पंद्रह अगस्त : आइए, अपनी आजादी पर गर्व करें
बहुत लंबे संघर्ष के बाद जो आजादी हमें मिली उसे हम बेहतर तरीके से संभाल कर रख नहीं पाए। बिखरने जाने दिया उसे। कहने को हम आजाद मुल्क जरूर हैं मगर फिर भी आजाद नहीं हैं।
पंद्रह अगस्त : आइए, अपनी आजादी पर गर्व करें |
पहले हम ब्रिटिश साम्राज्य के गुलाम थे, अब अपनी ही सत्ताओं के गुलाम हैं। अमीरी-गरीबी के गुलाम हैं। ऊंच-नीच के गुलाम हैं। जाति-धर्म के गुलाम हैं। शासन-प्रशासन के गुलाम हैं। बेरोजगारी-मंदी के गुलाम हैं। अब स्वतंत्र आवाजों पर भी पहरा थोपा जाने लगा है। दूसरी ओर, देश में सरकारें आती हैं, चली जाती हैं, लेकिन एक वर्ग आज भी अपनी गुलामी से मुक्त नहीं हो पाया है।
सबको साथ लेकर चलने का सपना, जो देश के महापुरु षों ने देखा था कभी, आज भी सपना ही है। कब तक सपना रहेगा कह पाना मुश्किल है। दरअसल, सत्ताएं-सरकारें तो वोट बैंक के लिए सबको साथ लेकर चलने के जुमले बुनती-गढ़ती रहती हैं। जमीनी हकीकत इससे बहुत भिन्न होती है। विकास की आड़ में क्या-क्या चलता रहता है, सरकार चलाने वाले भी नहीं जानते होंगे। न उन्हें फुर्सत ही है यह सब जानने की। उन्हें जनता की फिक्र वोट के समय आती है। इस सच से भला कौन इंकार करेगा कि आजादी के 72 साल बाद भी हम धर्म, जाति, वर्ग की बेढब धारणाओं को तोड़ नहीं पाए हैं। राजनीति ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में इन्हीं का बोल-बाला है। जब हमने अंग्रेजी साम्राज्य से मुक्ति पाई थी, तब किसी ने कल्पना भी न की होगी कि आजाद भारत में कभी ऐसा भी हमारे समक्ष आएगा जब व्यक्ति की पहचान उसके कर्म से नहीं, बल्कि धर्म-जाति से की जाएगी। अपनों के मध्य ही हमें विभाजित होना पड़ेगा।
कहना न होगा कि जाति-व्यवस्था तो हमें तोड़ ही रही है, अमीरी-गरीबी के बीच तेजी से बढ़ती खाई भी सोचने पर मजबूर करती रहती है कि यह क्या होता जा रहा है देश के आवाम को। जो अमीर है, उसे दुनिया हंस कर स्वीकार करती है, जो गरीब है उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है जबकि महात्मा गांधी ने हमेशा ही जाति व्यवस्था और अमीरी-गरीबी को जड़ से खत्म करने का उपदेश हमें दिया था। मगर क्या गांधी के उपदेशों को हमने माना? आजादी के संघर्ष में न तो कोई अमीर था, न गरीब; सब देशवासी ही थे। जो सिर्फ और सिर्फ अपनी मातृभूमि, अपने देश के लिए अंगरेजी हुकूमत से सीना तानकर लड़ रहे थे। वहां न जातियां थीं। न संप्रदाय थे। न भेदभाव था। सोचिए जरा अगर वे आपस में ही लड़ रहे होते तो क्या आजादी संभव थी। नहीं, कभी नहीं। कृषि का हमने क्या हाल किया है। किसानों की कोई सुध लेने वाला नहीं। खेती निरंतर कम होती जा रही है। गांव से लोग पलायन को मजबूर हैं। जिस किसान की मेहनत का फल हम सब अपने-अपने घरों में बैठकर आराम से चखते हैं, वही आज आत्महत्या कर रहा है। उसे अपनी फसल का पूरा पैसा तक नहीं मिल पा रहा। बच्चों को वह पढ़ा नहीं पा रहा। उसके पास तो इतनी फुर्सत भी नहीं कि अपने या अपने परिवार के वास्ते कोई बड़ा सपना भी देख सके। सरकारें तो किसान की आत्महत्या तक पर राजनीति करने से बाज नहीं आतीं। माना कि सरकारें किसानों की बेहतरी के लिए बहुत कुछ कर रही हैं, लेकिन यह पर्याप्त नहीं। बिचौलिए उस लाभ को किसानों तक पहुंचने ही नहीं देते। हालांकि सरकार ने पैसा सीधे किसानों के खाते में अंतरण कर बहुत हद तक बिचौलियों का हस्तक्षेप कम किया है, लेकिन इसे अभी और दुरु स्त करने की जरूरत है।
आजादी ऐसी होनी चाहिए, जो प्रत्येक देशवासी के बीच उसके आजाद होने का अहसास कराए। यह सिर्फ कुछ लोगों या बड़े घरानों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। हमने हर हाथ में मोबाइल देकर उसे डिजिटल तो बना दिया लेकिन उससे आपस में मिलकर बातें करने, मिलने-जुलने की आजादी छीन ली। खुद ही आकलन कर लीजिए कि हम एक-दूसरे से कितना मिलते हैं, कितनी बातें करते हैं। डिजिटल होने की जिद रिश्तों को धीरे-धीरे कर खत्म कर रही है। हम बड़ा लोकतांत्रिक देश हैं, जहां हर कोई अपनी मर्जी का मालिक है। हर किसी को निर्णय लेने की स्वतंत्रता है। यह आजादी अगर हम जातियों को खत्म कर आपस में एक होने में पाते हैं, तो इसके मायने बहुत बड़े होंगे। कि, हम एक जाति और वर्ग-मुक्त देश हैं। हममें न कोई भेद है न वैमनस्य का भाव। चलो फिर से-उम्मीद के साथ-एक कोशिश हम सब करते हैं, आपस में एक होने की। मजबूत होने की। आजादी का मान-सम्मान रखने की। प्रत्येक देशवासी के चेहरे पर सिर्फ मुस्कुराहट देखने की। खुद भी जीने और दूसरे को भी जीने देने की। जाति-व्यवस्था और ऊंच-नीच की गहराती खाइयों को पाटने की।
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