फिर चाहिए गांधी
गांधी ने जिस देश को भयमुक्त किया था, वह आज फिर भयग्रस्त मानसिकता का बंदी है। यह भय बहुत-सी काल्पनिक आशंकाएं पैदा करता है।
फिर चाहिए गांधी |
आशंकाएं हमें कायर और क्रूर एक साथ बनाती हैं। वे भयग्रस्त कायर लोग हैं, जो कभी बच्चाचोर मानकर, कभी गोहत्यारा मानकर किसी निरीह-निर्दोष नागरिक के साथ क्रूरता का बर्ताव करते हैं। गांधी जिस भय से लोगों को मुक्त कर रहे थे, वह 1919-20 में डेढ़ सौ साल के अंग्रेजी दमन से बद्धमूल हुआ था। सौ साल बाद आज हमारा समाज जिस भय से ग्रस्त है, वह राजनीति द्वारा सधे हुए मनोवैज्ञानिक युद्ध की रणनीति से पैदा किया गया है-देश की असुरक्षा का भय, समाज में फैले गद्दारों का भय, और इसके लिए अपने ही समाज के एक हिस्से को शत्रु की तरह प्रचारित किया गया है।
गांधी ने लोगों को भयमुक्त करते हुए बड़े-बड़े आंदोलनों का सूत्रपात किया था, इसके लिए ‘खादी’ के रूप में राष्ट्रीयता का और ‘चरखा’ के रूप में स्वदेशी का प्रतीक निर्मिंत किया था; लेकिन आज बिल्कुल भिन्न उद्देश्य से आंदोलनों का उपयोग करके ‘आस्था’ और ‘शत्रु’ के प्रतीक निर्मिंत किए गए हैं-मंदिर और मुसलमान। गांधी की वैष्णव आस्था ‘पीड़ पराई’ से परिभाषित होती थी, आज ‘हिंदुत्व’ की आस्था परपीड़न में व्यक्त होती है। इसलिए एक का परिणाम समाज को जाग्रत करना था, दूसरे का उत्तेजित करना। अलग बहस है कि ‘आस्था’ का लोगों के वास्तविक जीवन से संबंध है या नहीं; उनकी हजारों वर्षो की जीवन-पद्धति और विश्वास प्रणाली से उसका संबंध है या नहीं; इससे हमारे विशाल देश की सांस्कृतिक और धार्मिंक विविधता की बलि तो नहीं चढ़ रही है?
गांधी ने स्वाधीनता के स्वप्न को लोगों के जीवन का यथार्थ बना दिया था, जिसके लिए सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार थे। हम अपने समय में जिन कल्पनाओं को आस्था का विषय मान बैठे हैं, उनका न सामाजिक समस्याओं से लेना-देना है, न मानवीय मूल्यों से। संयोग नहीं है कि इस समय गांधी के हत्यारे को गौरवमंडित किया जाता है। हम देखते हैं कि गांधी के प्रभाव से लोग आत्मबलिदान के लिए तैयार होते थे, किसी की हत्या के लिए नहीं; लेकिन गांधी के हत्यारे के महिमामंडन के समय हम दूसरे की हत्या को वीरता मानते हैं, आत्मबलिदान को कायरता। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के समय एक पठान ने गांधी को लिखा था कि अपने स्वभाव के विपरीत निर्दय पिटाई के बावजूद हमने हाथ नहीं उठाया, आपका यही आदेश है न! गांधी का कहना था, युद्ध से युद्ध को, हिंसा से हिंसा को और भय से भय को नहीं मिटाया जा सकता। इसीलिए वे प्रतिशोध नहीं, प्रतिरोध को रणनीति बनाते थे। प्रतिरोध का लक्ष्य विरोधी को परस्त करना नहीं, परिष्कृत करना था। दूसरों को हम तभी परिष्कृत कर सकते हैं, जब स्वयं उन दोषों से मुक्त हों। इसलिए उनकी हर कार्रवाई एक सिरे पर समाज या व्यक्तित्व के सुधार से जुड़ी होती थी, दूसरे सिरे पर सार्वजनिक जीवन से। गांधी कहते थे कि अंग्रेज व्यावसायिक स्वाथरे के कारण भारत को गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने दमन और आतंक से भारतवासियों को भयभीत किया था। हमारे वर्तमान ‘आस्था’ जैसी पवित्र चीज को अपने ही समाज के एक अंग के प्रति आक्रामक बनाकर घृणा के जरिए भय उत्पन्न कर रहे हैं।
