वैदेशिक : हांगकांग की सड़कों से बीजिंग को संदेश

Last Updated 14 Jul 2019 07:10:00 AM IST

स्वतंत्रता की भी अपनी विशेषता है, वह है तो व्यक्त होना चाहती है, लेकिन दूसरी तरफ तानाशाही है जिसे अपने किस्म का डर है, जो स्वतंत्रता हर कीमत पर दबाए रखना चाहता है।


वैदेशिक : हांगकांग की सड़कों से बीजिंग को संदेश

यही स्थिति इस समय हांगकांग और बीजिंग की है। हांगकांग अपने मूल्यों पर आगे बढ़ना चाहता है, जिसमें स्वतंत्रता और लोकतंत्र है लेकिन बीजिंग इन्हें खत्म करना चाहता है क्योंकि वह बहुलतावाद से डरता है। सवाल यह उठता है कि आखिर बीजिंग हांगकांग को हांगकांग क्यों नहीं बने रहने देना चाहता? जबकि 1997 की शतरे के मुताबिक हांगकांग 2047 तक अपने मौलिक स्वरूप को बनाए रख सकता है? क्या हांगकांग के लोग अपनी लड़ाई जीत पाएंगे, जबकि दुनिया उनका साथ देती न दिख रही हो? क्या दुनिया के वे देश जो रेस्टोरेशन ऑफ डेमोक्रेसी के लिए इराक का ध्वंस कर देते हैं, यहां भी कुछ करने की स्थिति में होंगे?
हांगकांग को इन दिनों न ही थमा हुआ मान सकते हैं और न आगे सरकता हुआ। काफी दिनों से उसकी सड़कें दसियों लाख लोगों की गतिमान भीड़ से सम्पन्न है। जो काम नहीं संघर्ष कर रह रही है। यह संघर्ष उस बिल के खिलाफ है, जो एक ही क्षण में हांगकांग की हैसियत को खतरे में डालने वाला है। इस भीड़ में ऐसे युवा छात्र-छात्राएं भी शामिल हैं जो यह कहते दिखे हैं कि अगर हम अपने अधिकारों के लिए खड़े नहीं होंगे तो हम अपने अधिकारों को खो देंगे। दरअसल, यह विवाद प्रत्यर्पण कानून में लाए गए बदलाव को लेकर उत्पन्न हुआ। प्रस्तावित कानून के अनुसार यदि व्यक्ति अपराध करके हांगकांग भाग जाता है तो उसे जांच प्रक्रिया में शामिल होने के लिए चीन भेज दिया जाएगा।

यह कानून चीन को उन देशों के संदिग्धों को प्रत्यर्पित करने और उनकी संपत्ति का अधिग्रहण करने की अनुमति देगा, जिनके साथ हांगकांग के समझौते नहीं है। जबकि अभी तक हांगकांग ब्रिटिशकालीन क्रिमिनल सिस्टम से काम कर रहा था और उसकी 1997 से पहले जिन देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि थी, उन्हीं को ही वह वांछित अपराधियों को प्रत्यर्पित करता था, जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर जैसे देश शामिल हैं। अब उसे सभी को चीन को प्रत्यर्पित करना पड़ेगा। इससे हांगकांग के लोगों में यह भय पनपने लगा है कि चीन इसके कानून के जरिए किसी भी ऐसे व्यक्ति को जो राजनीतिक आंदोलन से जुड़ा है, हांगकांग से प्राप्त कर लेगा। इस तरह से हांगकांग के लोगों के सभी राजनीतिक अधिकार समाप्त हो जाएंगे। हांगकांग के लोगों का यह डर वाजिब है क्योंकि नया कानून निश्चित रूप से स्वतंत्र, लोकतांत्रिक दौर का अंत कर देगा क्योंकि इसके बाद कानून हांगकांग के नियंत्रण में न होकर चीन के नियंत्रण होगा। यह भी संभव है कि इसी के साथ चीन ‘एक देश-दो व्यवस्था’ (वन कंट्री-टू सिस्टम) का भी ध्वंस कर दे, जबकि 1997 में ब्रिटेन ने हांगकांग को चीन को हस्तांतरित करते समय यह गारंटी हासिल की थी कि चीन ‘वन कंट्री-टू सिस्टम’ के तहत कम-से-कम 2047 तक लोगों की स्वतंत्रता और अपनी कानूनी अवस्था को बनाए रखेगा। दरअसल, यह डर बहुलतावाद को लेकर है, जिसे बीजिंग अपने लिए खतरा मानता है। इसलिए वह हांगकांग को ऐसा कोई अवसर प्रदान करना नहीं चाहता, जिससे उसे स्वतंत्र होने का एहसास हो सके।
इसके विपरीत हांगकांग अपने उन लोकतांत्रिक अधिकारों को अक्षुण्ण रखना चाहता है, जो उसे वन कंट्री-टू नेशन व्यवस्था के तहत मिले थे। हालांकि ऐसा होगा नहीं क्योंकि हांगकांग का शासन 1200 सदस्यों की चुनाव समिति के मुख्य कार्यकारी अधिकारी द्वारा चलाया जाता है, जिस पर सही अथरे में चीन या चीन परस्तों का नियंत्रण है। यही नहीं हांगकांग की वर्तमान चीफ एक्जीक्यूटिव बीजिंग के प्रति जवाबदेह हैं न कि हांगकांग की जनता के प्रति। इसलिए बीजिंग का यह राग कि वह हांगकांग को उच्चस्तरीय स्वायत्तता देने के लिए प्रतिबद्ध है पूरी तरह से कृत्रिम और झूठा है। बहरहाल हांगकांग की चीफ एक्जीक्यूटिव कह रही हैं कि, ‘मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि हांगकांग समाज में कुछ बुनियादी और गहरी समस्याएं हैं।’ मगर सच तो यह है कि हांगकांग के समाज में बुनियादी मूल्य और इच्छाएं हैं, जिन्हें बीजिंग खत्म करना चाहता है। ये मूल्य और इच्छाएं केवल हांगकांग के समाज में नहीं बल्कि शिनजियांग और तिब्बत के साथ मेनलैंड चीन में भी हैं, जिसे चीन के शासक स्वीकार करने से डरते हैं।

रहीस सिंह


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