मीडिया : ये मेरा ‘हिंदिया’

Last Updated 15 Sep 2019 06:20:02 AM IST

जैसा हिन्दी दिवस इस बार मना वैसा कभी न मना। पहली बार वह खबर चैनलों में बड़ी खबर बना। यों, हर बरस चौदह सितम्बर को मनाया जाता ‘हिन्दी दिवस’ बिना किसी विवाद के गुजर जाता था।


मीडिया : ये मेरा ‘हिंदिया’

लेकिन इस बार के हिन्दी दिवस पर गृहमंत्री अमित शाह के एक रस्मी ट्वीट ने उनके राजनीतिक विरोधियों के कान खड़े कर दिए और उनकी राजनीति को पीटने के चक्कर में बेचारी हिन्दी की भी धुलाई हो गई। मगर एक मानी में जो हुआ अच्छा ही हुआ! जो जितना विवाद में रहता है उतना ही आगे बढ़ता है। हिन्दी भाषा विवादों से ही आगे बढ़ी है। इसके लिए हमें हिन्दी के ऐसे निंदकों का आभार मानना चाहिए, जिन्होंने हिंदी को अपनी निंदा के काबिल समझा यानी उसे अपने लिए खतरनाक समझा और धुनने लगे।
  अमित शाह गृहमंत्री हैं। हिन्दी दिवस पर रस्म अदायगी के रूप में उन्होंने ट्वीट कर सिर्फ इतना कहा कि भारत विभिन्न भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्त्व है परंतु पूरे देश की एक भाषा होना अत्यंत आवश्यक है, जो विश्व में भारत की पहचान बने। आज देश को एकता की डोर में बांधे का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है तो वह सर्वाधिक बोली जाने वाली हिन्दी ही कर सकती है। इतने पर ही हंगामा हो गया। हिन्दी हर खबर चैनल पर विवाद का विषय बन गई। असदुद्दीन ओवैसी ने जवाब में ट्वीट किया कि भारत हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुत्व से बड़ा है। फिर डीएमके के स्टालिन ने ट्वीट किया कि यह ‘इंडिया’ है, ‘हिंदिया’ नहीं है।

यों अमित शाह ने ऐसा कुछ न कहा जो अब तक न कहा गया हो किंतु इस पर हुई प्रतिक्रिया एकदम नये किस्म की रही। इन हिन्दी विरोधियों ने हिन्दी को अमित शाह का पर्याय समझ लिया और फिर उसे हिन्दू/हिन्दुत्व का पर्याय समझ कर पीटने लगे। सवाल यह उठता है कि क्या हिन्दी अमित शाह का पर्याय है? और, क्या हिन्दी को आज सिर्फ हिन्दुओं की भाषा कहा जा सकता है? जी नहीं! सचाई यह है कि हिन्दी कभी भी किसी एक विशेष धर्मिक या जातिगत समुदाय या वर्ग विशेष की भाषा नहीं रही। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ गवाह है कि भाषा का सांप्रदायिक विभाजन करने वाले  वाले पहले व्यक्ति रहे फ्रांसीसी इतिहासकार ‘गार्सा द तासी’ जिन्होंने हिन्दी को हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताया। हिन्दी-उर्दू के बीच ‘मुकदमा’ भी चला। प्रताप नारायण मिश्र ने ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ जैसी कविता लिखी, जो हिन्दी को संकीर्णता में बांधती थी परंतु ऐसी संकीर्णता को हिन्दी ने कभी स्वीकार नहीं किया और आज तो वह न केवल अखिल भारतीय भाषा है बल्कि विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली, तीसरे नंबर की भाषा है। तब भी अगर कुछ नेता उसे किसी एक समुदाय का पर्याय समझते हैं तो उनके अज्ञान का क्या उपचार है?
आज हिंदी धुर पूरब से पश्चिम और उत्तर से धुर दक्षिण तक लेकर बोली बरती जाती है। नये आंकड़े बताते हैं कि जिस तमिलनाडु के नेता हिन्दी को फूटी आंख नहीं देख पाते, उसी में हिन्दी पढ़ने-समझने वालों की संख्या इन दिनों तेजी से बढ़ रही है। दक्षिणी राज्यों  के लाखों युवा हिन्दी पढ़ रहे हैं। वहां के नेता हिन्दी को तमिल भाषा का लाख दुश्मन समझें, लेकिन गरीब तमिल जनता अच्छी तरह समझने लगी है कि गरीब युवाओं को सिर्फ तमिलनाडु में तो नौकरियां मिलने से रहीं और अगर उत्तर भारत में नौकरी लेनी है तो हिन्दी जरूरी है। अब स्टालिन हिन्दी का कितना विरोध करें, उनके नीचे की जनता जान गई है कि उसका भविष्य अगर है तो हिन्दी में है। इसी कारण आज वो ज्यादा संख्या में हिन्दी सीख रही है।
अकेले दिल्ली को ही देखें। दिल्ली एक बड़ा हिन्दी भाषी राज्य है। उसमें अरसे से हजारों निम्नवर्गीय तमिल नौजवान और स्त्रियां कार धोने से लेकर घरों में झाडू-पोछा लगाने और बर्तन धोने का काम करते हैं और इतनी हिन्दी सीख गए हैं कि अब तमिलनाडु  लौटकर वे गरीब तमिलों को हिन्दी सिखाते हैं। तमिल नेता जरूर उनको हिन्दी का डर दिखाते रहें लेकिन तमिल की नई पीढ़ी अपना भविष्य हिन्दी में देखती है। इसीलिए हिन्दी का नाम आते ही उनके नेताओं को मिरची लग जाती है। मगर हमें इस बार स्टालिन का आभारी होना चाहिए, जिन्होंने ‘यह ‘इंडिया’ है हिंदिया नहीं’ कहते-कहते  ‘हिन्दी’ को एक नितांत नया नाम दे दिया: ‘हिंदिया’!‘हिंदिया’ यानी हिंदी बोलने बरतने वाली अखिल भारतीय हिंदी बोलने बरतने वाली जनता यानी ‘हिंदिया’! अगर आज हिंदी ‘हिंदिया’ हुई तो कल इस ‘हिंदिया’ को ‘इंडिया’ होने में कितनी देर लगेगी? इसलिए हम तो स्टालिन का आभार व्यक्त करेंगे कि हमें इसी तरह ठोकते रहें ताकि हम ‘हिंदिया’ होते रहें।

सुधीश पचौरी


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