सामयिक : गांधी और सावरकर

Last Updated 18 Oct 2019 04:25:32 AM IST

बीसवीं सदी की पहली चौथाई में ही भारत में दो किताबें ऐसी आई, जो अलग-अलग कारणों से आज हमारे राजनैतिक-सामाजिक विमर्श का केंद्र बन गई हैं।


सामयिक : गांधी और सावरकर

1909 में गांधी की किताब आई ‘हिन्द स्वराज’ और 1923 में सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व’। दोनों ही आज हमारे लिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन दोनों के बीच वैचारिक घमासान चल रहा है। इस घमासान को हम अपने सामाजिक-राजनैतिक जीवन में कई रूपों में महसूस कर सकते हैं।
गांधी और सावरकर में एक समानता है कि दोनों हिन्दू केंद्रित रहे हैं। गांधी के लिए हिन्दू एक जीवन-दशर्न है, एक दृष्टिकोण है, जिसे उन्होंने अपने पूर्वजों से बिना किसी प्रयास के हासिल  किया है। इसलिए यह उनका संस्कार है। इस संस्कार के बूते वह आधुनिक सामाजिक -जीवन के बीच एक रास्ता  बनाने की कोशिश करते हैं। वह दुनिया के समस्त ज्ञान के बीच अपने हिन्दू संस्कारों को रख एक ऐसी जीवन नौका बनाना चाहते हैं, जिस पर उनके देश के लोग जीवन यात्रा कर सकें, लेकिन सावरकर का हिन्दुत्व उनका अभिमान है। वह दुनिया से सीखना नहीं, उसे सिखाना चाहते हैं। वह इतना मजबूत होना चाहते हैं कि लोग उनका वर्चस्व कबूलें। वह दुनिया से मैत्री नहीं, उस पर वर्चस्व चाहते हैं। यह गांधी और सावरकर के हिन्दू का फर्क है। ‘हिन्द-स्वराज’ की रचना गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जल-जहाज पर की थी, और यह पहली दफा  दक्षिण अफ्रीका  से ही छपने वाले ‘इंडियन ओपिनियन’ में प्रकाशित हुई थी।  गांधी के अनुसार लंदन में रहने वाले अराजकतावादी और आतंकवादी प्रवृत्ति के लगभग सभी प्रमुख हिन्दुस्तानियों से उनकी मुलाकात हुई थी। इस मुलाकात के बाद गांधी ने महसूस किया वे सही राह पर नहीं हैं। उनके रास्ते हिन्दुस्तान में स्वराज नहीं आ सकता।

दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा किए जा रहे प्रयोग अभी शैशवावस्था में थे और इसलिए उस बुनियाद पर आतंक और हिंसा के सहारे संघर्ष की मंशा रखने वालों को वह आस्त करने की स्थिति में नहीं थे, मगर गांधी का मन उद्विग्न था। उन आतंकवादियों को इकट्ठे जवाब देने के ख्याल से ही यह किताब, जिसे एक पुस्तिका कहना ही अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि यह कुल जमा 72 पृष्ठों की ही है, लिखी गई थी। किताब प्रश्नोत्तर शैली में लिखी गई है। गांधी ने प्रस्तावना में इसकी विशेषता भी रेखांकित कर दी है -‘यह द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखलाती है, हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने केलिए आत्मबल को खड़ा करती है। ‘उस जमाने के लिए यह बिल्कुल नई बात थी, किंतु इसकी एक पृष्ठभूमि थी। बीसवीं सदी का पहला दशक भारत में जोशीले और आतंककारी विचारों के जोर का था। इसी दशक में बंगाल में क्रांतिकारी कहे जाने वाले अनुशीलन समिति का गठन हुआ था, जो खून के बदले खून की विचारधारा में विश्वास करता था। कांग्रेस में तिलक का प्रभाव था ,जो गर्मदली कहे जाते थे।
मॉडरेट लोग कुछ समय के लिए हाशिये पर चले गए थे। किताब के भीतर एक प्रश्न के जवाब में गांधी कहते हैं, न मैं गर्मदली हूं और न ही मॉडरेट। वह स्पष्ट करते हैं गर्मदली लोगों की  हिंसा और मॉडरेट लोगों की अंग्रेजपरस्ती अथवा अंग्रेजों से सीखने की नीति पर मेरा भरोसा नहीं है। वह न केवल अंग्रेजी सत्ता; बल्कि अंग्रेजी सभ्यता का भी विरोध करते हैं। गांधी का नजरिया विश्व से अलग -थलग नहीं है। वह पूरी दुनिया के मुक्ति-संघर्ष से सीखने की बात करते हैं। इटालियन राष्ट्रवाद के प्रतीक मैजिनी और गैरीबाल्डी का उदहारण देते हुए, वह इन दोनों के प्रभेद को भी चिह्नित करते हैं। वह कहते हैं-‘विक्टर इमैनुअल ने इटली का एक अर्थ किया, मैजिनी ने दूसरा। इमैनुअल, कावूर और गैरीबाल्डी से इटली का अर्थ था इटली का राजा और उसके हुजूरी और मैजिनी के विचार से इटली का अर्थ था इटली के लोग-उसके किसान। ‘गांधी का कहना था इटली में स्वशासन है, परंतु मैजिनी का इटली अब भी गुलाम है। गांधी की यह किताब अपने आजाद विचारों के कारण कुछ अंशों में अटपटी लग सकती है, लेकिन एक मामले में गांधी स्पष्ट हैं कि उनका हिन्द या भारत किसी राजा या शासक का नहीं जनता का है, किसानों का है। वह किसानों के नजरिये से देश या राष्ट्र को देखते हैं, राजनीति को देखते हैं। गांधी ने अपने जीवन भर कुछ मूल्यों को लेकर राजनीति की। उसमें अहिंसा, प्रेम और आमजन केंद्रीय तत्व रहे। हिंसा के निषेध के साथ ही शारीरिक ताकत की जगह आत्मबल को उन्होंने आगे किया। यह लोकतांत्रिक राजनीति की बुनियाद है। हथियारों के साथ लोकतंत्र विकसित नहीं हो सकता।
हिंसा को केंद्र में रख कर जब राजनीति होगी तो वीरभोग्या वसुंधरा का भाव हावी हो जाएगा। ताकतवर लोगों की सत्ता हो जाएगी।  इसलिए गांधी हिन्द स्वराज को किसानों का स्वराज बनाना चाहते हैं न कि शक्तिमान और विशिष्ट लोगों का स्वराज। लेकिन सावरकर की सोच यही नहीं है। बल्कि इससे ठीक उलटी है। उनकी किताब ‘हिन्दुत्व’ उस नजरबंदी में लिखी गई, जब वह कुछ शतरे के साथ कालापानी यानी अंडमान से लाकर रत्नागिरी में रखे गए थे। किताब 1923  में छपी और दो वर्षो के भीतर ही इसके विचारों के अनुरूप एक संस्था इस देश में बन गई। वह संस्था है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। एक लम्बे समय तक इस किताब और इस संस्था पर मुख्यधारा के विचारकों ने ध्यान नहीं दिया। परंतु आज स्थिति है कि इसके नेतृत्व में भारत की केंद्रीय सत्ता और राजनीति है। इसके विचारों की अवहेलना हम अब और नहीं कर सकते। इसे जानना इस कारण आवश्यक हो  गया है कि इसके बिना समकाल की राजनैतिक गुत्थियों को समझना मुश्किल होगा। सावरकर की यह किताब उनके समस्त विचारों की कुंजिका है, जैसे गांधी की ‘हिन्द-स्वराज’ है।
गांधी ने हिन्द स्वराज में व्यक्त कुछ विचारों से बाद के दिनों में स्वयं को अलग-थलग भी किया; जैसे पार्लियामेंट्री ढांचे की सख्त आलोचना करने वाले गांधी बाद में उसके प्रस्तावक बन गए। लेकिन सावरकर अपने विचारों पर आखिर तक कायम रहे। गांधी-हत्याकांड में नाथूराम गोडसे के साथ जिन लोगों को मुजरिम बनाया गया था, उसमे सावरकर भी थे। मगर कोर्ट से बरी कर दिए गए। सावरकर का हिन्दुत्व, गांधी के हिन्द व  हिन्दू से भिन्न है, बल्कि उनके ही शब्दों में हिन्दुवाद से भी भिन्न है। आज हमें गांधी और सावरकर के हिन्दू के फर्क को समझना चाहिए। विचारों के ख्याल से हमारा वक्त मुश्किल घड़ी से गुजर रहा है। हमें गहराई से विचार करना है कि तालियों की गड़गड़ाहट और चकाचौंध के बीच आखिर हम जा किस ओर रहे हैं?

प्रेमकुमार मणि


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