ईरान-अमेरिका : लड़ें नहीं, बात करें

Last Updated 10 Jul 2019 06:37:35 AM IST

खाड़ी में बीते दो सप्ताह से टकराव की नौबत बनी हुई है। इसलिए कि ईरान ने ब्रिटेन को चेताया है कि सीरिया में तेल भेजने से रोकने के नाम पर जिब्राल्टर में रॉयल मैरीन्स ने ईरानी सुपर टैंकरों को कब्जे में लिया तो वह जवाबी कार्रवाई करेगा।


ईरान-अमेरिका : लड़ें नहीं, बात करें

ईरान ने अमेरिका के आशंकित साइबर हमले का मुकाबला करने के लिए तैयारियां भी आरंभ कर दी हैं।
अमेरिका युद्ध की धमकी जारी रखे हुए है। प्रतिकिया में ईरान ने सीमा से ज्यादा यूरेनियम संवर्धन की धमकी दी है। यह सीमा ज्वाइंट कंप्रेहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) द्वारा निर्धारित की गई थी, जिस पर 2015 में ईरान ने हस्ताक्षर किए थे (आम तौर पर इसे ईरान परमाणु समझौता के नाम पर जाना जाता है)। यूरोपीय संघ के देशों द्वारा इस समझौते से अभी तक हाथ न खींचे जाने के बावजूद फ्रांस ने ईरान से आग्रह किया है कि वह सीमा से ज्यादा यूरेनियम संवर्धन करने की दिशा में आगे न बढ़े। नाटो की जहां तक बात है, उसके सदस्य देशों की राय अलग-अलग है। बहरहाल, अमेरिका द्वारा कतर में एफ 22 की तैनाती से खाड़ी में आक्रामक माहौल है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 24 अप्रैल, 2019 को एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए, जिसमें ईरान पर कुछ और आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं। साफ है कि अमेरिकी ड्रोन के ईरान के वायु क्षेत्र (अमेरिका का दावा है कि यह अंतरराष्ट्रीय वायु क्षेत्र है) में मार गिराए जाने के प्रतिक्रियास्वरूप ये प्रतिबंध लगाए गए। अमेरिका अपने तरकश का हर तीर ईरान के खिलाफ आजमा लेना चाहता है।