गांधी को विदेशी सत्ता के विरुद्ध पूरे भारतीय जनमानस को एकजुट करना था, इसलिए उन्हीं मुद्दों को चुनते थे, जो जनता के हितों से सरोकार रखते थे। वर्तमान शासकों को सत्ता में रहने के लिए समाज के एक हिस्से का समर्थन चाहिए, इसलिए वे समाज के एक हिस्से को ‘गौरव’ से उकसाते हैं, दूसरे को ‘शत्रु’ के रूप में चित्रित करके ध्रुवीकरण करते हैं। संभव है, गांधी ‘चतुर बनिया’ रहे हों पर यह एक कुटिल रणनीति है। गांधी जब भय का प्रतिकार करते थे तो लोग न आपस में डरते थे, न शासन से डरते थे, न खुद गांधी से डरते थे। लेकिन आज जिस हिस्से के ‘गौरव’ को उकसाया जाता है, वह कम भयभीत नहीं है। रोजगार, महंगाई, असुरक्षा और अनिश्चित भविष्य को लेकर वह जिन दु:शंकाओं में फंसा है, वे समाधान न पाकर काल्पनिक छायाएं उत्पन्न करती हैं। इन दु:शंकाओं को मोड़कर एक काल्पनिक शत्रु के खिलाफ सक्रिय करने का काम एक पूरी व्यवस्था करती है, पूंजी-मीडिया-राजनीति की संगाहित प्रणाली। भय को एक समुदाय की ओर मोड़कर नफरत का संचार करना आसान हो जाता है, इस नफरत से भरे लोगों को गर्व की अनुभूति कराई जाती है। ‘गर्व से कहो..’ जैसे नारे अभी याद होंगे। गांधी जिन पूर्वाग्रहों से लड़ रहे थे, उन्हीं पूर्वाग्रहों को पुनर्स्थापित करने की वर्तमान प्रक्रिया इतिहास की प्रगति का सूचक नहीं हो सकती। याद करें, मैरिट्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर गाड़ी से उतारे जाने के बाद वहां रात भर बैठे गांधी ने गोरों में जड़ीभूत उन नस्लवादी संस्कारों को निर्मूल करने का संकल्प लिया था। आज उस तरह के मृत संस्कारों को उससे भी प्रबल पूर्वाग्रहों के साथ जनमानस में बिठाने का अभियान चलाया जाता है।
इस अभियान में राजनीति, संचार माध्यम, दिन-रात प्रचार में जुटे भाड़े के टट्टू, सब शामिल हैं। वास्तव में यह समाज के विरु द्ध निहित स्वाथरे का युद्ध है। गांधी ने पूर्वाग्रहों से लड़ने के लिए सत्याग्रह का तरीका अपनाया था। सत्याग्रही के लिए विरोधी भी शत्रु नहीं होता। उसका उद्देश्य ही रचनात्मक है-अपना और दूसरे का परिष्कार। संयोग नहीं है कि जिस तरह की आत्मसाधना और समाज-सुधार का सामंजस्य भक्त कवियों में दिखाई देता है, उसी का पुनराविष्कार आधुनिक संदर्भ में गांधी ने किया। पूर्वाग्रहों को उकसाने की जो राजनीति आज की जाती है, उसमें आसपास के लोग भी शत्रु मान लिये जाते हैं।
अजनबियों की कौन कहे! भय के कारण कहीं और विद्यमान हैं, लेकिन उन्हें पृष्ठभूमि में करके आसपास शत्रु के होने का भय लोगों में असुरक्षा की भावना जगाता है। ऐसा मनोविज्ञान आदमी में छिपी क्रूरता को सक्रिय कर देता है। ऐसी एक कार्रवाई व्यापक भय का वातावरण बनाती है, ‘शत्रु’ को भयभीत करती है। नहीं सोचा जाता कि जैसे हमारा भय क्रूर बनाता है, वैसे ही यदि भयभीत समुदाय का भी रूपांतरण प्रतिहिंसा में हुआ, तब? गांधी सही कहते थे, हिंसा से हिंसा उपजती है, क्रूरता से क्रूरता। ‘आस्था’ वाले यह बात न सोचें, इसके लिए अस्मिता या ब्रांड की रणनीति द्वारा एक आख्यान तैयार किया जाता है, जो आसानी से जगह बना ले। गांधी का आख्यान इसके विपरीत था। समाज को विखंडित करने वाला नहीं, उसे एकताबद्ध करने वाला था। मानवीय प्रेरणा और आत्मिक शक्ति का आख्यान। इसलिए आज गांधी फिर जरूरी हो गए हैं। शायद पहले से अधिक।
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