कुंद पड़ा है पारदर्शी व्यवस्था का हथियार
सूचना का अधिकार ( आरटीआई) कानून देश का पहला ऐसा क्रांतिकारी कानून है, जो भारत के सभी नागरिकों को वह ताकत देता है, जो दूसरा कोई कानून नहीं देता।
कुंद पड़ा है पारदर्शी व्यवस्था का हथियार |
सरकार, शासन, प्रशासन में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कामकाज में पारदर्शिता ही एकमात्र तरीका है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता के लिए आरटीआई कानून से बड़ा कोई दूसरा हथियार नहीं है, बावजूद इसके इस कानून का वह प्रभावी अमल नहीं हो रहा है, जो होना चाहिए था। यह कानून बने 14 साल हो गए हैं, मगर अक्सर इसके सकारात्मक पहलुओं से ज्यादा, इसके दुरुपयोग पर बहस होती रहती है, जबकि इस कानून के दुरुपयोग का कोई प्रामाणिक डाटा अभी तक सार्वजनिक नहीं है।
दरअसल, यह कानून सरकारी सिस्टम में दशकों से व्याप्त भ्रष्टाचार और उसे छिपाए रखने की प्रवृत्ति में सबसे बड़ी बाधा बनता है, लिहाजा सरकारी सिस्टम के लोग इसके सबसे ज्यादा खिलाफ हैं। अफसरों (जनसूचना अधिकारियों व प्रथम अपीलीय प्राधिकारियों) की उसी सोच का नतीजा है कि इस कानून के तहत सूचना मांगने वालों को सूचनाएं मिलना बहुत ही मुश्किल होता है। तय मियाद ( 30 दिन) के भीतर सूचना मिलना तो और भी ज्यादा बड़ी चुनौती है। इस कानून के प्रति सरकारी सिस्टम की सोच का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश के सबसे बड़े राज्य अकेले उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में इस साल मई तक 52 हजार अपीलें व शिकायतें लंबित थीं, जबकि पिछले साल मई में यह संख्या 42 हजार थीं। यह दर्शाता है कि इस कानून के प्रभावी अमल के प्रति जिम्मेदार लोग उदासीन हैं।
आरटीआई आवेदक को सही और समय से सूचना न देने पर दोषी को कानून में दंड का प्रावधान है। सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा (20) में प्राविधानित है कि जहां केंद्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग की किसी परिवाद या अपील के विनिश्चय के समय यह राय हो कि केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी अथवा राज्य लोक सूचना अधिकारी ने बिना किसी युक्तियुक्त कारण के सूचना के लिए निवेदन को लेने से इनकार किया है या विर्निदिस्ट समय के भीतर सूचना नहीं दिया है, साशय असत्य, अपूर्ण या बहकावापूर्ण सूचना दिया है अथवा निवेदित सूचना की विषयवस्तु को नष्ट किया है अथवा सूचना देने में किसी भी ढंग से बाधा डाला है, तो वह ऐसे प्रत्येक दिन के लिए दो सौ पचास रुपये प्रतिदिन के हिसाब से जब से सूचना के लिए निवेदन प्राप्त किया जाता है और जब सूचना दी गई है, जुर्माना लगाएगा, लेकिन जुर्माने की संपूर्ण राशि पच्चीस हजार रुपये से अधिक नहीं होगी। उक्त के अलावा आयोग जन सूचना अधिकारी के ऊपर लागू सेवा नियम के अधीन अनुशासनात्मक कार्रवाई की संस्तुति भी कर सकता है। इन कड़े दंडात्मक प्रावधानों के बावजूद आवेदकों को सूचनाएं मिलने में कोताही से साफ है कि बनने के 14 साल बाद भी कानून का असरदार अमल नहीं हो पा रहा है। इसके लिए वे निकाय ज्यादा जिम्मेदार हैं जिन पर कानून के तहत दोषियों को दंडित करने का अधिकार है। इस मामले में भी पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में यह व्यवस्था दी है कि तय मियाद में सूचना न देने के दोषी जनसूचना अधिकारी को आयोग को अधिनियम की धारा 20 के अंतर्गत फैसला करना चाहिए। कोर्ट ने आयोग के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें जन सूचना अधिकारी को महज चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था। आरटीआई कानून पर प्रभावी अमल का दारोमदार केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों पर है।