अतिरिक्त प्रतिबंध, कटौती, वार्ता और संभव हो तो एक और सौदा, वह सभी विकल्पों पर विचार कर रहा है। अमेरिका का दावा है कि ईरानी मिसाइलों पर साइबर हमलों का आदेश देने के बाद से उसने अभी तक संयम बनाए रखा है। हालांकि ईरान ने कहा है कि उस पर इससे कोई असर नहीं पड़ा। इससे तत्काल बाद व्यावसायिक जलयानों पर हमले से घटनाक्रम गरमा गया। अमेरिका ने  आरोप लगाया कि हमला ईरान ने किया जबकि ईरान ने इसमें अपनी कोई भूमिका होने से इनकार किया है। बहरहाल, कोई ऐसा पुष्टिकारक प्रमाण नहीं मिला है, जिससे पता चलता हो कि यह ईरान ने किया था। लेकिन इससे होरमुज स्ट्रैट वैश्विक पटल पर मुद्दे के रूप में उभर आई है। ये तमाम घटनाक्रम अमेरिका के उस एजेंडे के चलते उभरे हैं, जिनमें अमेरिका का प्रयास है कि ईरान के प्रभाव को नियंत्रण में रखे ताकि इस्रइल और सीरिया सुकून से रह सकें क्योंकि ईरान चाह कर भी अमेरिका की धरता के लिए खतरा नहीं बन सकता। चर्चा के विषय हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप ने जेसीपीओए से बाहर निकलना क्यों जरूरी समझा? क्यों ईरान पर पुन: प्रतिबंध लगाए? क्या उनके पास कोई बेहतर योजना थी, जिससे वह मनचाही कर सकते थे या मात्र चुनावी वादे पूरा करने की विवशता थी यानी उनके घरेलू दबाव थे जिनके चलते उन्होंने यह सब किया। 
जेसीपीओए ऐसी स्थिति में पहुंचने के लिए की गई थी, जहां ईरान परमाणु हथियार बनाने के उपक्रम से हाथ खींच ले और बदले में अमेरिका और उसके सहयोगी ईरान लगे प्रतिबंधों को कम से कम कर सकें। आईएईए ने ईरान द्वारा समझौता का कोई उल्लंघन नहीं किए जाने की बात कही है। कह सकते हैं कि यह समझौता सिरे चढ़ाने योग्य था। भले ही कुछ संशय, आरोप-प्रत्यारोप रहे हों। राष्ट्रपति ट्रंप समझौता से बाहर निकल कर अपने चुनावी वादे को पूरा किया। जो अतिरिक्त प्रतिबंध ईरान पर थोपे गए हैं, वे अमेरिका और इस्रइल के इन कथनों पर आधारित हैं कि ईरान तय सीमा से ज्यादा मात्रा में यूरेनियम संवर्धन कर रहा है। अभी जो ताजा सूची अमेरिका और इस्रइल ने जारी की है, उसमें वे चाहते हैं कि ईरान अपने परमाणविक अस्त्र कार्यक्रम को रोक दे। यूरेनियम संवर्धन और परमाणु चालित बैलेस्टिक मिसाइल प्रणालियों को  स्थायी रूप से बंद कर दे। न केवल इतना बल्कि इसकी अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों द्वारा निरीक्षण भी कराए। यह भी चाहते हैं कि ईरान सीरिया से पूरी तरह बाहर निकले। यमन में होथी उग्रवादियों और अफगानिस्तान में तालिबान को समर्थन देना बंद कर दे। साथ ही, इराक में शिया उग्रवादियों को हथियार डलवाने में सहायता करे। लेबनान में हिज्बुल्ला को समर्थन देना बंद कर दे।
फिलीस्तिीन और गाजा में हमस   को समर्थन नहीं दे। सऊदी अरब पर ऐसे प्रतिबंध नहीं होने के चलते ईरान ने इन नई शतरे को मानने से इनकार कर दिया है। वह मानता है कि सऊदी अरब पर ऐसे प्रतिबंध न होने से शिया समुदाय का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। उसकी अपात्ति इस पर भी है कि उसके कट्टर विरोधी सऊदी अरब को अमेरिका सैनिक दृष्टि से मजबूत कर रहा है। अमेरिका अब ईरान पर आर्थिक, राजनयिक इलेक्ट्रॉनिक और साइबर युद्ध समेत सूचना युद्ध छेड़ सकता है। हो सकता है कि पारंपरिक युद्ध की स्थिति नहीं आए। दरअसल, मध्य-पूर्व में उसका पिछला अनुभव कटु रहा। तो वह ऐसा युद्ध छेड़ने से बचे रहना चाहेगा। अमेरिका की मुख्य भूमि को ईरान से सीधा खतरा नहीं है। इसलिए चुनाव की तरफ बढ़ते देश के राष्ट्रपति किसी अन्य के लिए ऐसे युद्ध की हिमाकत नहीं करना चाहेंगे। उत्तर कोरिया, दक्षिण चीन सागर और चीन के साथ व्यापार युद्ध पहले से ही उसे हलकान किए हुए हैं। ईरान की प्रतिक्रिया में भी एक किस्म की बेताबी दिखती है। भले ही वह सोचता हो कि उसे अलग-थलग कर दिया गया है, लेकिन मुझे उसके द्वारा साठ दिन का अल्टीमेटम दिया जाना बेवजह लगता है। यूरेनियम संवर्धन का स्तर खतरनाक स्तर ले जाने का उसका मंसूबा अति प्रतिक्रिया है। उस स्थिति में जबकि समझौते से यूरोपीय संघ के देश बाहर नहीं हुए हैं, और उन्होंने अमेरिकी कार्रवाई की निंदा भी की है।
चीन और कुछ अन्य देश सहयोग नहीं करते हैं तो ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया जाना भी बेमानी रहेगा। खाड़ी में अशांति और होरमुज खाड़ी के हालात ने वैश्विक तेल की आवाजाही को बुरी तरह प्रभावित किया है। चीन, भारत और जापान जैसे देशों पर तो खासा असर डाला है। ईरान से भारतीय मुद्रा में भुगतान से तेल मिलने में परेशानी के चलते भारत को डॉलर में कच्चा तेल खरीदना पड़ जाएगा। इससे उसके विदेशी मुद्रा के कोष पर विपरीत असर पड़ेगा। बहरहाल, मुझे लगता है कि ईरान के साथ समझौते से अभी तक यूरोपीय संघ के देश बाहर नहीं हुए हैं, इसलिए बहुद हद तक संभव है कि समस्या का कोई समाधान निकल आए।

एस.बी. अस्थाना


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