रेलवे : पीपीपी से कितना निखरेगी?
हाल में आम बजट पेश करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन ने साफ संकेत दे दिया है कि तमाम अहम परियोजनाओं के लिए भारतीय रेल पीपीपी की राह पर उतरेगी।
रेलवे : पीपीपी से कितना निखरेगी? |
इसी के तत्काल बाद रेलवे ने दिल्ली लखनऊ तेजस एक्सप्रेस को निजी आपरेटर के हवाले करने की पहल की तो काफी हलचल तेज हो गई। सरकार का मानना है कि 2030 तक भारतीय रेल को 50 लाख करोड़ रुपये के निवेश की दरकार होगी और ऐसा मौजूदा संसाधनों की गति से संभव नहीं होगा।
सरकार रेल लाइनों के निर्माण से लेकर रोलिंग स्टाक और यात्री और माल भाड़ा सेवा में पीपीपी या सार्वजनिक निजी भागीदारी पर जोर दे रही है। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने भी बीते कई महीनों से रेलों को पटरी पर लाने की दिशा में तमाम कोशिश की है, जिससे 2018-19 में रेल दुर्घटनाओं में कमी आई है और कई सुधार दिख रहे हैं। लेकिन रेलवे के यात्री यातायात क्षेत्र में चुनौतियां पहले से भी जटिल हो गई हैं। खास तौर पर गाड़ियों की लेटलतीफी और खान पान सेवा को लेकर इसे काफी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है। रेलवे ने 2018-19 में 1159.55 मिलियन टन माल ढुलाई। मगर रेल यात्रियों की संख्या महज 2.09 फीसद बढ़ी। फिर भी बीते सालों में बड़ी लाइनों से मानवरहित लेवल क्रॉसिंग हटाने के साथ कई पहल की गई है। फिर भी सबसे अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में चरमरा रही रेल सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनी। भारतीय रेल रोज आस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर और करीब ढाई करोड़ मुसाफिरों को गंतव्य तक पहुंचा रही है। उसका परिचालन अनुपात लगातार बढ़ रहा है और कर्मचारियों की संख्या घट रही है। करीब 204 रेल परियोजनाओं की लागत 1.82 लाख करोड़ रु पये बढ़ गई है।
इस समय रेलवे के पास 183 नई लाइन, 57 आमान परिवर्तन और 263 लाइन दोहरीकरण समेत कुल 503 परियोजनाएं कई स्तरों पर चल रही हैं, जिनके लिए भारी लागत की दरकार है। इनमें से 78 परियोजनाएं उत्तर प्रदेश से संबंधित हैं। लेकिन कुल मिला कर रेलवे के निजीकरण के संकेत के बाद से खास तौर पर रेल कर्मचारियों और उपभोक्ताओं में एक नई बहस छिड़ी है। उदारीकरण के बाद अभी भी रेलवे और डाक क्षेत्र में सरकारी एकाधिकार कायम है। भारतीय डाक पर तो निजी कुरियर कंपनियों ने बुरा असर डाला परंतु रेलवे को निजी क्षेत्र से चुनौती नहीं मिली। हालांकि यह भी सच है कि संसाधनों की तंगी और अपेक्षित बजटरी सहायता न मिलने के नाते रेलों के आधुनिकीकरण और विस्तार को गति नहीं मिल पाई। इसके लिए रेलवे अपने संसाधनों और कर्ज पर ही निर्भर है। पहले उसने निजी निवेश या पीपीपी की दिशा में जो कदम उठाए वे खास कारगर नहीं रहे। रेलवे ने निजी निवेश उन इलाकों में खोला, जो गैर प्रमुख क्षेत्र थे। इस नाते निजी क्षेत्र ने इसमें दिलचस्पी नहीं ली। दूसरी ओर रेलवे की ट्रेड यूनियनों का भी भारी विरोध इसमें आड़े आया। मगर अब सरकार तमाम क्षेत्रों को खोलने के लिए तैयार दिख रही है।
