आरटीआई : संशय में सार्थकता

Last Updated 16 Oct 2019 04:21:25 AM IST

देश में 12 अक्टूबर, 2019 को सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) लागू हुए चौदह वर्ष पूरे हो चुके हैं।


आरटीआई : संशय में सार्थकता

इस कानून ने समूचे देश में लोगों का सशक्तिकरण किया। सही मायनों में आरटीआई ने सूचना प्राप्त करने का उनका बुनियादी अधिकार उन्हें दिया। और सरकार को जवाबदेह बनने पर विवश कर दिया। लेकिन पहले कभी नहीं हुआ जब पारदर्शिता के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में वैसे आई हो जैसी कि आरटीआई लागू होने के चौदह साल बाद आज आ गई है। महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय और सार्वजनिक महत्त्व की सूचनाएं मुहैया नहीं कराने का सिलसिला चल पड़ा है। तमाम संशोधन करके इस कानून को ही कमजोर कर दिया गया है।
सूचना का अधिकार कानून को संसद द्वारा पारित आरटीआई एमेंडमेंट एक्ट, 2019 ने खासा कमजोर कर दिया है।  संशोधनों के बाद केंद्रीय सूचना आयोग का पहला सम्मेलन हाल में संपन्न हुआ। गौरतलब है कि अनेक राजनीतिक दलों के विरोध तथा देश भर में प्रदर्शनों के बावजूद भाजपा सरकार ने इस एक्ट में संशोधन किए हैं। संशोधन से पूर्व सार्वजनिक रूप से कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया। इतना ही नहीं संसद में रखे जाने से पूर्व संशोधन के मसविदे  को सार्वजनिक तक नहीं किया गया। संशोधनों के बाद केंद्र सरकार को केंद्रीय सूचना आयोग तथा राज्यों के सूचना आयोगों के मुखिया तथा अन्य सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, वेतन, भत्तों तथा सेवा की अन्य शतरे संबंधी नियम बनाने का अधिकार मिल गया है।

