारी बज्जी काटते हो। महाराष्ट्र में दो सौ से ऊपर लाना था और हरियाणा में पिचत्तर पार जाना था। मगर जनता ने सारा खेल बिगाड़ दिया और खेल बिगाड़कर अपना पल्ला झाड़ लिया।’
हमने कहा, ‘इसमें जनता का क्या दोष, उसने जिसे चाहा उसे वोट दे आयी, अपना काम कर आयी।’ वह बोला, ‘ददाजू, जो जनता राष्ट्रवाद की चिंता नहीं करे, राष्ट्रहित में वोट नहीं करे, राष्ट्रहित के सपने पूरे नहीं करे तो इस जनता का क्या किया जाये, इसे मूर्ख नहीं तो और क्या कहा जाये?’ हमने कहा, ‘यह चुनावी लोकतंत्र है, इसमें ऊंच-नीच होती है, कभी हार बड़ी होती है तो कभी जीत बड़ी होती है।’ वह बोला, ‘हार-जीत अपनी जगह है ददाजू, देश की आन-बान भी कोई चीज होती है, इसी से वोटर की पहचान होती है। अगर राष्ट्रवाद को नहीं पहचान पाये तो कम से कम 370 को तो पहचानते, इसके हटने का इतना बड़ा काम हुआ है उसको तो मानते। वोट देते वक्त इस काम को तो याद करते, कुछ तो देश का मान रखते।’ हमने कहा, ‘तू कैसे कह सकता है 370 हटने का असर नहीं हुआ। असर नहीं होता तो जो वोट आये हैं वे भी नहीं आते और जो महाराष्ट्र में जो मजे से सरकार बना ली है वो नहीं बना पाते।’ झल्लन बोला, ‘और हरियाणा, वहां तो पूर्ण बहुमत भी नहीं दिया। मजे से सरकार बनती मगर बीच में फंसा दिया।’ हमने कहा, ‘बीच में कहां फंसे, न कहीं रुके न कहीं धंसे, जन्मजात जट्ट पार्टी के समर्थन से अपनी दाल गला तो ली, सरकार बना तो ली।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, अपना बहुमत ही असली बहुमत होता है, दूसरे के बल पर बहुमत बनाने में मजा थोड़ा कम होता है।’
हमने कहा, ‘सारा खेल तो सत्ता का है, मजे लो या न लो, मगर सरकार बना लो। हमने सुना है किसी लड़की का कोई हत्यारा जो जनता के जोर से जीतकर आया था, उसने भी सरकार बनाने के लिए अपना समर्थन पहुंचाया था और उसे कोई चार्टर्ड विमान दिल्ली लेकर आया था।’ झल्लन बोला, ‘अच्छा हुआ कि उसका जमीर तो जागा और वह अपना समर्थन लेकर सरकार की तरफ भागा।’ हमने कहा, ‘झल्लन, एक अपराधी से समर्थन लेने में शर्म नहीं आती है, इसमें देश की इज्जत नहीं जाती है?’ वह बोला, ‘आप भी ददाजू, अपराधी क्या राष्ट्रवादी नहीं होते, समर्थन देने के उनके अपने अधिकार नहीं होते? फिर उसे तो जनता ने जिताया है, जिताकर विधानसभा तक पहुंचाया है।’ हमने कहा, ‘अपराधी को जिताने वाली जनता तुझे मूर्ख नहीं लगती? ऐसी जनता के लिए तेरे मन में नफरत नहीं जगती?’ झल्लन बोला, ‘कहां की बात कहां पहुंचा रहे हो ददाजू, मसला समर्थन के लेन-देन का है, इसमें क्यों पंगा लगा रहे हो।’ हमने कहा, ‘समर्थन के लेन-देन की भी अपनी ईमानदारी होती है, इस ईमानदारी को निभाना भी हमारी जिम्मेदारी होती है।’ वह बोला, ‘ददाजू, अगर जनता भरपूर जिता देती तो सरकार बन जाती, बेईमानी-ईमानदारी की बात ही नहीं आती। दूसरी बात यह कि राष्ट्रवाद बेईमानी-ईमानदारी से बड़ा होता है और कोई चाहे कैसा भी हो महान होता है अगर वह राष्ट्रवादी सरकार को बचाने के लिए खड़ा होता है। और तीसरी बात जिस अपराधी ने समर्थन दिया था उसे उसका समर्थन वापस भी तो लौटा दिया, सरकार ने अपना नैतिक धर्म भी तो निभा दिया।’
हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि हम झल्लन को समझाएं या अपने उड़ते दिमाग को बचाएं। अब हमें कांग्रेस पर गुस्सा आ रहा था और गुस्से के साथ-साथ हमारा मन उस पर तरस भी खा रहा था। हमने कहा, ‘पिछली हार के बाद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस तरह पिचपिचा नहीं गया होता, उसके भीतर आपसी घमासान नहीं मच गया होता तो कांग्रेस की बेहतरी के जो परिणाम आये हैं, उससे कहीं बहुत बेहतर परिणाम आते। पता नहीं कांग्रेस लंतरानियां छोड़ करने के काम कब करेगी और कब संगठित होकर अपना उद्धार करेगी। अगर उसका शीर्ष नेतृत्व ठीक से मैदान में उतरा होता..’
झल्लन हमें टोकते हुए बोला, ‘‘गलत कह रहो हो ददाजू, शीर्ष नेतृत्व बाहर निकलता तो आएं-बाएं बकता और वोटर फिर से जा बिदकता। तब सीटों की जितनी संख्या आयी है वह भी नहीं आती और कांग्रेस एक बार फिर मुंह की खाती।’ झल्लन सही कह रहा था या गलत, हमारी समझ में नहीं आ रहा था मगर अब हमारा ध्यान महाराष्ट्र की दो महान राष्ट्रवादी ताकतों की घनघोर राष्ट्रवादी सत्ता-कशी पर जा रहा था।
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