बजट का डिकॉलोनाइजेशन
पिछले दिनों मीडिया में तीन शब्दों का हल्ला रहा। पहला, ‘पांच ट्रिलियन की इकॉनमी’। दूसरा, ‘न्यू इंडिया’ यानी ‘नया भारत’ जो इन दिनों कुछ पुराना सा लगता है।
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तीसरा शब्द रहा: ‘डिकालोनाइजेशन’ यानी ‘वि-उपनिवेशीकरण’ यानी ‘अंग्रेजी उपनिवेश चिन्हों को मिटाना। इस बार वित्त मंत्री ने मौलिकता दिखाई। बजट को लाल रंग के ब्रीफकेस में नहीं लाई, बल्कि लाल कपड़े में लपेट कर लाई जिसे ‘बजट बही खाता’ बताया गया। इस नई पेशबंदी को देख यों ही हमेशा गद रहने वाला एक अंग्रेजी एंकर कह उठा, देखो, देखो यह है बजट का ‘डिकॉलोनाइजेशन’।
एक वक्त में नेहरू जी ने समाजवाद के सपने दिखाए तो हम सबने देखे न! फिर इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाने’ के सपने दिखाए। तो वो भी देखे। कइयों को आपातकाल तक बढ़िया सपना लगा। फिर राजीव भैया ने कंप्यूटर के सपने दिखाए और कंप्यूटर क्रांति हुई। फिर विनाथ से लेकर अटल जी तक ने सपने दिखाए। ऐसे ही सपनों के चक्कर में बाबरी तोड़ दी गई और राम मंदिर का सपना दिखाया जाने लगा। उसके बाद एनडीए वन में पंद्रह लाख से लेकर रोजगार के सपने दिखाए गए और हम देखते रहे और अब भारत के पांचवे पायदान की इकॉनमी बनाने का सपना देखने लगे। इसी सपने में अब ‘डिकॉॅलोनाइजेशन’ का सपना घुस गया है। सो, सोचने लगा कि कितना अच्छा है कि कोई है जो आज अंग्रेजों के उपनिवेशीकरण के छूटे हुए दाग-धब्बों को छुड़ाने में लगा है, और अपनी वाली भारतीय यानी शुद्ध देसी परंपरा शुरू कर रहा है। बताइए इकहत्तर बहत्तर साल तक हर बरस हमारे सभी वित्त मंत्रीजन बजट को लाल चमड़े के बैग में बंद करके लाते रहे। एनडीए ‘वन’ के वित्त मंत्री अरुण जेटली ब्रीफकेस में बजट लाते रहे। ‘कालोनाइजेशन’ के शिकार बने रहे। इसके मुकाबले नई वित्त मंत्री जी की प्रगतिशीलता देखिए कि उन्हीं ने लाल कपड़े में बजट देकर बजट को ‘डिकालोनाइज’ कर दिया!
लेकिन अगले ही क्षण हमारे इस ‘डिकॉलोनाइजेशन’ के जोश को धक्का लगा। हमें भी क्या सूझी कि फाइनेंस के ऊंचे दरजे के एक्सपर्ट से पूछ बैठे कि सर जी! बजट को हिंदी में क्या ‘बही खाता’ कहते हैं, तो उन्होंने साफ किया कि ‘बजट’ अलग है, और ‘बही खाता’ अलग! ‘बही खाता’ तो ‘एक्रुअल्स’ यानी रोजमर्रा के ‘जमा’ (क्रेडिट) और ‘खर्च’ (डेबिट) को बताने वाला होता है, जिसका पर्यायवाची अंग्रेजी में ‘लेजर’ है। बजट तो फ्रांसीसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है चमड़े का बैग। ‘बजट’ एक प्रकार का ‘वित्तीय नीति पत्र और विधन’ (फाइलीगल पॉलिसी डॉक्यूमेंट) होता है, जो देश और समाज का ‘आर्थिक नियोजन’ करता है। उसमें भविष्य का आर्थिक नक्शा दिया जाता है कि इसके जरिए समाज को किस दिशा में ले जाया जा सकता है जबकि ‘बही खाता’ ऐसा नहीं करता। वो तो दैनिक जमा-खर्च का हिसाब देता है। तब लाल कपड़े को देख उपनिवेशवाद विरोधी एंकर जी के कहे ‘डिकॉलोनाइजेशन’ मतलब क्या हुआ?
‘डिकॉलोनाइजेशन’ का मतलब है कि ‘कॉलोनाइजेशन’ के सभी निशानों को मिटा देना जैसे कि अंग्रेजी जो स्वयं ‘कॉलोनाइेजशन’ का सबसे बुरा धब्बा है, उसे मिटाना लेकिन आश्चर्य कि बजट उसी अंग्रेजी में आया। बीच में तमिल कविता की चारलाइनें अवश्य कुछ ‘डिकॉलोनाइज’ करती दिखीं लेकिन यह ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसा भी नहीं था। सचमुच का ‘डिकॉलानोइजेशन’ करना है तो पहले बजट को ‘हिंदी’ में और बही खाते वाले लाल कपड़े में लाया जाना चाहिए। फिर उस पर लक्ष्मी गणोश जी के चित्र होने चाहिए। किसी की नजर न लगे इसके लिए बही खाते के साथ हरी मिर्च और नींबू लटके होने चाहिए। साथ ‘श्री लक्ष्मी सदा सहाय’ और ‘ओं श्री लक्ष्म्यै नम:’ आदि भी लिखे रहने चाहिए। असली ‘डिकॉलोनाइजेशन’ करना है तो बजट को दीवाली पर लाया जाना चाहिए। साथ ही, उस दिन संसद में यज्ञ हो, सब आहुति दें, कुबेर जी का आह्वान कर उनकी पूजा करें। और प्रसाद स्वरूप हलवे की जगह पंजीरी और तुलसी दल वाला पंचामृत बंटना चाहिए। संसद में सत्यनारायण की कथा भी कही जानी चाहिए।
लेकिन फिर टीवी देखा तो पाया कि अपने हिंदू-मुसलमान भाई तो हर रोज ही अपने-अपने धर्म को जगा-जगा कर ‘डिकॉलोनाइजेशन’ करने में लगे हैं, टीवी और सोशल मीडिया उनकी नित्य मदद करते हैं। वे हर शाम दो-तीन हिंदू और दो-तीन मुसलमानों के बीच बहसों में ‘धर्म युद्ध’ कराते रहते हैं। देखते-देखते धर्म तत्ववाद और घृणा की देसी फसल लहलहाने लगती है। पांच ट्रिलियन की इकॉनमी और नया भारत ऐसे डिकॉलोनाइजेशन से होकर ही तो बनता है।
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