भारी बस्ता : उम्मीदों का बोझ न डालें

Last Updated 21 Oct 2019 12:21:09 AM IST

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने हाल ही में एक दिशा-निर्देश में कहा है कि प्री-स्कूल में किसी भी बच्चे की कोई लिखित या मौखिक परीक्षा नहीं होनी चाहिए।


भारी बस्ता : उम्मीदों का बोझ न डालें

एनसीईआरटी  ने इस प्रकार की परीक्षाओं को नुकसान पहुंचाने वाला एवं अवांछनीय प्रक्रिया करार देते हुए कहा है कि इससे अभिभावकों में अपने बच्चे के लिए जो आकांक्षाएं पैदा होती हैं, वे सही नहीं होती। परिषद ने कहा कि प्री-स्कूल के छात्रों के आकलन का मकसद उन पर ‘पास’ या ‘फेल’ का ठप्पा लगाना नहीं है।
छोटे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा को लेकर एनसीईआरटी का यह दिशा-निर्देश बहुत कारगर और उपयोगी है। जब बच्चों का स्कूल में नामांकन कराया जाता है तब अभिभावक उसकी उम्र, क्षमता को भूल कर अपनी उम्मीदों का बोझ उसके कंधे पर लादने का प्रयास करना शुरू कर देते हैं। उस समय वे भूल जाते हैं कि उन बच्चों का नाजुक कंधा अभिभावकों के उम्मीदों का बोझ उठाने के लिए सक्षम हैं भी या नहीं। फिर यहीं से शुरू होता होता है बच्चों के पास या फेल होने का खेल। इन खेल में बच्चों पर पास और फेल होने का एक ऐसा ठप्पा लग जाता है, जिसका बोझ वह जीवन पर अपने मन पर उठाए चलते हैं। हमें समझना होगा कि बच्चों का मन नाजुक होता है और उसके नाजुक मन पर अंकित होने वाला कोई भी बात जीवन भर उसके साथ रहती है। ऐसे में निश्चित रूप से देश के किसी हिस्से में प्री-स्कूल में पढ़ने वाले किसी भी बच्चे का कोई लिखित या मौखिक परीक्षा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए।

एनसीईआरटी ने इस दिशा-निर्देश के जरिए एक साहसपूर्ण और उपयोगी कदम उठाया है। अब जरूरत है कि इन-निर्देशों का सही से पालन किया जाए और इसके लिए ठोस एवं प्रभावी कदम उठाए जाएं। जब हम प्री-स्कूल में पढ़ने वाले किसी भी बच्चे का लिखित या मौखिक परीक्षा लेते हैं तो हमारा मकसद भले ही कुछ हो, लेकिन हम जाने अनजाने इस चरण पर आकलन करके बच्चे पर ‘पास’ या ‘फेल’ का ठप्पा लगा बैठते हैं। इन सब बातों के बजाय हमें इस बात पर जोर देना चाहिए कि बच्चों में तर्क आधारित सोच को कैसे बेहतर बनाया जाए। बच्चों को सिखाने का बेहतर तरीका यह है कि हम खेल-खेल में उसे समझाएं और बताएं। बच्चों के सर्वागीण विकास के लिए हमें एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए, जिसमें स्कूल में माहौल सकारात्मक और खुशनुमा हो। साथ ही स्कूलों के शिक्षकों और घरों पर अभिभावकों को निश्चित रूप से यह समझना होगा कि उन्हें बच्चों की क्षमता पर टिप्पणी और किसी अन्य बच्चों के साथ उसकी तुलना नहीं करनी चाहिए। भले ही यह बात छोटी और सामान्य लगे मगर बाल मन पर इसका बहुत ही गंभीर असर पड़ता है। आमतौर पर हम देखते हैं कि हमारे देश में प्री-स्कूल कार्यक्रम में बच्चों को बोझिल दिनचर्या में बांध दिया जाता है। स्कूलों में ऐसे भी कार्यक्रम चलाए जाते हैं, जहां विशेषकर अंग्रेजी को ध्यान में रखते हुए बच्चों को औपचारिक शिक्षा दी जाती है। उन्हें परीक्षा देने या गृहकार्य करने को कहा जाता है और उनसे खेलने का अधिकार छीन लिया जाता है। ऐसा करते हुए हम भूल जाते हैं कि बच्चों को शिक्षित करने का मतलब उन्हें किताबी कीड़ा बनाना नहीं होता है। बच्चों को परीक्षा देने या गृहकार्य करने के नाम पर हम उनका बचपन और खेलने का अधिकार छीन लेते हैं। गृह कार्य और परीक्षा जैसे अवांछनीय एवं हानिकारक प्रक्रिया से अभिभावकों में अपने बच्चों को लेकर जो आकांक्षाएं पैदा होती हैं, उसे सही नहीं माना जा सकता है और वह सही है भी नहीं। ऐसे में एनसीईआरटी ने ‘प्री-स्कूल शिक्षा के लिए दिशा-निर्देशों’ के तहत एक ऐसी सूची तैयार की है, जिसमें बताया गया है प्री-स्कूल में बच्चों का आकलन कैसे किया जाना चाहिए?
जब हम बच्चों पर उम्मीदों का बोझ डालते हैं तो फिर हम उसे ऐसी शिक्षा प्रणाली की ओर धकेल देते हैं जहां दिनों-दिन उसके नाजुक कंधों पर बोझ बढ़ता जाता है। बच्चों के कंधों पर दबता बोझ काफी नुकसानदेह होता है। इस बात की पुष्टि एम्स द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में भी होती है। अध्ययन में पता चला है कि बस्ते का बोझ स्कूली बच्चों की मांसपेशियों और हड्डियों को कमजोर करता है। एम्स के रूमेटेलॉजी विभाग की ओर से अप्रैल 2018 से मार्च 2019 के बीच किए गए अध्ययन में इसका सबसे बड़ा कारण बच्चों के भारी बस्ते को बताया गया। ऐसे में उनके बस्ते का बोझ बढ़ता है जो उसके शरीर और मन के लिए बिल्कुल सही नहीं है। ऐसे में स्कूलों को चाहिए कि वह एनसीईआरटी के दिशा-निर्देशों का निश्चित रूप से पालन करे।

चंदन कुमार चौधरी


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