यह किसी से छिपा नहीं है कि सूचना आयुक्तों के पद कई बार बहुत ज्यादा दिनों तक खाली पड़े रहते हैं। सरकारें उन पर नियुक्तियों के प्रति उदासीन रहती हैं, जबकि सूचना आयुक्तों का फिक्स्ड टेन्योर ( नियत कार्यकाल) होने के नाते सरकारों को पहले से पता होता है कि आयुक्तों के पद कब खाली हो रहे हैं, फिर सरकारें इस दिशा में उदासीन रहती हैं। यही वजह है सूचना आयोगों में आयुक्तों के पदों को भरे जाने के लिए कई मामले हाईकोर्ट के दरवाजे तक जा चुके हैं। हमारे देश के सरकारी सिस्टम में पारदर्शिता का प्रश्न शुरू से उपेक्षित रहा है, जबकि पारदर्शिता ही वह हथियार है, जिससे भ्रष्टाचार पर किसी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। हमारी नौकरशाही भी शुरू से ही प्राय: सरकारी जानकारियों को सार्वजनिक करने से ज्यादा उसे छिपाने की पक्षधर रही है। ज्यादातर नौकरशाह अपने सेवाकाल लगभग इसी राह पर चलते हैं, लेकिन सूचना आयोगों में मुख्य सूचना आयुक्तों और राज्य सूचना आयुक्तों के पदों पर नौकरशाहों की भरमार देखी जा सकती है। कई राज्यों में खासतौर से यह देखा जा सकता है जब मुख्य सचिव के पद से सेवानिवृत्त होने वाले अफसर ही मुख्य सूचना आयुक्त बना दिए गए। ऐसे भी राज्य हैं, जहां रिटार्यड मुख्य सचिव ही मुख्य सूचना आयुक्त होते रहे हैं। ऐसा नहीं है कि नौकरशाहों के मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्त बनाए जाने में कहीं किसी प्रकार की कोई बाधा हो। सूचना आयोगों में नियुक्तियों को लेकर सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 15 (5) में यह प्राविधानित है कि राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त विधि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, समाजसेवा, प्रबंध, पत्रकारिता, जन संपर्क माध्यम या प्रशासन और शासन में व्यापक ज्ञान और अनुभव वाले समाज में प्रख्यात व्यक्ति होंगे।
स्पष्ट है मुख्य सूचना आयुक्त या राज्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के लिए क्षेत्र की दायरा काफी व्यापक है, फिर कई बार ऐसी नियुक्तियों में नौकरशाही को तरजीह दिए जाने के उदाहरण मौजूद हैं। ऐसा देखने को मिलता है कि एक नौकरशाह अपने पूरे सेवाकाल में पारदर्शी व्यवस्था को बहुत ग्राह्य नहीं करती, जबकि सूचना का अधिकार अधिनियम अधिक से अधिक पारदर्शिता की राह खोलता है। ऐसे में जब सूचना का अधिकार कानून के प्रभावी अमल की जिम्मेदारी जब ऐसे अफसरों पर आती है तो उनका अतीत कहीं न कहीं उनके कार्यशैली को प्रभावित करता दिखता है। राज्य सूचना आयुक्त के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान नौकरशाही से आयुक्त बने एक पूर्व अधिकारी ने बातचीत में यह स्वीकार किया कि यदि आयोग आरटीआई अधिनियम-2005 पर पूरी तरह अमल करने लगे तो इक्का-दुक्का ही जनसूचना अधिकारी होंगे जो दंडित होने बच पाएंगे। यह कथन उस धारणा को और मजबूत करता है कि कानून के प्रभावी अमल को लेकर जिम्मेदार लोग कहीं न कहीं अभी उदासीन हैं और आरटीआई की अपीलों व शिकायतों के निपटाने में पूरी तरह विधिसम्मत कार्यवाही के बजाय बीच के रास्ते खुले हुए हैं।
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