सामयिक : संदर्भों के अर्थ बदलने की राजनीति
कश्मीर के बारे में संविधान के अनुच्छेद 370 के उद्देश्य खत्म करने के फैसले के साथ प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने इस पर भी जोर दिया कि इस फैसले से डॉ. आम्बेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया का सपना पूरा हुआ।
सामयिक : संदर्भों के अर्थ बदलने की राजनीति |
इसके बाद बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भाजपा सरकार के 370 धारा संबंधी फैसले के साथ खड़ी हो गई। बसपा के बारे में माना जाता है कि वह डॉ. आम्बेडकर की राजनीतिक विरासत पर खड़ी संसदीय पार्टी है, और डॉ. लोहिया की विरासत पर जिंदा राजनीतिज्ञों ने अपनी-अपनी सुविधा से केंद्र सरकार के इस फैसले का समर्थन व विरोध चुन लिया क्योंकि डॉ. लोहिया की कश्मीर पर राय डॉ. आम्बेडकर की तरह स्पष्ट नहीं दिखती।
डॉ. लोहिया चाहते थे कि भारत-पाकिस्तान महासंघ बने जिसमें सीमाओं को मुक्त आवागमन के लिए खुला छोड़ा जा सके। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार जम्मू और लद्दाख के इलाके को भारत अपने साथ रखे और पूरे कश्मीर को पाकिस्तान को सौंपे या कश्मीरी जनता पर छोड़े कि वहां के लोग क्या चाहते हैं! यह पाकिस्तान और कश्मीर के मुसलमानों के बीच का मामला है। वह यह भी कहते हैं कि जनमत संग्रह कराना है तो सिर्फ कश्मीर में कराया जाए। भारतीय भाषाओं का जनमानस के बीच अधूरी बातों, मनगढ़ंत, भ्रामक, असत्य, गुमराह करने वाली, अस्पष्ट बातों के प्रचार के लिए सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया जाता है। यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ी है, जिसमें जनमानस के बीच स्वीकृत किसी राजनीतिक नेतृत्व की किसी संदर्भ में कही गई बातों को उनके संदर्भ, पृष्ठभूमि और उसके विचारों के साथ उनकी एकरूपता को छुपाकर आधी-अधूरी पंक्ति का अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया जाता है। अनुच्छेद 370 के प्रावधान के संदर्भ में डॉ. आम्बेडकर और डॉ. लोहिया के विचारों की प्रस्तुति भी इसका एक उदाहरण है।
कश्मीर के संदर्भ में अनुच्छेद 370 की संविधान में व्यवस्था को लेकर डॉ. आम्बेडकर की राय भिन्न हो सकती है, लेकिन वह उसके साथ कश्मीर के भारत के साथ रिश्ते को लेकर अपनी राय भी थी। मगर यदि इसमें केवल यह कहा जाए कि कश्मीर के लिए संविधान में अनुच्छेद 370 के लिए विरोधी थी, तो यह उनके विचारों को तोड़ मरोड़ कर पेश करना है। उनके कांग्रेस के दूसरे नेताओं के साथ 370 को लेकर विचारों में भिन्नता थी, किंतु वह हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना की राजनीति के पक्षधर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विचारों के साथ कतई एकरूप नहीं थे। वे हिन्दू राष्ट्र की राजनीति ही नहीं सांप्रदायिक राजनीति के विरोधी थे। दरअसल, फिलहाल मिक्ंिसग का काम चल रहा है। हिन्दुत्व की राजनीति अपने विस्तार के लिए उनको अपने साथ बताने की कोशिश कर रही है, जो बुनियादी रूप से उस विचारधारा के विरोधी रहे हैं। मसलन, दिल्ली विश्वविद्यालय के गेट पर हिन्दुत्ववादी राजनीति के पक्षधर वीर सावरकर की, भगत सिंह की और सुभाष चंद्र बोस की मूर्तियां एक साथ लगा दी गई, जबकि इनकी राजनीतिक वैचारिकी में बुनियादी फर्क देखा जाता है।
