वैदेशिक : डर रहा चीनी गणराज्य

Last Updated 06 Oct 2019 12:27:23 AM IST

माओ त्से तुंग ने जब चीनी लोक गणराज्य की स्थापना की थी तब उनका उद्देश्य था-समानता और लाभ में सभी की बराबर हिस्सेदारी।


वैदेशिक : डर रहा चीनी गणराज्य

इसकी 70वीं वषर्गांठ पर राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी एकता, विकास और मजबूती पर जोर देते दिखे। यहां दो सवाल हैं। पहला यह कि क्या माओ के चीन ने माओ को अभी तक आत्मसात कर रखा है? दूसरा- क्या शी जिनपिंग जिन तीन पर विषयों पर अपनी प्रतिबद्धता जता रहे हैं, वे चीन ने हासिल कर लिए हैं अथवा चीन सही अथरे में उनमें से कम से दो के मामले में काफी दूर है?
डेंग जियांग पिंग ने अब से 40 साल पहले जिस नए चीन की बुनियाद रखी थी वह माओ की सांस्कृतिक क्रांति से अलग कृत्रिम समाजवादी अथवा पूंजीवादी तत्वों से निर्मित थी। इसे ही जियांग जेमिन, हू जिंताओ और शी जिनपिंग ने आगे बढ़ाया। परिणाम यह हुआ कि 4 दशक में माओ के चीन का मौलिक स्वरूप बदल गया। अब उसे देखकर कोई भी कह सकता है कि माओ त्से तुंग ने जिस चीनी लोक गणराज्य को स्थापित किया था, उसका ‘लोक’ अब भी चीन में वही महत्त्व रखता है, जो माओ के समय रख रहा था। दरअसल, इसे खत्म करने की शुरुआत माओ ने ही कर दी थी। उन्होंने ‘ग्रेट लीप फॉर्वड’ और ‘कल्चरल रिवोल्यूशन’ का सहारा लिया जो सही अथरे में चीनी किस्म का नवजागरण कम माओ की निरंकुशता के अधीन लोगों के एकत्ववाद का प्रशिक्षण अधिक था। यही वजह है कि ‘कल्चरल रिवोल्यूशन’ के युग में चीन में जड़ता का विकास अधिक हुआ। डेंग ने इस जड़ता को तोड़ा और चीन को खुला आसमान देने की कोशिश की।

माओ के बाद के चार दशकों में चीन विकास दर के मामले में डबल डिजिट तक पहुंचे और दुनिया का सबसे तेज गति से विकास करने वाला देश बना। चीनी निर्यातों ने दुनिया में भर में घूम मचायी, भुगतान संतुलन चीन के पक्ष में किया, विदेशी मुद्रा भण्डार को समृद्ध बनाया और चीन की अर्थव्यवस्था को दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्था बना दिया। इसी दौर में वह दुनिया का सबसे बड़ा कर्ज प्रदाता बना जिसके चलते उसे र्वल्ड बैंक जैसी संज्ञा दी जाने लगी। उसने चेकबुक डिप्लोमैसी के जरिए एशिया और अफ्रीका के तमाम देशों के प्राकृतिक संसाधनों को अपनी अर्थव्यवस्था से जोड़ने में कामयाबी हासिल की और दुनिया के सबसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य ‘वन बेल्ट वन रोड’ से एशिया एवं यूरोप के देशों को जोड़कर एक धुरी के रूप में प्रतिष्ठा करने का प्रयास किया। लेकिन उसकी इस विकास गाथा में बहुत सी बीमारियां छुपी थीं, जिनका खुलासा करने से चीनी नेतृत्व कतराता रहा। यही वजह है कि वह अपनी आर्थिक नीतियों के जरिए माओ को मारता गया, लेकिन राजनीतिक व्यवस्था में जिंदा रखता रहा ताकि लोगों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखने में सफल हो सके।
पिछले चार दशकों में चीन का जो रूपांतरण हुआ उसने विकास में असामंजस्य और विरूपता को बढ़ाया। कारण यह कि नवविकासवाद की चीनी सैद्धांतिकी ने इस प्रचार पर बल दिया कि युवा यदि प्रसिद्धि पाना चाहते हैं तो वे अनिवार्य रूप से धनी बनें। ऐसा हुआ भी। लेकिन युवाओं के धनी बनने की अदम्य प्यास ने चीन की विकास दर को तो बढ़ा दिया, लेकिन चीन को फिर उन्हीं स्थितियों में पहुंचा दिया जिनके कारण 20वीं सदी में माओ पैदा हुए। इस ‘कैपिटलिस्टिक रोडर्स’ ने चीन में डेंग को तो स्थापित कर दिया, लेकिन माओ को खो दिया। माओ देश में पूंजीवाद की न्यूनतम भूमिका देखना चाहते थे, लेकिन आज यह सर्वाधिक निर्णायक भूमिका में है, जिसके चलते चीन में असमानता काफी जटिल एवं व्यापक स्थिति में देखी जा सकती है। ये स्थितियां सही अथरें में चीनी शासकों को माओ के भूत से डरा रही हैं।
इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि गरीबी के आधार पर समाजवादी व्यवस्था नहीं बनाई जा सकती। लेकिन क्या यह भी सच नहीं होना चाहिए कि केवल अर्थमेटिक्स से आर्थिक समृद्धता, समानता और न्याय की स्थापना भी नहीं की जा सकती। अगर ऐसा होता तो चीन दुनिया का रोल मॉडल बनता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि इसके विपरीत चीन के अंदर से ही उसके इस मॉडल को चुनौती मिल रही है, फिर चाहे वह मकाऊ हो, हांगकांग हो, ताइवान हो या फिर तिब्बत और शिनजियांग में बौद्धों तथा वीगरों का आंदोलन हो।

रहीस सिंह


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