एक अगस्त, 2019 को संशोधनों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने बाद दो महीनों से ज्यादा का समय गुजर चुका है। लेकिन अभी तक केंद्र सरकार ने नियम-कायदे घोषित नहीं किए हैं। हालांकि केंद्रीय सूचना आयोग के सम्मेलन के शुरुआती सत्र को कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह और गृह मंत्री अमित शाह ने संबोधित किया लेकिन उनने आरटीआई कानून में हालिया संशोधनों की बाबत कुछ नहीं कहा और न ही नियम-कायदे बनाने संबंधी किसी सीमा की बाबत ही कोई संकेत दिया। इस कानून के क्रियान्वयन की लचर स्थिति को पूरी तरह से नजरंदाज करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने दावा किया कि यह सरकार पारदर्शिता को लेकर पूरी तरह से प्रतिबद्ध सरकार है। पारदर्शिता के मामले में कोई समझौता नहीं किया जाएगा। हाल में संविधान के अनुच्छेद 370 तथा अनुच्छेद 35ए के खात्मे के पश्चात जम्मू-कश्मीर पुर्नगठन एक्ट, 2019 के प्रभावी होने से  जे एंड आरटीआई एक्ट निरस्त हो गया है। गौरतलब है कि अनुच्छेद 370 तथा अनुच्छेद 35ए के चलते जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दरजा हासिल था। लेकिन इस समूची कवायद में राज्य में पारदर्शिता की परवाह किए बिना पारदर्शिता संबंधी कानून को खारिज कर दिया गया। आज जे एंड के स्टेट इंफॉरमेशन कमीशन के समक्ष लंबित अपीलों और शिकायतों के बारे में कोई स्पष्ट नहीं है।
स्थिति पूरी तरह से भ्रम में डाल देने वाली है। इसलिए कि जे एंड के स्टेट इंफॉरमेशन कमीशन का गठन जे एंड के आरटीआई एक्ट के तहत किया गया था। राज्य के आरटीआई  एक्ट में कुछ ऐसे प्रगतिशील प्रावधान थे, जो केंद्रीय आरटीआई एक्ट में भी नहीं थे-जैसे कि दूसरी अपील कर समयबद्ध निस्तारण। सरकार का खुलापन आज सवालों के घेरे में है। उसका रवैया संदेह पैदा करता है। उदाहरण के लिए विमुद्रीकरण की बाबत जानकारियां मुहैया कराने में जानबूझकर बचती रही। वित्त विधेयक में संशोधन के जरिए  इलेक्ट्रल बांड लागू किया गया। इसके तहत राजनीतिक दल अज्ञात लोगों या स्त्रोतों से चंदा ले सकेंगे। सरकार ने बड़े-बड़े दावे किए कि यह व्यवस्था ज्यादा ‘पारदश्ॉिता’ सुनिश्चित करने के लिए की जा रही है। सरकार द्वारा 2017-18 में लागू इलेक्ट्रल बांड स्कीम से सर्वाधिक लाभान्वित हुई। इस व्यवस्था के तहत प्राप्त चंदे का 94.5% यानी 210 करोड़ रुपये भाजपा को मिले। इससे सत्तारूढ़ पार्टी और कॉरपोरेट के बीच स्वार्थी घालमेल का पता चलता है। सरकार ने बैंक घोटालों और बैंकों की गैर-निष्पादक परिसंपत्तियों (एनपीए) संबंधी जानकारियों को भी छुपाया। इसके अलावा, सरकार ने बेरोजगारी संबंधी आंकड़ों की जानकारियों को भी जानबूझ  कर दबाया। छुपाए रखा।
सतर्क नागरिक संगठन (एसएनएस) तथा सीईएस द्वारा तैयार की गई ‘रिपोर्ट कार्ड ऑफ इंफॉरमेशन कमीशन-2018-19’ में देश भर के सूचना आयोगों के कामकाज का आकलन किया गया है। इसमें पाया गया कि सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी, 2019 में केंद्र सरकार को केंद्रीय तथा राज्यों के सूचना आयोग में सूचना आयुक्तों तथा आयोगों में अन्यों की नियुक्ति संबंधी जो आदेश दिया था, उसका अभी तक पालन नहीं किया गया है। सच तो यह है कि अभी केंद्रीय सूचना आयोग में ही सूचना आयुक्तों के ही चार पद रिक्त पड़े हैं, जिन्हें भरा जाना चाहिए। वह भी उस स्थिति में जब आयोग के समक्ष 33 हजार से ज्यादा  अपीले/शिकायतें लंबित हैं।
इसके अलावा, सूचना प्राप्त करने और जवाबदेही की बात करने वाले 84 से ज्यादा लोगों पर या तो हमले किए गए या उन्हें मार डाला गया। इसी महीने राजस्थान में आरटीआई कार्यकर्ता की पुलिस हिरासत में कथित हत्या कर दी गई। हमले अबाध जारी हैं, और सरकार है कि 2014 में पारित व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट को लागू तक नहीं करा पाई है। आरटीआई कानून के उपयोग और इसे नतीजाकुन बनाने के लिए नेशनल कैम्पेन फॉर पिपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन (एनसीपीआरआई) देश भर में पूरी तरह से जुटा हुआ है। बेशक, आरटीआई विश्व का अपनी तरह का क्रांतिकारी प्रयास है, जो सूचना तक पहुंच की आजादी देता है। खनिज दोहन, लिंचिंग मामलों, आधार, मतदाता पहचान पत्र, इलेक्ट्रल बांड और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून जैसी तमाम व्यवस्थाओं पर सटीक जानकारी आरटीआई के जरिए प्राप्त की जा सकती है, यही इसकी उपादेयता है।

अंजलि भारद्वाज


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