अंग्रेजी पत्रकारिता में देखा गया है कि वहां ऐतिहासिक संदर्भों को बिल्कुल उलट अंदाज में प्रस्तुत करना संभव नहीं होता। एक तथ्य की अलग-अलग व्याख्याएं हो सकती हैं, लेकिन तथ्य को ही तोड़-मरोड़ कर इस तरह पेश करने की कोशिश का मतलब होता है कि उसका अपनी तयशुदा व्याख्याओं के लिए इस्तेमाल किया जा सके। लोगों के बीच कम से कम तथ्य तो जाने चाहिए। यह बिना बताए कि डॉ. लोहिया और डॉ. आम्बेडकर का सपना क्या था, उनके सपने को पूरा कर देने का दावा कितना भ्रामक हो सकता है।
कश्मीर खास तौर से मुस्लिम बाहुल्य होने के कारण घाटी के लिए अनुच्छेद 370 की व्यवस्था का हिन्दुत्ववादी राजनीति विरोधी रही है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। वह इस अनुच्छेद को खत्म करने की भी मांग करती रही है। भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी इस अनुच्छेद को खत्म करने को लेकर चुनाव में भी हिस्सा लेती रही है। यह खुला सत्य है। भारतीय जनता पार्टी ने लोक सभा और राज्य सभा में अपने बहुमत के आधार पर इसे खत्म करने का फैसला भी कर लिया। अनुच्छेद 370 पिछले लोक सभा चुनाव में एक मुखर मुद्दे के रूप में नहीं था। जैसे भारतीय जनता पार्टी के 1996 से लेकर अब तक के चुनाव घोषणा पत्रों का अध्ययन करें तो अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाने का मुद्दा अपने स्वर बदलता रहा है। 2014 में 42 पृष्ठों के घोषणा पत्र में 41वें पृष्ठ पर राम मंदिर एक पंक्ति में रस्म अदायगी की गई तो 2019 के संकल्प पत्र में लिखा ‘राम मंदिर पर भाजपा अपना रुख दोहराती है। संविधान के दायरे में अयोध्या में शीघ्र राम मंदिर के निर्माण के लिए सभी संभावनाओं को तलाशा जाएगा और इसके लिए सभी आवश्यक प्रयास किए जाएंगे’। इसी तरह अनुच्छेद 370 के बारे में लिखा ‘हम जनसंघ के समय से अनुच्छेद 370 के बारे में अपने दृष्टिकोण को दोहराते हैं। 35-ए को ख़्ात्म करने के लिए प्रतिबद्ध हैं’। मगर यह भी सच है कि चुनाव प्रचार के दौरान 75 तरह के वादों में यह मुखर नहीं था।
वास्तव में अनुच्छेद 370 पर भारतीय जनता पार्टी को पहले के मुकाबले ज्यादा बहुमत मिला है, तो उसे अपने फैसले के लिए सबसे ज्यादा डॉ. भीमराव आम्बेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया की आड़ क्यों लेने की जरूरत पड़ रही है। क्या डॉ. आम्बेडकर और डॉ. लोहिया को मानने वाले लोगों में भ्रम पैदा करने के लिए ताकि वे केंद्र सरकार के इस फैसले पर अपनी ठोस राय नहीं बना सकें या हिन्दुत्व के कश्मीर एजेंडे के बहाने वैचारिकी मिक्ंिसग की जा रही है। क्या बहुजनों का प्रभावशाली हिस्सा आम्बेडकर और लोहिया की भक्ति की स्थिति में पहुंच गया है, और उनका नाम भर लेकर बहुजनों को किसी तरह के फैसले के पक्ष में किया जा सकता है? आम्बेडकर और लोहिया ने जो कुछ कहा, लिखा है, वह मौजूद है। कब क्या क्यों कहा इसे देखा जा सकता है। दोनों के विचार अपने-अपने तरीके से संपूर्णता में आते हैं। उनकी हर मुद्दे पर राय एक दूसरे से जुड़ी है। बहुजनों की तार्किक क्षमता को यह सुनाकर भोथरा नहीं किया जा सकता है कि सत्ता पक्ष ने डॉ. आम्बेडकर का नाम लिया और उसे बसपा ने दोहरा दिया तो वह कीर्तन हो गया। किसी राजनीतिक विचारक का कोई कथन 2019 के संदर्भों के साथ कितना महत्त्वपूर्ण है, इसके लिए समाज की अपनी तार्किक क्षमता दिखनी चाहिए। 370 की तरह दलितों व आदिवासियों के लिए संसदीय सुरक्षित क्षेत्र का प्रावधान भी संविधान में अस्थायी व्यवस्था मानी जाती है तो क्या इस तरह की तमाम व्यवस्थाओं को खत्म करने की जमीन तो तैयार नहीं हो रही है?
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