मीडिया : एंकरिंग का पतन

Last Updated 20 Oct 2019 06:02:48 AM IST

इन दिनों अपने कई न्यूज चैनलों के एंकर-रिपोर्टर ‘हिंदुत्ववादी’ होते नजर आते हैं। बाबरी के तोड़े जाते वक्त हिंदी के सिर्फ कुछ अखबार हिंदुत्ववादी भावनाओं में बहे नजर आए थे लेकिन इन दिनों तो कई न्यूज चैनल और उनके एंकर इसी लाइन पर चलते नजर आते हैं।


मीडिया : एंकरिंग का पतन

कोई कह सकता है कि यह हमारी नजर का फरेब है लेकिन जब अधिकांश  एंकर अपने मुख से खुले आम हिंदुत्ववादी भाषा बोलने लगें तो इसे क्या कहें?
जिस दिन सबसे बड़ी अदालत की विशेष बेंच ने मंदिर की जमीन के मालिकाना हक को लेकर चल रही सुनवाई को पूरा किया, उस दिन की खबरों और चरचाओं को देखें। इस दिन की समाचार प्रस्तुतियों, हैशटेगों, हैडलाइनों, टिकरों और बहसों को याद करें तो साफ हो जाता है कि बहुत से एंकरों व रिपोर्टरों ने ‘फैसले’ के आने के पहले ही ‘मान’ लिया कि फैसला मंदिर के पक्ष में आना है, और मंदिर बनना तय है। सब जानते हैं कि अभी विशेष बेंच ने सिर्फ  सुनवाई पूरी की है यानी कि फैसला अभी लिखा और घोषित किया जाना है। फिर भी अगर हमारे एंकर ‘मंदिर के निर्माण तय’ जैसे आश्वासन को देते रहे तो किस कारण? एक कारण तो यह हो सकता है कि एंकरों व रिपोर्टरों का दिमाग जजों से भी आगे चलता है या कि वे अपने हित में हिंदुत्ववादी शक्तियों को खुश रखना चाहते हैं, और उनको आस्त किए रखना चाहते हैं ताकि अगर फैसला मंदिर निर्माण के पक्ष में आता है तो कह सकें कि हमने सबसे पहले बताया था कि ऐसा होगा और अगर नहीं आता है, तो समाज में इतनी उत्तेजना पैदा कर दें कि ऐसा वातावरण बन जाए कि हिंदुत्ववादी वातावरण और भी सघन हो।

हम मानें चाहें न मानें आजकल बहुत से एंकर खबरनबीसी का स्तर ऊंचा उठाने की जगह किसी न किसी वैचारिक या भावात्मक एजेंडे के अनुकूल वातावरण बनाने का काम करते हैं। इस मामले इसी सप्ताह के दो खास प्रसारण देखे जा सकते हैं। एक दिन आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत ने कहा कि ‘लिचिंग’ भरतीय परंपरा का शब्द नहीं है, तो जितनी चरचाएं नजर आई उनमें वो जोर नजर न आया जो किसी ‘लिंचिंग’ की रिपोर्टिग करते वक्त आता था। किसी ने भी ‘लिचिंग’ के ‘गैर-भारतीय’ कहने में निहित भाषायी छल को डकिंस्ट्रक्ट करने की जगह उसे ‘सामान्य हिंसा’ की तरह बर्दाश्त किया। ऐसी ही हमदर्दी  सावरकर को भारत रत्न देने की मांग पर चलाई गई चरचाओं में देखी गई। महाराष्ट्र के आसन्न विधानसभा चुनाव में हिंदुत्ववादी वोट बैंक को अपनी ओर खिसकाने के लिए सावरकर को भारत रत्न देने की मांग सबसे  पहले शिवेसना ने की लेकिन उसे  तुरंत ही भाजपा ने मेनिफेस्टो में शामिल करके चुनावी मुद्दा बना डाला। ऐसे मुद्दों के लिए हमेशा तैयार एंकर बहस कराने लगे कि सावरकर को भारत रत्न दिया जाना चाहिए कि नहीं? सावरकर के नाम पर होने वाले विवाद को ठंडा करने के लिए ज्योतिबा फुले को भी भारत रत्न देने की मांग की गई लेकिन चरचाओं को अपने अनकूल हांकने के लिए सावरकर को भारत रत्न दिलाना कई एंकरों की मानो पर्सनल ड्यूटी सी बन गई कि अगर सावरकर को न दिलाया तो कहीं नौकरी पर न बन आए।
अब तक तो ज्यादातर हिंदी एंकर ही हिंदुत्ववाद का भजन करते दिखलाई पड़ते थे लेकिन इस बार कई अंग्रेजी एंकर तक मंदिरवादी राजनीति को जैसे गोद लेते दिखे। इस मामले में पहले तो सिर्फ  एक एंकर ‘हिंदू विचार’ की ओर झुका नजर आता था। आजकल तो चार-चार अंग्रेजी एंकर ‘हिंदुत्ववादी/राष्ट्रवादी’ दिखने की दौड़ में शामिल नजर आते हैं। हम मानते हैं कि हिंदुत्ववादी शक्तियां तो ‘हिंदुत्ववादी’ मुद्दे उठाती ही रहेंगी और अपने विचारों और फैसलों की खबरें बनाती रहेंगी लेकिन उनको खबर बनाते वक्त या उन पर चरचा कराते वक्त किसी एंकर को प्रकारांतर से ‘हिंदुत्ववादी विचार’ का पक्ष लेने की क्या जरूरत?
लेकिन इन दिनों तो कई एंकर व रिपोर्टर अपने नये हिंदुत्ववादी आग्रहों को छिपाना भी जरूरी नहीं समझते। प्रश्न उठता है कि अपने न्यूज एंकर ‘एंकर’ हैं, या कि एक खास विचारधारा के प्रचारक हैं? कहने की जरूरत नहीं कि वे एंकरी कम करते हैं, और किसी खास एजेंडे के प्रति वफादार नजर आते हैं, और कई बार तो असली हिंदुत्ववादी भी एंकरों की हिंदुत्ववादी परफारमेंस को देखकर दंग रह जाते हैं। यह एंकरिग के घोर ‘पतन’ का दौर है। हिंदुत्ववादियों को इतना अनुकूल मीडिया कभी नहीं मिला। इस अनुकूलता के चलते वे आए दिन अपना एजेंडा पेश करते रहते हैं, और हमारे कई एंकर व रिपोर्टर उनको कभी निराश नहीं करते।

सुधीश पचौरी


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