दिल्ली चुनाव : शीला के बिना कांग्रेस

Last Updated 31 Oct 2019 01:56:10 AM IST

हरियाणा, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद अब तीन महीने के भीतर होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर कयासबाजी का दौर शुरू हो चुका है।


दिल्ली चुनाव : शीला के बिना कांग्रेस

हरियाणा, महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदशर्न नहीं करने के बावजूद सरकार बनाने की स्थिति में रहने को भाजपा बड़ी कामयाबी मान रही है, और दिल्ली चुनाव को लेकर कांफिडेंट दिखाने की कोशिश कर रही है, वहीं लोक सभा के हालिया चुनाव में तीसरे नम्बर पर रहने वाली दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) भी खुद को रेस में आगे मान रही है। उसका कहना है कि चूंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव इस बार कांग्रेस शीला दीक्षित के बिना लड़ेगी और यह सभी को मालूम है कि शीला दीक्षित के बिना दिल्ली में कांग्रेस का क्या हाल है, बिल्कुल अनाथ सी हो गई है। 
आप का यह तर्क एकदम से नकारा नहीं जा सकता। शीला दीक्षित ऐसी शख्सियत थीं, जिनका विरोधी भी लोहा मानते थे। कहा जाता है कि लोक सभा चुनाव में आप से चुनावी समझौता नहीं होने का कारण शीला दीक्षित ही थीं। चुनावी समझौता हो चुका था, लेकिन शीला ने घोषणा होने से पहले इसे रु कवाया और विधानसभा चुनाव को देखते हुए जमीन तैयार करने का तर्क दिया। आखिरकार, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को शीला आंटी की बात माननी पड़ी। इसका फायदा कांग्रेस को लोक सभा चुनाव में हुआ। उसकी झोली में दिल्ली की सात सीटों में से एक भी सीट भले ही नहीं आई हो लेकिन वोट परसेंटेज के हिसाब से आप को तीसरे नम्बर पर खिसका कर खुद को दूसरे नम्बर पर स्थापित करने में सफल रही। शीला दीक्षित का अचानक चले जाना कांग्रेस के लिए तो बड़ी क्षति है।

सवाल उठ रहे हैं कि शीला के बाद दिल्ली में कांग्रेस का खेवनहार कौन होगा? कई नाम लिये जा रहे थे, लेकिन जो भी हैं उनमें से किसी में भी शीला जैसी रणनीतिक सोच नहीं। दिल्ली कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा को फिर से कमान सौंपी गई है, लेकिन बिखरी पड़ी कांग्रेस में वह कितनी जान फूंक पाएंगे। देखने वाली बात होगी। हालांकि विश्लेषकों व स्थानीय कार्यकर्ताओं को भी बहुत कुछ बदलाव का भरोसा नहीं है, और यही दिल्ली में सत्तारूढ़ आप को सुकून दे रहा है। वह इसे राहत मान रही है क्योंकि कांग्रेस, आप का वोट प्रतिशत ही आपस में शिफ्ट हुआ है, भाजपा के वोट इंटेक्ट रहे हैं, उनमें बहुत अंतर नहीं आया है। आप के सत्ता में आने के पीछे कांग्रेस के वोट प्रतिशत का भारी मात्रा में खिसक जाना ही प्रमुख कारण माना गया था। आंकड़ों पर गौर करें तो लगातार तीन टर्म यानी 15 साल तक मुख्यमंत्री रहने वाली शीला दीक्षित को 2013 व 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से हार का सामना करना पड़ा था और 2019 के लोक सभा चुनाव में एक बार फिर शीला को बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने हरा दिया था, फिर भी शीला ने अपनी मेहनत से कांग्रेस के खाते में जिस तरह वोट शेयर में उछाल दिलाया वो महत्त्वपूर्ण है। 2019 में दिल्ली की सभी सातों लोक सभा सीट भाजपा कब्जाने में सफल रही थी। यानी दिल्ली की राजनीति से कांग्रेस का लगभग सफाया हो चुका था। ऐसे में शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा लोक सभा के हालिया चुनाव में खुद को दूसरे नम्बर पर लाकर सत्तासीन आप को तीसरे पायदान पर भेज देना और ज्यादातर इलाकों में आप की जमानत तक जब्त हो जाना कांग्रेस की बड़ी उपलब्धि मानी गई। विरोधियों को भी करारा जवाब मिला कि आप के साथ गठबंधन नहीं करने का शीला का फैसला कितना सही था।
शीला का मानना था कि कांग्रेस आप के साथ चुनावी समझौता करती है, तो उसे दिल्ली की मौजूदा सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का शिकार होना पड़ेगा-वो सौ फीसद सही साबित हुई। किंतु अब जब वह नहीं हैं, तब उनकी रणनीति के हिसाब से पार्टी को आगे ले जाने वाला उनके जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं दिख रहा। जमीन तैयार है। बस उस पर रणनीतिक चाल से आगे बढ़ने की जरूरत है लेकिन जो हालात दिखाई दे रहे हैं, उनसे तो नहीं लगता कि कांग्रेस खुद को उस हिसाब से तैयार कर पाएगी। मजबूत नेतृत्व नहीं होने से कांग्रेस के नेताओं को भी लगने लगा है कि पार्टी विस चुनाव में भी कुछ खास नहीं करने वाली। इसके पुराने वरिष्ठ नेताओं ने भी आप की तरफ देखना शुरू कर दिया है। शुरुआत पूर्व विधायक प्रह्लाद साहनी से हो चुकी है। उन्होंने कांग्रेस को छोड़ आप का दामन थाम लिया है। आने वाले समय में कई और कांग्रेस नेताओं के आप में शामिल होने की बात सामने आ रही है। ऐसा होता है, तो कांग्रेस के लिए गहरी चोट पहुंचने जैसा होगा और आम आदमी पार्टी के लिए संजीवनी जैसा।

कुमार समीर


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