बतंगड़ बेतुक : राष्ट्रीय शोक में डूबा झल्लन
झल्लन सर पकड़े बैठा था। हम समझ गए कि उसने अपने आपको लाखों-करोड़ों की उस देशभक्त जमात में शामिल कर लिया है, जो इस समय गम में डूबी हुई थी, जिसकी उम्मीद टूट गई थी, जिसकी उमंग मुरझा गई थी, जिसका सपना बिखर गया था, जिसके उत्साह पर पानी फिर गया था।
बतंगड़ बेतुक : राष्ट्रीय शोक में डूबा झल्लन |
ये सब मैच-दर-मैच अपनी खुशी में इजाफा कर रहे थे और मानकर चल रहे थे कि उनकी यह खुशी विश्व विजय करेगी, विजय का ताज अपने सर धरेगी। पर एक झटके में सब कुछ इधर से उधर हो गया। सपनों का सूरज अस्त हो गया।
हमें झल्लन से सहानुभूति हुई, हमने उसके कंधे पर हाथ रख दिया और उसे सांत्वना देने का प्रयास किया, ‘अब दुखी मत हो झल्लन, होनी को कौन टाल सकता है। जो होना था सो हो गया। जिसे जीतना था वह जीत गया, जिसे हारना था वह हार गया। चल उठ कुछ खा-पी ले, दो घूंट पानी गले में उतार ले।’ झल्लन ने पीड़ाभरी आंखों से हमें देखा। हमारा हाथ पकड़ा और बोला, ‘कैसे खा-पी लें ददजू, निवाला भीतर नहीं जा रहा है। हार का नजारा टीवी के परदे से निकलकर बार-बार हमारी आंखों में आ रहा है। इन नालायकों ने थुका दिया, देश का सर शर्म से झुका दिया। कितनी दुआएं मांगी थीं इनके लिए, कितनी मन्नतें मांगी थी, कितने हवन-यज्ञ किए थे और कितने देवी-देवता याद किए थे। और देखिए हुआ क्या?’
झल्लन के चेहरे पर जैसे पूरे देश का दर्द झलक रहा था और हारने वालों से अपने दर्द का हिसाब मांग रहा था। झल्लन की पीर हमसे झेली नहीं जा रही थी और उसे समझाने के लिए हमें बाबा तुलसी की एक चौपाई संशोधन के साथ याद आ रही थी- हार-जीत जीवन-मरण या-अपयश विधि हाथ। चौपाई का आशय स्पष्ट करते हुए हमने उससे कहा कि हारना-जीतना और जीना-मरना तो सब ऊपर वाले के हाथ है और जब सब ऊपर वाले के हाथ है तो इसमें दुखी होने की क्या बात है? झल्लन बोला, ‘क्या ददजू, आप दुखी भी नहीं होने दे रहे। एक पचास लाख से कम के अदने से देश ने सवा सौ करोड़ से ज्यादा के मुल्क को हरा दिया हमारी खुशी का मौका मिटा दिया। और हम दुखी भी न हों?’ हमने कहा, ‘खेल की हार-जीत मुल्क की छुटाई-बड़ाई नहीं देखती ..।’ वह बोला, ‘मुल्क की छुटाई-बड़ाई नहीं देखती पर खिलाड़ियों की छुटाई-बड़ाई तो देखती है। कहां हमारे रोहित, विराट से महान बल्लेबाज और कहां उनके नामालूम से बल्लेबाज। ददजू, दुख तो बनता ही है।’
हमें फिर बाबा तुलसीदास याद हो आए। हमने झल्लन को समझाया,‘सुन झल्लन, बाबा तुलसीदास ने कहा है-तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान। भीलनि लूटीं गोपिका, वही अजरुन वही बाण। अजरुन जैसा धनुर्धर भी एक समय गोपिकाओं की रक्षा नहीं कर पाया था। समय बलवान होता है व्यक्ति नहीं। रोहित, विराट जैसे बलवान कुछ नहीं कर सके तो यह बलवान समय की मार है न कि हमारी हार है।’ झल्लन बोला, ‘ददजू, झल्लन तो झल्लन है आपकी बात समझ जाएगा, अपने गम से उबर जाएगा पर बाकी देश को कैसे समझाएंगे? कहीं पटाखे फूटने को रखे थे कहीं दीये जलने को रखे थे, किसी ने ढोल मंगा रखा था, किसी ने भंगड़ा सोच रखा था, किसी ने सट्टा लगा रखा था तो किसी ने भारी-भरकम विज्ञापन बना रखा था। खेल के मैदान ही नहीं होटल, क्लब सब महाजन की तैयारी में थे। अपने सारे चैनल जीत की खुमारी में थे। सबके बीच मैच चल रहा था कि जीत को भारत की जीत बनाकर कौन जोरदार जश्न मनाए और जश्न को देशभक्ति बनाकर कौन ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचाए? सोचिए ददजू, कितनों का कितना नुकसान हो गया। कितनों के अरमानों पर पानी फिर गया, कितनों का उछाह मारता मनोबल गिर गया। दरअसल, ददजू, हमारी हार किसी बुरे ग्रह का असर है, यह राष्ट्रीय शोक का अवसर है।’ झल्लन की वाणी विगलित हो रही थी।
हमें झल्लन की बात पूरी तरह सही लग रही थी, मगर यह क्या बात हुई कि एक मैच जीते तो देशभक्ति आसमान चढ़ गई और एक मैच हारे तो उजड़ गई। एक मैच जीत गए तो खुशी से नाचने लगे एक मैच हार गए तो मातम मनाने लगे। यही बात हमने झल्लन को समझाई तो झल्लन बोला, ‘ददजू, इस देश में खुश होने के मौके कहां मिलते हैं, कब मिलते हैं? देश की राजनीति खुश होने नहीं देती, अर्थनीति खुश होने नहीं देती और देश के धर्मो ने तो जैसे कलेश करने का ठेका ही ले रखा है। किस बात पर खुश हों? सरकार उपलब्धि गिनाती है तो विपक्ष दुखी कर देता है, विपक्ष उपलब्धि गिनाता है तो सरकार दुखी कर देती है। आखिर पूरा देश किस बात पर खुश हो सिवाय क्रिकेट की जीत के? अगर क्रिकेट में भी हार जाएं तो खुश होने कहां जाएं, दुख तो होगा न ददजू।’
हमें जय-पराजय में समान रहने का गीता के कर्मयोग का लोक याद आ रहा था पर हम उसे पचा गए अंदर ही दबा गए। हमारे विचार झल्लन के दुख में समां गए।
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