संविधान के तीन शब्द : लोग, नागरिक और व्यक्ति

Last Updated 15 Aug 2019 06:29:04 AM IST

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए और उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए और उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।


संविधान के तीन शब्द : लोग, नागरिक और व्यक्ति

संविधान सभा में 26 नवम्बर 1949 को भारत के लोगों द्वारा किया गया यह समझौता है। संविधान की किसी धारा व अनुच्छेद की व्याख्या भारत के समस्त समुदायों, संस्कृतियों व सूबों के बीच किए गए इन पचहत्तर शब्दों के साथ ही करने की उम्मीद करनी चाहिए।
सामान्यत: संविधान के प्रावधानों से पहले इन वाक्यों को संविधान की भूमिका, संविधान की उद्देशिका, संविधान की प्रस्तावना आदि कहते हैं। दरअसल, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद के कारण इन शब्दों में विविधता है। अंग्रेजी में इसे प्रीएम्बल कहा जाता है। इस प्रस्तावना की समीक्षा कई स्तरों पर की जा सकती है। मगर यहां जोर केवल तीन शब्दों पर है जिन्हें अपने उद्देश्यों को हासिल करना है। ये शब्द लोग, नागरिक और व्यक्ति हैं। हम आमतौर पर इन शब्दों को एक मान लेते हैं। लेकिन हर शब्द के राजनीतिक निहितार्थ हैं। जब इस प्रस्तावना में भारत के हम लोग कहते हैं तो अर्थ यह होता है कि हम इस संविधान को स्वीकार करने से पूर्व एक भिन्न स्थिति में थे। प्रस्तावना में जो लोग खुद को हम कह रहे हैं; इसका मतलब यह होता है कि हम बनने की एक पृष्ठभूमि है। वह पृष्ठभूमि ब्रिटिश शासकों की गुलामी के विरुद्ध आंदोलन की पूरी प्रक्रिया को मान सकते हैं।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन का यह उद्देश्य था कि भारत के वे लोग उनकी गुलामी से मुक्ति चाहते हैं, जिनकी उनकी गुलामी के खिलाफ चेतना विकसित हुई है। यह सब एक हम के रूप में संगठित होने की प्रक्रिया भी रही है। यानी हम एक संगठित होने की एक प्रक्रिया को सामने लाती है। प्रस्तावना में इसी हम ने अपनी पहचान लोगों के रूप में की है। लोग अपने लक्ष्यों को संगठित रूप में प्राप्त करने के लिए यह शपथ ले रहे हैं कि वे अपने गणराज्य को कैसा बनाना चाहते हैं। भारत के ये लोग जब गणराज्य बनाने की बात कर रहे हैं तो  इसका अर्थ यह होता है कि वे भारत को राष्ट्र बनाने की सीमाओं को अपने लिए उपयुक्त नहीं मानते हैं। जब हम ‘भारत के लोग’ कह रहे थे तो इसका अर्थ यह स्पष्ट है कि आपस में मिलकर जो एक साथ कर सकते हैं या करना चाहिए उसकी योजना जाहिर कर रहे हैं। प्रस्तावना का पहला हिस्सा लोगों द्वारा एक भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का है। इसके बाद उसका दूसरा हिस्सा शुरू होता है। वह यह कि वह लोग नागरिक बन रहे हैं।
राजतंत्र में प्रजा होती थी। इसीलिए ब्रिटिश राज में भी हम लोग प्रजा ही थे क्योंकि ब्रिटिश राज का नेतृत्व राजशाही करती रही है। जब लोग नागरिक बनने की शपथ ले रहे थे तो इसका अर्थ यह है कि वह अपने लिये एक समान उद्देश्यों को निर्धारित कर रहे हैं। इसीलिए भारत के लोग गणराज्य बनाने के उद्देश्य को इस रूप में देखते हैं कि उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए। यानी लोगों को नागरिक के रूप में न्याय और स्वतंत्रता के साथ प्रतिष्ठा या सम्मान और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए गणराज्य बनाने का संकल्प ले रहे हैं। हर गणराज्य और राष्ट्र की नागरिकता अलग-अलग होती है। गणराज्य और राष्ट्र अपने संविधान के जरिये अपने नागरिकों के लिए अधिकार व कर्तव्यों को निर्धारित करता है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि किसी भी राष्ट्र और गणराज्य के नागरिकों का यह दायित्व बनता है कि वह नागरिकों के अधिकार व कर्तव्यों को सुनिश्चित रखने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को बनाए रखें।
भारत के लोगों का भारत के नागरिक बनने के बीच संविधान एक सेतु की भूमिका में खड़ा दिखाई देता है। इसका यह अर्थ हम निकाल सकते हैं कि लोगों के नागरिक बनने के बीच एक लंबी प्रक्रिया है। क्या भारत के लोग भारत के नागरिक बनने की प्रक्रिया में आगे बढ़े हैं? भारत में जब संविधान बना तो उसे दुनिया के उन देशों के संविधान का लाभ मिला जो कि संविधान के बनने और उसके तहत नागरिक तैयार करने की भूमिका में महत्त्वपूर्ण साबित हो रहे थे। यहां यह स्पष्ट है कि लोग के नागरिक बनने की एक प्रक्रिया से गुजरने का लक्ष्य हमने निर्धारित कर रखा है। लेकिन दुनिया भले ही राष्ट्रों और गणराज्यों में विभाजित उन सबकी एक सीमा है। वह सीमा जो नागरिकों के रूप में तो स्वीकार हो सकती है, लेकिन एक व्यक्ति या मनुष्य के लिए राष्ट्र और गणराज्य की सीमाएं छोटी होती है। व्यक्ति और मनुष्य का मतलब उसके लिए पूरी दुनिया है। इसीलिए हम संविधान की प्रस्तावना में लोगों के नागरिक बनने और फिर नागरिकों के व्यक्ति बनने की एक प्रक्रिया निर्धारित करते हैं। प्रस्तावना में लिखते हैं कि उन सबमें यानी नागरिकों में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
पूरी दुनिया में जिसे मानवीय मूल्य कहते हैं उस मूल्य का हकदार दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति है। जैसे हम मानवाधिकार की बात करते हैं तो मानवाधिकार का कोई देश नहीं होता है। पूरी दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति के लिए मानवाधिकार सुनिश्चित किए गए हैं। इसीलिए हम जब नागरिक अधिकार कहते हैं तो इसका एक अर्थ होता है और जब मानवाधिकार कहते हैं तो उसका एक अंतरराष्ट्रीय फलक होता है। इस तरह लोग, नागरिक और व्यक्ति के रूप में हम कितना विकसित हो पाए है, यह खुद को जांचने का विषय हो सकता है। लोग यदि नागरिक बनकर नागरिक अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है तो नागरिक समाज नहीं बन सकता है। बंधुता की भावना का विकास इस प्रतिबद्धता का आधार होती है। व्यक्ति की गरिमा के चरण तक की यात्रा हम कितनी कर सके हैं; यह खुद से पूछे जाने वाला सवाल है।

अनिल चमड़िया


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