सामयिक : कश्मीरियत से जिहाद तक
भारत विभाजन के दौरान पंजाब में सांप्रदायिक आधार पर खून-खराबे का दौर चल रहा था, तब उससे सटे कश्मीर घाटी इससे मुक्त थी।
सामयिक : कश्मीरियत से जिहाद तक |
1947 के अक्टूबर में जब कबीलाई हमलावरों को पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में भेजा, तब तक तत्कालीन महाराजा हरि सिंह श्रीनगर छोड़कर जा चुके थे। उस समय शेख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के स्वयंसेवक ही लोगों पर नजर रखे हुए थे। यह कार्य मुसलमानों के साथ हिन्दू और सिख कंधे से कंधे मिलाकर कर रहे थे। मुसलमानों की भारी आबादी के बीच वे बिना किसी भय के आ-जा रहे थे। यह कश्मीरियत थी। यह द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को तमाचा था, जिस पर इस्लामी पाकिस्तान की बुनियाद पड़ी थी।
इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय धार्मिंक कट्टरता या जिहाद के तत्व नहीं थे। जिन कबीलायियों ने घाटी पर हमला बोला था, वे जिहाद के नाम पर ही लूटमार कर रहे थे। इनके निशाने पर हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी थे। फिर भी पाकिस्तानियों की नजर में यह इस्लाम पर जुल्म ढाने वालों के खिलाफ जिहाद कर रहे थे। इस हमले के ठीक पहले अगस्त 1947 में मुस्लिम बहुल पुंछ में हरि सिंह के शासन के खिलाफ बगावत हो गई थी और विद्रोहियों ने कई जगहों पर पाकिस्तानी झंडे लहरा दिए थे। इनकी मदद करने के लिए मुस्लिम अधिकारियों एवं सिपाहियों ने सरकारी नौकरी तक छोड़ दी थी। शेख अब्दुल्ला भले ही पाकिस्तान के विरोधी रहे हों और घाटी के प्रगतिशील मुसलमानों का उन्हें समर्थन प्राप्त रहा हो, लेकिन अगर चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा के ‘भारत: गांधी के बाद’ में उद्धृत मशहूर पटकथा लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास की बात पर विश्वास किया जाए, तो कहा जा सकता है कि शेख के एक चौथाई समर्थकों के बराबर ही उनके विरोधी भी कश्मीर में मौजूद थे, जो पाकिस्तान की विचारधारा से पूरी तरह ग्रस्त थे। बाकी आधी आबादी अनिर्णय की स्थिति में थी। एक तरफ उनमें अब्दुल्ला की शख्सियत के प्रति आकषर्ण था तो दूसरी तरफ ‘इस्लाम खतरे में है’ का नारा उन्हें चिंतित कर देता था। ऐसे में यह सवाल है कि आज का कश्मीर 1947 की स्थिति में है या बदल गया है?
घाटी में कश्मीरियत की जो खुशबू वर्षो से फैली हुई थी, 1991 में लाखों हिन्दुओं के पलायन के बाद गायब हो गई। इसके लिए प्रथमत: अलगाववादी और वहां का राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार था। लेकिन नब्बे के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ रहे जिहादी आतंकियों ने जब वहां से मुक्त होने के बाद कश्मीर घाटी में प्रवेश किया, तो वहां का माहौल काफी जहरीला और विध्वंसक हो गया। ये अपने मन में एक विजेता का भाव लेकर आए थे, क्योंकि इन्हें लगता था कि इन्होंने एक महाशक्ति को नीचा दिखा दिया है। पूर्व रॉ अधिकारी आरएसएन सिंह बताते हैं कि इसी दौरान बिहार और उत्तर प्रदेश के मौलवियों ने काफी संख्या में वहां की मस्जिदों और मदरसों को अपना आधार बनाया। इन्होंने वहां के लोगों, खासकर युवाओं के मस्तिष्क और विचारों पर कब्जा जमा लिया, जिनमें से कई पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के छद्म सैनिक बन गए हैं। कश्मीर में करीब 7500 मस्जिद हैं। इनमें से करीब 2000 ऐसी मस्जिदें बताई जाती हैं, जो अहले हदिथ और देवबंद की हैं। पिछले तीन दशक में अहले हदिथ की मस्जिदों में दोगुनी वृद्धि हुई है। बताया जाता है कि अहले हदिथ इस्लाम की वहाबी विचारधारा से अनुप्राणित है, जिसके लिए खाड़ी देशों से धन आता है। इसने सऊदी अरब के मूल इस्लाम का विकास सुनिश्चित किया। नतीजतन, सूफी ब्रांड के मस्जिदों व मदरसों ने कश्मीर घाटी में अपना ऐतिहासिक प्रभाव खो दिया। स्वाभाविक था कि इस परिवेश में अलगाववादी आंदोलन को बढ़ावा मिलता और कश्मीरियत पर जिहाद हावी हो जाता। हालांकि कश्मीर घाटी में ऐसे तत्वों की संख्या ज्यादा नहीं है, लेकिन इनका प्रभाव अपेक्षाकृत ज्यादा है, 1947 से भी ज्यादा। सवाल उठता है कि इनसे कैसे निपटा जाए?
बहरहाल, कश्मीर भारत के लिए महज भूमि का टुकड़ा नहीं है बल्कि यहां उसकी धर्मनिरपेक्षता कसौटी पर है। अल्पसंख्यक हिन्दुओं को बलात भगा देना किसी भी दृष्टि से धर्मनिरपेक्ष नहीं माना जा सकता। धर्मनिरपेक्षता के हिमायतियोें ने भी कश्मीर के धर्मनिरपेक्षीकरण की कोशिश नहीं की। परिणामस्वरूप, वहां धार्मिंक कट्टरता बढ़ती गई। अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद कश्मीर को कश्मीरियत की पुरानी राह पर लाना एक चुनौती है। पहले ही कश्मीरियत का काफी नुकसान हो चुका है। इस जिहाद के खिलाफ सैन्य ही नहीं, वैचारिक लड़ाई की भी आवश्यकता है।
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