कोर्ट परिसर : बुनियादी सुविधाएं नाकाफी

Last Updated 12 Sep 2019 12:38:56 AM IST

राष्ट्रीय न्यायालय प्रबंधन प्रणाली समिति (एनसीएमएससी) के हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक देश के 15 राज्यों की जिला अदालतों में बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है, और मुकदमे की सुनवाई के लिए आने वाले लोगों के लिए बैठने की जगह और परिसर में कहां क्या है, यह बताने वाले संकेतकों तक की कमी है।


कोर्ट परिसर : बुनियादी सुविधाएं नाकाफी

समिति ने देश की 665 जिला अदालतों का सर्वेक्षण किया, जिसमें पाया गया कि देश की ज्यादातर अदालत परिसरों में शौचालय जैसी आवश्यक बुनियादी सुविधाओं तक का भी अभाव है।
यह सर्वेक्षण अदालतों में सबसे बढ़िया सुविधाएं और कमी जानने के लिए किया गया था, जिसमें 90 फीसद सुविधा के साथ दिल्ली शीर्ष पर है, वहीं 26 प्रतिशत सुविधा के साथ बिहार सबसे निचले पायदान पर है। इतना ही नहीं आलम यह है कि इन जिला अदालतों में 6000 से ज्यादा न्ययाधीशों के पद रिक्त हैं। ऐसे समय में जब देश की जिला अदालतें न्यायाधीशों की कमी से जूझ रही हों उसी समय उन्हें बुनियादी सुविधाओं की कमी से भी दो-चार होना पड़े तो हालात ज्यादा भयावह हो जाते हैं। इससे न्यायिक प्रक्रियाओं में बाधा पहुंचती है। लोगों को न्याय मिलने में देरी होती है। सतही तौर पर देखने से भले ही बुनियादी सुविधाओं का अदालती कार्रवाई से कोई सीधा संबंध प्रतीत नहीं होता हो लेकिन इनके बीच गहरा अंतरसंबंध होता है।

विशेषकर तब जब इस सर्वेक्षण से पता चले कि अदालत परिसर में अदालतें चलाने के लिए पर्याप्त कमरे तक उपलब्ध नहीं हैं, और न ही न्यायाधीशों के रहने के लिए पर्याप्त घर। मुंबई में 2248 न्यायाधीशों के लिए जहां केवल 1763 कोर्ट रूम हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में भी 885 कोर्ट रूम कम हैं। ऐसे में कहना कि इन बुनियादी सुविधाओं की कमी की वजह से न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित नहीं होती है, कहीं से भी सही प्रतीत नहीं होता। निश्चित रूप से कोर्ट रूम की कमी के कारण समय पर मुकदमों की सुनवाई नहीं हो पाती और फिर न्याय मिलने में देरी हो जाती है। न्याय मिलने में देरी अन्याय ही होता है। न्याय पाने के लिए लोगों को सालों-साल अदालतों के चक्कर काटने पड़ते हैं, और ऐसे में उनका काफी वक्त जाया होता है। जिला अदालतों में ऐसी स्थिति तब है, जब इनमें 2.8 करोड़ मामले लंबित हैं।
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने गुवाहाटी में हाल में एक कार्यक्रम के दौरान अदालतों में मामलों के लंबित रहने पर चिंता व्यक्त की है। प्रधान न्यायाधीश के मुताबिक, हालात ये हैं कि भारत में एक हजार से अधिक मामले 50 साल से और दो लाख से अधिक मामले 25 साल से लंबित हैं, जबकि करीब 90 लाख लंबित दीवानी मामलों में से 20 लाख से अधिक ऐेसे हैं, जिनमें सम्मन तक तामील नहीं हुआ है। अदालतों में 25 साल से पुराने मामलों की संख्या दो लाख से अधिक और एक हजार से अधिक मामलों का निपटारा 50 साल बाद भी ना हो तो स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। ऐसे में बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव हो तो न्यायिक प्रक्रिया की रफ्तार सुस्त हो जाती है। इतना ही नहीं, सर्वेक्षण में शामिल इन 665 जिला अदालतों में से आधे से ज्यादा अदालत परिसरों में शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं तक का भी अभाव मिले तो बाकी सुविधाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है। शौचालय नहीं रहने से अदालत परिसर में आने वाले लोगों खासकर महिलाओं को विशेष तकलीफ झेलनी पड़ती है।
अध्ययन में शामिल नौ मानकों में अदालत में आने-जाने की सुविधा, कोर्ट परिसर के अंदर दिशा सूचक, प्रतीक्षालय, स्वच्छता, बैरियर मुक्त प्रवेश, सुने जा रहे मामलों में डिस्प्ले की सुविधा, अदालत परिसर में मौजूद बुनियादी सुविधाएं, सुरक्षा और अदालत की वेबसाइट आदि में कमी की स्थिति देखी गई। अदालत जैसे सरकारी एवं सार्वजनिक स्थलों पर निश्चित रूप से बुनियादी सुविधाएं तो होनी ही चाहिए। अदालत के फैसले का लोगों के जीवन पर काफी प्रभाव पड़ता है, और यह एक अहम मोड़ साबित होता है। अध्ययन समिति का गठन वर्ष 2012 में भारत के प्रधान न्यायाधीश और कानून मंत्रालय ने किया था।
अध्ययन समिति को अदालतों में आवश्यक बुनियादी सुविधाओं की कमी का आकलन करने की जिम्मेदारी दी गई थी। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए सरकार और संबंधित विभाग और न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी तमाम संबंद्ध संस्थानों को इस दिशा में सोचना चाहिए और अदालत आने वाले लोगों के समक्ष बुनियादी सुविधाओं को लेकर होने वाली असुविधाओं के समाधान के लिए तत्काल प्रयास किया जाना चाहिए। इससे न्यायिक प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाने में गति मिलेगी और लोगों को जल्द न्याय भी मिल सकेगा। यही वक्त का तकाजा भी है।

चंदन कुमार चौधरी


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