पाक की करारी शिकस्त

Last Updated 08 Sep 2019 07:07:38 AM IST

जम्मू-कश्मीर राज्य की ‘विशेष स्थिति’ को आरक्षण प्रदान करने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 एव 35-ए को बेअसर करने वाले सरकार के फैसले ने पाकिस्तान को बुरी तरह विचलित और अस्थिर कर दिया है।


पाक की करारी शिकस्त

सरहद पार से आतंकवाद का निर्यात कर राज्य में अलगाववादी असंतोष भड़काने की जो साजिश वह दशकों से रच रहा है, वह अचानक ध्वस्त हो गई।
आजादी का नारा बुलंद करने वाले पाकिस्तान के पिट्ठू, भाड़े के टट्टुओं ने कभी यह कल्पना नहीं की थी, उन्हें ऐसा मुंहतोड़ जवाब मिलेगा। खास दरजा तो समाप्त हुआ ही राज्य का विभाजन भी कर दिया गया और उसकी पदावनति भी केंद्रशासित इकाई के रूप में कर दी गई। इससे तिलमिलाए असंतुष्ट अराजक तत्व अब यह लांछन लगा रहे हैं कि घाटी में मानवाधिकारों का निर्मम हनन हो रहा है, भारतीय सेना बर्बर बलप्रदर्शन कर रही है, लगातार कफ्र्यू के कारण आम आदमी का जीवन दूभर हो गया है। इनके आका पाकिस्तान ने यह मुहिम छेड़ी है कि विवाद का अंतरराष्ट्रीयकरण हो जाए और संकट समाधान के लिए मध्यस्थता के बहाने बाहरी हस्तक्षेप को भी आमंत्रित किया है। भारत ने बदलाव से पैदा सामरिक और राजनयिक चुनौतियों का सामना बखूबी किया है।

ट्रंप कब क्या कहेंगे, कैसी कलाबाजी खाएंगे, कहना कठिन है पर अब तक उनके वक्तव्यों ने इस विवाद को उभयपक्षी ही माना है और यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें यह विश्वास है कि कश्मीर में स्थिति भारतीय प्रधानमंत्री के नियंत्रण में है। चीन ने भले ही पाकिस्तान की सामरिक उपयोगिता को देखते सुरक्षा परिषद के सदस्यों के बीच उसके पक्ष में एक अनौपचारिक सुनवाई का प्रयास किया पर वह सिली आतिशबाजी जैसा ही रहा। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस्लामी देशों ने भी पाकिस्तान को शह नहीं दी।
पिछले दिनों मोदी सरकार का प्रयास सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के देशों से आत्मीयता बढ़ाने का रहा है। इसी का नतीजा है कि पाकिस्तान के स्वाभाविक मित्र समझे जाने वाले संयुक्त अरब अमीरात ने पाकिस्तान को यही सदाशयी सलाह दी है कि वह कश्मीर का लालच छोड़े। यूरोपीय समुदाय के प्रमुख सदस्यों के अलावा संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग के सदस्यों में पूर्वी यूरोप के देशों का समर्थन हमें प्राप्त है।
यह सुझाना तर्कसंगत है कि हर राजनयिक मोर्चे पर पाकिस्तान को करारी शिकस्त का मुंह देखना पड़ा है। इसे निश्चय भारत की उपलब्धि माना जाना चाहिए परंतु यह समय निश्चिंत अपने को निरापद समझ  बैठे रहने का नहीं। पाकिस्तान की पीठ पर चीन का वरदहस्त है। अमेरिका के लिए भी अफगानिस्तान में युद्ध विराम/शांति की बहाली के लिए, तालिबानों के साथ विसनीय समझौता होने तक उसकी उपयोगिता बरकरार रहेगी। इमरान खान को उनके बयानों के लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा। असली सत्ता फौज और खुफिया एजेंसियों के हाथ में है। राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए इमरान के लिए सीना ठोकते रहना और परमाणविक युद्ध की धौंस धमकी देना मजबूरी है। संवाद की पेशकश करते हुए भी वह कोई ऐसा करार नहीं कर सकते, जो फौजी हुक्मरानों के न्यस्त स्वाथरे के प्रतिकूल हो। पाकिस्तान की फौज का सबसे बड़ा स्वार्थ बाहरी आक्रमण या भारत के साथ युद्ध के खतरे का शोर मचा सैनिक खर्च में बढोतरी है।
पुलवामा के बाद सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी उनकी हजार प्रहार वाले संग्राम की रणनीति में अंतर नहीं आया है। पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भले ही अलग-थलग पड़ गया हो, वह आज भी भारत को अस्थिर करने के लिए दहशतगर्दी को अंजाम देने की स्थिति में है। भारत को निरंतर इस बात के लिए सतर्क रहना पड़ेगा कि वह अफगानिस्तान में अस्थिरता, अराजकता का लाभ न उठा सके।
साथ ही हमें इस बाबत भी सतर्क रहना होगा कि कश्मीर की घाटी में जनजीवन यथाशीघ्र सामान्य हो सके ताकि पाकिस्तान को भारत विरोधी दुष्प्रचार का कोई ऐसा अवसर न मिले, जिससे भारतीय राजनय की अभूतपूर्व उपलब्धियां निष्प्रभावी हों।

पुष्पेश पंत


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