मुद्दा : ऊंची कटऑफ, ऊंचा डिप्रेशन

Last Updated 17 Jul 2019 05:03:27 AM IST

इस साल जब सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन यानी सीबीएसई और काउंसिल ऑफ इंडियन स्कूल र्सटििफकेट की 10वीं और 12वीं की परीक्षा में 500 में 499 नंबर या सौ फीसद नंबर लाने वाले टॉपरों के साथ करीब ढाई लाख बच्चों ने इन परीक्षाओं में 90 फीसद से ज्यादा नंबर हासिल किए तो साफ हो गया था कि असली समस्या तब खड़ी होगी, जब बारी कॉलेजों में दाखिले की आएगी।


मुद्दा : ऊंची कटऑफ, ऊंचा डिप्रेशन

इसका अहसास दिल्ली विविद्यालय यानी डीयू में दाखिले के लिए आई कटऑफ लिस्टों से हो गया, जिनमें 97-98  फीसद से नीचे अंक लाने वाले छात्रों के नाम खोजे नहीं मिल रहे हैं। मसले की गंभीरता इससे समझी जा सकती है कि इसे लेकर एक सवाल हाल में देश की संसद में भी उठ चुका है।
राज्य सभा में भाजपा सांसद आर.के. सिन्हा ने ऊंची कटऑफ लिस्ट से राहत के लिए डीयू के सभी कॉलेजों में सांध्यकालीन कक्षाएं शुरू करने का सुझाव दिया ताकि सीटों की संख्या दोगुनी हो सके। उनका साफ मत है कि 99 फीसदी कटऑफ का मतलब है छात्रों और अभिभावकों को डिप्रेशन में भेज देना। सवाल है कि दाखिले के लिए तैयार होने वाली इतनी कटऑफ आखिर, किसकी देन है? चंद महीने पीछे लौटने पर ही इसका जवाब मिल जाता है, जब परीक्षा के नतीजों के रूप में पूर्णाक पाने वाले दर्जनों छात्रों के नाम घोषित किए जाते हैं, और बढ़-चढ़कर उनका बखान किया जाता है। यही नहीं, जब किसी छात्र को पांच में से किसी एक विषय में 100 से एक अंक भी कम मिलता है, तो उस पर हंगामा होता है। असल में जिस तरह से हर साल पूर्णाक पाने वाले छात्रों की संख्या बढ़ रही है, उससे यह संदेह होता है कि कहीं हमारा पूरा परीक्षा तंत्र किसी खास ढर्रे पर चलने वाली शिक्षण पद्धति में फंस गया है। ऊंचा कटऑफ उसी सिस्टम की देन है, जिसमें एक-एक अंक के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा होती है, और जीतने वाले का बेतहाशा गुणगान करके 70-80 फीसद अंक भी लाने वाले छात्रों-अभिभावकों के सामने हीनभावना पैदा करने वाला माहौल खड़ा कर दिया जाता है।

यह एक ऐसा कुचक्र है, जिसमें पहले खुद मीडिया भी फंसता है। टीवी और अखबारों में सौ फीसद अंक लाने वाले बच्चों की ऐसी महिमा गाई   जाती है, मानो उन्होंने चांद पर कदम रख लिया हो। 99 फीसद वाले कटऑफ की आशंका उसी वक्त खड़ी हो गई थी, जब बताया गया था कि किस तरह से इस बार 17,600 छात्रों में दिल्ली यूनिर्वसटिी में दाखिले की होड़ होगी क्योंकि उन सभी के 95 फीसद से ज्यादा नंबर आए हैं। ऐसे उद्घोष यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि परीक्षाओं में 95 फीसद से कम नंबर वाले छात्रों का तो आगे कोई भविष्य ही नहीं है क्योंकि उन्हें किसी नामी या स्थापित कॉलेज में दाखिला ही नहीं मिलेगा। साफ है कि इससे लाखों दूसरे बच्चों और उनके अभिभावकों के सामने दबाव बन गया है कि या तो वे भी इतने ही अंक लाएं अन्यथा रेस में बदल चुकी इस जिंदगी का कोई मतलब नहीं है। कुछेक छात्र खेल, संगीत आदि अतिरिक्त योग्यताओं के बल पर इनमें दाखिला भले पा जाएं, लेकिन बाकियों के भाग्य में निराशा ही बदी है। इसके बाद का उनका रास्ता और भी जटिल होता है क्योंकि उन्हें प्राइवेट यूनिर्वसटिीज का रुख करना पड़ता है, जहां सरकारी शिक्षण संस्थानों के मुकाबले फीस बीसियों गुना ज्यादा होती है, लेकिन कहीं शिक्षक कम होते हैं, तो कहीं छात्र अधिक। ऊंचे कटऑफ की वजह से निजी यूनिर्वसटिीज में पहुंचने वाले छात्रों के लिए नौकरी की गारंटी पाना और भी कठिन रहा है क्योंकि वहां शिक्षा की गुणवत्ता की बजाय छात्रों की तादाद की बात ज्यादा होती है।
ये संस्थान प्लेसमेंट के शुरुआती दावे जरूर करते हैं, लेकिन इसे जानने की कोई गंभीर कोशिश अभी तक नहीं हुई है कि उनके छात्र संबंधित नौकरियों में कितने दिन टिकते हैं? माना जाता है कि प्लेसमेंट के इन दावों का आधार कॉलेजों और नौकरी देने वाले संस्थानों के बीच हुई डील होती है, जिसमें साल-छह महीने में ही छात्र को नौकरी खोनी पड़ती है। यह अकारण नहीं है कि पिछले अरसे में तमाम रिसर्च एजेंसियों और नौकरी देने वाले संस्थानों ने दावा किया है कि इंजीनियरिंग या कोई अन्य तकनीकी शिक्षा लेकर निकलने वाले चार भारतीय छात्रों में से सिर्फ  एक चौथाई ही नौकरी के काबिल हैं। सौ फीसद अंक लाने का दबाव पैदा करने वाली हमारी इस शिक्षा प्रणाली का फिलहाल यही हासिल है कि इसमें कुछ भी सीखने, ज्ञान अर्जित करने और किसी तरह के अन्वेषण की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। बच्चे को कम उम्र से ही कोल्हू के बैल की तरह सिलेबस रटने में लगा दिया जाता है, और यह प्रकिया प्रशासनिक परीक्षाओं की उम्र निकल जाने तक जारी रहती है।

अभिषेक कुमार


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