मुद्दा : यौन दासता पर मजबूर दुल्हनें
बेहद मुस्तैदी और दूरदर्शिता के साथ देश के प्रधानमंत्री लगातार वैश्विक पटल पर भारत की पहचान पुख्ता करने में जुटे नजर आ रहे हैं।
मुद्दा : यौन दासता पर मजबूर दुल्हनें |
ठीक उसी वक्त विदेशी मीडिया देश के भीतर औरतों के साथ होने वाली लैंगिक असमानता के मार्फत सजावटी परतें उघाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। बेहद बारीकी से कालीन के नीचे छिपाए गए कचरे को वे दुनिया के समक्ष लाने का काम कर दिखाते हैं। यूके के सम्मानित अखबार टेलीग्राफ ने बेहद तफ्तीश के साथ खबर छापी। इसमें लैंगिक अनुपात के वीभत्स आंकड़ों को ताजा घटनाक्रम से जोड़ा गया है। अखबार ने 17 साल की उस दुल्हन का दिल दहलाऊ जिक्र किया जिसने स्वीकारा की उसका ब्याह जिस लारी चालक से हुआ, उसने उसे अपने दो अन्य भाइयों के साथ भी दैहिक संबंध बनाने पर मजबूर किया। दुल्हन के विरोध करने पर तीनों ने हफ्ते के कुछ दिन आपस में तय करने के बाद उसका बलात्कार व यौन दुव्यर्वहार करना चालू कर दिया। हालत यह है कि यह ब्याहता अपने दो बच्चों के जैविक पिताओं को नहीं जान सकती। हालांकि उसने स्वीकारा कि वह अपनी जैसी अन्य ‘वीवियों’ को अच्छी तरह जानती है। जो यह सच स्वीकारने का साहस नहीं कर सकतीं। फौरी अनुमान के अनुसार,1000 पुरुषों की तुलना में कुल 700 औरतें ही हैं बागपत जिले में। इस कारण वहां के पुरुषों की शादी दुार हो गई है।
जनसंख्या के आंकड़े स्त्री-पुरुष के खतरनाक स्तर पर पहुंचते औसत पर पहले ही चिल्ला-चिल्ला कर चुनौती देते रहे हैं। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे जुमलों को पोस्टरों, होर्डिगो और सरकारी विज्ञापनों का टोटका मान लिया गया है। जमीनी सुधारों को लेकर कोई चेतना नहीं जाग रही है। बढ़ते लैंगिक अनुपात का खमियाजा भी स्त्री के ही सिर फूट रहा है। उसे तरह-तरह से पाटनी पड़ रही है औरतों की कम होती संख्या।
सिर्फ पश्चिमी उप्र ही नहीं, हरियाणा के कुछ इलाकों से भी इसी तरह की खबरें आती रहती हैं, जहां गरीब और जरूरतमंद परिवारों की नाबालिग लड़कियों के परिवार को मोटी रकम चुकता कर ब्याहता बनाया जाता है। कुछ ही समय बाद उस खरीदी हुई लड़की को परिवार के सभी पुरुषों की दैहिक जरूरतों को पूरा करने का आदेश सुना दिया जाता है। उत्तराखंड, झारखंड, असम, ओडिशा के पिछड़े-गरीब इलाकों से लाई गई ये लड़कियां गुमनामी के साथ यौनदासी के तई प्रयोग की जा रही हैं। बेटे जन्मने को लेकर भारतीय समाज अभी भी उतना ही रुग्ण है, जितना पीढ़ियों पहले था। लिंग परीक्षण और गैर-कानूनी गर्भपातों पर लगाम कसी नहीं जा रही। गर्भ गिराने वाली सौ-सवा सौ रुपये वाली गोलियां गली के कैमिस्टों के पास खुलेआम उपलब्ध हैं। पिछड़े इलाकों में झोलाछाप डाक्टर 1500-2000 रुपये में पेट साफ करने का घिनौना धंधा करने में महारथी हैं। दाइयां और अप्रशिक्षित नर्से कन्या भ्रूण हत्या करके पैसा बटोरने से बाज नहीं आतीं। प्रचारों और कोरी भभकियों के भरोसे शहरी मध्यम वर्ग पर लगाम कसने वालों को अपने दायरे बढ़ाने होंगे। बेटों की चाहना पर गज भर लंबी जुबान चलाने वाले इर्द-गिर्द मौजूद हैं। बेटी को बोझ मानने वालों के अपने तर्क हैं। वे उन्हें आज भी पराया धन मानते हैं। बिटिया को पाल-पोस कर वर पक्ष को सुपुर्द करना सामाजिक/पारिवारिक दस्तूर है जबकि निचले तबके में पुत्र को आज भी बुढ़ापे की लाठी माना जाता है। पुत्र स्वर्ग की नसेनी बनने और वंश की डोर को आगे ले जाने का ठोस जरिया जो है।
विवाह की आड़ में स्त्री की खरीद-फरोख्त का यह अति गंभीर मसला है जिस पर इने-गिने एनजीओ को छोड़कर महिला आयोगों, संबंधित मंत्रालयों, सरकार या व्यवस्था के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही। स्थानीय पुलिस के लिए यह सामान्य सी बात है तो ग्रामीण इसे वक्ती जरूरत बता कर न्यायोचित ठहराने का ढोंग करते नजर आते हैं। इनमें से किसी में भी स्त्री की यौनदासता के प्रति किसी तरह की कोई संवेदनशीलता नहीं उमड़ती। ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब उत्तराखंड के 132 गांवों में मई-जून के दरम्यान एक भी कन्या न जन्मने की खबरें आई थीं जबकि इस दौरान वहां 200 पुत्र जन्मे। बेटोें के पीछे भागने वाले लोभियों और बेटियों की तौहीन करने वालों की मानसिकता को भोथरी बातों के भरोसे नहीं बदल सकते। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह बेहद गंभीर और खतरनाक मसला है। इसकी अनदेखी समाज भर के लिए गंभीर चुनौती साबित हो सकती है। खतरे को भांपने का अभी भी वक्त है।
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