अतीत को देखें तो पता चलता है कि बंदरगाहों, दूरसंचार और हवाई अड्डों के मामलों में यह काफी कारगर रहा मगर पीपीपी से रेलवे में निवेश नहीं बढ़ा। बाद में रेलवे में आधारभूत परियोजनाओं में एफडीआई का फैसला भी यूनियनों के विरोध के बावजूद हुआ और इलेवेटेड रेल कॉरिडोर मुबई, हाई स्पीड ट्रेनों और डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, इंजन और कोच बनाने के कारखानों में 100 फीसद एफडीआई को मंजूरी दी गई। किंतु रेल परिचालन, टिकट बिक्री और रेल संरक्षा को इससे दूर रखा गया है। भारतीय रेल के चर्चगेट-विरार-मुंबई उपनगरीय रेल कॉरिडोर, मुंबई-अहमदाबाद हाईस्पीड कॉरिडोर, स्टेशनों के पुनर्विकास, लॉजिस्टिक पार्क और निजी माल टर्मिंनल, बंदरगाह कनेक्टिविटी और कैप्टिव बिजलीघर निजी निवेश के लिए खुले मगर उत्साहजनक परिणाम नहीं दिखे। उदारीकरण के बाद रेलवे ने 1992 में बोल्ट और ‘ओन योर वैगन’ स्कीम शुरू हुई। इससे सालाना 500 करोड़ रुपये निवेश की उम्मीद थी, लेकिन हासिल 40 करोड़ से भी कम हुआ। बाद में कई नये मॉडल बने, जो कारगर नहीं रहे। तमाम दावों के बाद भी 2002 से 2010 के दौरान महज 4428 करोड़ रु पये निजी निवेश से आए, जो रेलवे जैसे विशाल संगठन के लिए ‘ऊंट के मुंह में जीरा बराबर थे। रेल डिब्बों व कोचिंग डिपो की मशीनी धुलाई और साफ-सफाई के साथ तमाम गाड़ियों में खान पान ठेके निजी क्षेत्र को दिए गए हैं, लेकिन सेवा की गुणवत्ता पर बहुत अधिक सवाल उठ रहे हैं। फिर भी हाल के सालों में रेलवे ने निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए नीतियों को काफी उदार किया है। कुछ नये कदम उठे हैं। हाल के सालों में स्वदेशी इंजन रहित ट्रेन यानी टी-18 एक सफलता की कहानी मानी जा सकती है।
सरकार 2022 तक डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर को साकार करना चाहती है, जिसके बाद भारतीय रेल की गति के साथ तस्वीर कुछ बदलेगी और क्षमता का विकास होगा। रेलवे परियोजनाओं के वित्त पोषण के लिए पीपीपी के प्रस्ताव के साथ समन्वित परिवहन ढांचे पर भी सरकार का जोर है। सारे रेल नेटवर्क को विद्युतीकृत करने की दिशा में भी सरकार आगे बढ़ रही है, जो रेलवे के लिए फायदेमंद हो सकता है। मगर इस पर 32,591 करोड़ रुपये का भारी व्यय होना है। फिर भी यह साकार हुआ और सारी गाड़ियां बिजली से चलने लगेंगी तो ईधन बिल में सालाना 13,510 करोड़ की बचत होगी और पर्यावरण को भी फायदा होगा। एक बड़ी चिंता रेलवे में कर्मचारियों की संख्या का लगातार घटते जाना भी है। 1991 में 18.7 लाख रेल कर्मचारी थे, जो अब घट कर 13 लाख से भी कम रह गए हैं। काफी बड़ी संख्या में खाली पड़े पदों में एक बड़ी संख्या संरक्षा श्रेणी की है।
रेलगाड़ियां बढ़ रही हैं और स्टाफ घट रहा है, जिससे अव्यवस्थाएं और बढ़ रही हैं। भारतीय रेल का सामाजिक सेवा दायित्व और लागत बेइंतहा बढ़ते रहना उसकी सेहत के लिए चिंताजनक बना हुआ है। अभी भी 40 फीसद रेलवे नेटवर्क बुरी दशा से गुजर रहा है। इस पर लगभग 80 फीसद यातायात चल रहा है। यह हाई डेन्सिटी नेटवर्क (एचडीएन) अति संतृप्त हो चुका है, लिहाजा अनुरक्षण के लिए समय देने, बेहतर उत्पादकता एवं संरक्षा के लिए इन्हें अपग्रेड किए जाने और इनकी क्षमता का विस्तार किए जाने की आवश्यकता है। इन चुनौतियों को लेकर रेलवे को एक ठोस रणनीति बनानी जरूरी है। विस्तार अलग पक्ष है और मौजूदा सेवाएं समय से और बेहतर चलें यह एक अलग पक्ष।
| Tweet |