अमेरिका सिर्फ थका भी है या..

Last Updated 15 Sep 2019 06:17:52 AM IST

बीते रविवार यानी 8 सितम्बर को तालिबान नेताओं, अफगान राष्ट्रपति और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच कैम्प डेविड में एक वार्ता होनी थी, जिसे ट्रंप ने रद्द कर दिया।


अमेरिका सिर्फ थका भी है या..

उनके अनुसार इसके पीछे मुख्य वजह काबुल में तालिबान द्वारा किए गए कार बम धमाके हैं, जिनमें अमेरिकी सैनिक समेत अनेक लोगों की मौत हो गई थी। तालिबान नेताओं के कैम्प डेविड पहुंचने से पहले अफगानिस्तान के लिए विशेष अमेरिकी राजदूत जल्मे खलीलजाद तालिबान के साथ सैद्धांतिक तौर पर एक शांति समझौता होने की घोषणा कर चुके थे। प्रस्तावित समझौते के अनुसार अमेरिका अगले 20 सप्ताह के भीतर अफगानिस्तान से अपने 5400 सैनिकों को वापस लेने वाला था। बदले में तालिबान नेताओं द्वारा गारंटी दी जानी थी कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले के लिए नहीं किया जाएगा।
खास बात यह है कि तालिबान जिस दौर में अफगान सरकार से बातचीत करने से यह कहते हुए इनकार करते रहे कि अफगान सरकार अमेरिका की कठपुतली है। उसी दौर में अमेरिका और तालिबान के बीच कतर में नौ दौर की शांति वार्ता हुई। आखिर क्यों? क्या अमेरिका अभी भी कोई गेम खेल रहा है? अमेरिकी इतिहास में शायद अफगान युद्ध सबसे लंबा युद्ध है। खास बात यह कि जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है तालिबान और मजबूती हासिल करता जा रहा है। काबुल के दक्षिण में रणनीतिक तौर पर अहम माने जाने वाले गजनी प्रांत की राजधानी में तालिबानी दखल है। फराह प्रांत की राजधानी पर भी उनका प्रभाव है।

हेलमंड और कंधार प्रांत के बड़े हिस्से तालिबान के नियंत्रण में हैं। गौरतलब है कि तालिबान को सिंगल मैकेनिज्म आधारित आतंकी संगठन मानकर नहीं चलना चाहिए। अफगानिस्तान के अन्य आतंकी संगठनों के साथ इनकी बॉण्डिंग है। जैसे-हक्कानी नेटवर्क जो पाकिस्तान के वजीरिस्तान ट्राइबल फ्रंटियर से संचालित हो रहा है और तालिबान का विशेष सहयोगी है। ऐसे ही कुछ और समूह भी हैं, जो तालिबान को ताकत प्रदान कर रहे हैं। इस पूरे दौर में पाकिस्तान एक तरफ अमेरिका का सिपहसालार बना रहा लेकिन तालिबान को भी मजबूत करने में उसने निर्णायक भूमिका निभाई। इसी वजह से तालिबान अंतरराष्ट्रीय सेना को नुकसान पहुंचाने में सफल हुए। फलत: 2014 से अब तक अफगान सुरक्षा बलों के करीब 45000 सदस्य मारे गए और  2001 के बाद से अब तक अंतरराष्ट्रीय सेना के करीब 3500 सदस्य मारे जा चुके हैं, जिनमें 2300 अमेरिकी सैनिक हैं। लगता है कि 5.9 ट्रिलियन डॉलर खर्च करने और 2300 सैनिकों की जान गवांने वाला अमेरिका अब आत्मसमर्पण की मुद्रा में है। लेकिन वह यह भी नहीं चाहता कि दुनिया इसे उसकी नि:शक्तता के रूप में देखे।
दूसरी तरफ ट्रंप नवम्बर, 2020 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले अमेरिकी नागरिकों के सामने अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करना चाहते हैं, जिसमें अफगानिस्तान वाला चैप्टर क्लीन दिखे। फलत: अमेरिका दो कदम आगे बढ़ाता है, और चार कदम पीछे हट जाता है। अमेरिकी विदेश नीति और सुरक्षा संबंधी मामलों में अमेरिका की अनिश्चिता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन के इस्तीफे के बाद और स्पष्ट हो गई है। यह बात भी सामने आ रही है कि बोल्टन शायद यह नहीं चाहते थे कि 11 सितम्बर के ठीक पहले कैम्प डेविड में तालिबान को बुलाकर गलत परंपरा का संदेश दिया जाए। इसी वजह से ट्रंप उनसे नाराज हुए और इस्तीफा देने को कह दिया। पर अब संदेश जा चुका है-दुनिया को और तालिबान को भी।
आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक लड़ाई का यह सबसे कमजोर पक्ष है। जो भी हो, लेकिन इसे देखते हुए मुल्ला उमर के गुरु रहे आमिर सुल्तान तरार उर्फ कर्नल इमाम की वह बात सही सिद्ध होती दिख रही है जिसमें उसने कहा था कि तालिबान को हरा पाना नामुमकिन जैसा है। वे कभी नहीं थकेंगे क्योंकि उन्हें लड़ने की आदत है। अमेरिका को हरा नहीं सकते लेकिन थका सकते हैं परंतु यहां पर तो ये दोनों पहलू एक साथ दिख रहे हैं यानी अमेरिका थका भी लग रहा है और हारा हुआ भी।

रहीस सिंह


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