मीडिया : फिल्म ‘कबीर सिंह’ का थप्पड़
कबीर सिंह फिल्म ने न केवल सलमान खान की फिल्म ‘भारत’ को धो दिया बल्कि अगर अंग्रेजी फिल्म रिव्यूअर्स की मानें तो उसने ‘मी टू’ आंदोलन को भी पछाड़ दिया।
मीडिया : फिल्म ‘कबीर सिंह’ का थप्पड़ |
सिर्फ बाईस दिनों में उसने ढाई सौ करोड़ रुपये की कमाई की है। ‘मी टू’ आंदोलन एक बरस पहले उठा और अब आते आते गिर गया। उसके मुकाबले ‘मेन टू’ आ गया..इसका अफसोस मनाते हुए एक अंग्रेजी फिल्म समीक्षक ने कहा है कि कबीर सिंह के हिट होने का कारण मी टू का कमजोर कर दिया जाना भी है। ऐसा कहना भी एक ‘अति’ है।
कबीर सिंह तेलुगू हिट फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ की हिंदी रिमेक है। अर्जुन सर्जन डॉक्टर रेड्डी का प्रेम में विफल हो जाने पर वह नशे की लत का शिकार हो जाता है। कबीर सिंह एमबीबीएस का टॉपर व चेन स्मोकर है। वह क्लॉस में नायिका से प्रेम को घोषित करता है और क्रोध में उसे थप्पड़ भी मार देता है और नायिका थप्पड़ खाकर उसे और अधिक प्यार करने लगती है। अंग्रेजी की स्त्रीत्ववादी फिल्म समीक्षकों की नजर में नायक का ‘थप्पड़’ तो एक समस्या है ही, थप्पड़ से नायिका में प्रेम भाव में बढ़ जाना भी बड़ी समस्या है।
स्त्रीत्ववाद के अनुसार, थप्पड़ की घटना के बाद नायिका को सीधे थाने जाना था। नायक के खिलाफ घरेलू हिंसा का मुकदमा दर्ज करानी थी और नायक को सीधे अंदर जाना था। लेकिन फिल्म ऐसा नहीं दिखाती, बल्कि मर्दवादी हिंसा को सहना सिखाती है। कबीर सिंह की आलोचना का बिंदु यही है। इसीलिए स्त्रीत्ववाद की नजर में ‘कबीर सिंह’ एक शुद्ध माचोवादी-मर्दवादी फिल्म है, जो स्त्री को पचास साठ के दशक की मीना कुमारी की तरह सहनशीलता की तरह दिखाती है।
कबीर सिंह की समीक्षाओं और टीवी की बहसों में कबीर सिंह की कुटाई को देख लगता है कि रिव्यूअर्स ने नायक को थप्पड़ रसीद करते पहली बार देखा है और नायिका के विद्रोह की जगह उसका सरेंडर करना भी पहली बार देखा है। स्त्रीत्ववादी चाहते हैं कि कबीर सिंह की पटकथा उनके अनुसार क्यों न चली! नायिका ने बदला क्यों न लिया? एक सच यह भी है कि स्त्री-पुरु ष के प्रेम संबंध सीधे सपाट एक ओर झुके हुए नहीं होते। न प्रेम का मतलब सीधे ‘बेडरूम’ होता है। समाज में प्रेम गुलजार के किसी ‘प्रेम गीत’ की तरह नहीं होता बल्कि तीन मिनट से अधिक का होता है।
प्रेम का एक संस्करण ‘केयर’ भी है, एक-दूसरे की चिंता भी है और इसमें कुछ ‘हिंसा’ भी है। यों तो स्त्री-पुरु ष के के ‘सेक्सुअल एक्ट’ में भी हिंसा है और हिंसा के अनेक अप्रकट रूप परिवार में रहते हैं। इसी प्रकार ‘उपेक्षा’ भी एक प्रकार की हिंसा ही है और जितनी उपेक्षा होती है उतनी ही ‘अपेक्षा’ बढ़ती जाती है। थप्पड़ एक ‘अपेक्षा’ भी तो हो सकती है। और हर फिजीकल एक्शन जैसे कि थप्पड़ किसी स्त्री पर वही प्रभाव नहीं पैदा करता जो किसी स्त्रीत्ववादी पर करता है। कबीर सिंह की नायिका स्त्रीत्ववादी नहीं है इसीलिए स्त्रीत्ववादियों की तरह प्रतिवाद नहीं करती।
ऐसी अनेक फिल्में गिनाई जा सकती हैं, जो इस तरह के संबंधें को बताती हैं। बहुत सी फिल्मों में मर्द को हाथ सिर्फ उठाते देखा जाता है, बहुत सी में मारते देखा जाता है। लेकिन ऐसा होने के बाद या तो नायिका मीना कुमारी की तरह सहती रहती है या स्त्रीत्ववादी की तरह ‘यू हिट मी आई हेट यू’ कह कर अपने घर चली जाती है या ‘सौ दिन सास के’ वाली जेंडर रिवर्सल वाली हो जाती है।
कबीर सिंह की नायिका बदला लेने की जगह या घर में मीना कुमारी की तरह रहने की जगह, थप्पड़ को नायक के अतिरिक्त प्रेम का प्रतीक मानती है। इसे मर्दवाद का अभ्यंतरीकरण कह सकते हैं, लेकिन कहानीकार के अनुसार अपने सबंधें को स्त्रीत्ववादी चश्मे से देखने की जगह थप्पड़ को नायक की ‘केयर’ की तरह लेती है तो इसमें आपत्ति क्यों हो? हर स्त्री स्त्रीत्ववादी क्यों हो?
कबीर सिंह स्त्रीत्ववादी रास्ते नहीं जाती। एक उन्मादी आदमी के चरित्र और उसके बरक्स एक शांत स्त्री के चरित्र को कंट्रास्ट करती है। अगर पब्लिक ने इसे हिट किया है तो यह कहीं-न-कहीं स्त्रीत्ववाद के ‘मीटूवाद’ के अतिचार का प्रतिकार भी है। स्त्रीत्ववादियों का आरोप रहा कि कबीर सिंह का हिट होना नये हिंदुत्ववादी मर्दवादी ‘बैक लैश’ का नतीजा है। कबीर सिंह थप्पड़ मारता है तो वह किसी स्त्रीत्ववादी को नहीं मारता, एक सामान्य नारी को मारता है और इसी कारण एक बहस को जन्म देता है लेकिन अगर हिट न होती तो क्या बहस जन्मती और अगर थप्पड़ न होता तो क्या बहस के मुद्दे खुलते?
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