पासा फेंकता अमेरिका
‘आप अपनी परमाणु क्षमता की बात करते हैं, लेकिन हमारी क्षमता इतनी ज्यादा और शक्तिशाली है कि मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि उन्हें कभी इस्तेमाल करने का अवसर न आए।’ ये शब्द राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हैं, जो हनोई में किम जोंग उन के साथ वार्ता के स्थगित होने पर कहे थे।
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सवाल उठता है कि अब ऐसा क्या हो गया कि ट्रंप ने स्वयं उत्तर कोरियाई शासक किम जोंग उन को मिलने का प्रस्ताव दिया और फिर उनसे मुलाकात करने डीएमजेड (डिमिलिट्राइज्ड जोन) में पहुंच गए जिसे बिल क्लिंटन ने कभी दुनिया की सबसे खतरनाक जगह कहा था? एक सवाल और भी है कि ट्रंप ईरान के खिलाफ वैश्विक मुहिम छेड़े हुए हैं जिसने अभी तक परमाणु बम का निर्माण नहीं किया है, लेकिन उत्तर कोरिया के साथ दोस्ती करना चाहते हैं जो कि परमाणु संपन्न तानाशाही व्यवस्था वाला राज्य है, आखिर इसकी वजह क्या है?
डीएमजेड में किम जोंग उन के साथ मुलाकात पर ट्रंप का कहना था कि यह ‘ऐतिहासिक पल’ है, और उन्हें ‘दोनों कोरिया’ को बांटने वाली रेखा को पार करने पर गर्व है। प्रत्युत्तर में किम ने भी प्रेस को दिए एक दुर्लभ बयान में कहा कि उत्तर और दक्षिण कोरिया के विभाजन का प्रतीक समझी जाने वाली जगह पर मुलाकात दिखाती है कि हम पिछली बातों को छोड़ने के इच्छुक हैं। किम ने ट्रंप से अपनी पहली मुलाकात का जिक्र करते हुए यह भी कहा कि सिंगापुर में हमारी मुलाकात से पहले क्षेत्र में अशांति का माहौल था। अब एकदम शांति है। यहां एक अलग दुनिया दिख रही है। क्या वास्तव में ट्रंप और किम मिलकर नया भविष्य गढ़ना चाहते हैं ? या फिर ये ऐसे खूबसूरत शब्द मात्र हैं, जिनसे दुनिया आसानी से छली जा सकती है?
दरअसल, किम जोंग उन के सामने दो अहम विषय हैं-एक है चीन और दूसरा इंटरकांटिनेंट बैलेस्टिक मिसाल व परमाणु हथियार।
वे नहीं चाहते कि उनके किसी फैसले से चीन नाराज हो या चीन नहीं चाहता उसका एक सिपहसालार अमेरिकी खेमे में बिना उनके मिशन के चला जाए। उनकी दूसरी मंशा है कि उनके परमाणु हथियारों को वैधानिकता हासिल हो जाए। लेकिन ट्रंप इन दोनों विषयों पर अलग दिशा में चलना चाहते हैं। पहली यह कि ट्रंप प्योंगयांग-बीजिंग या कुछ हद तक प्योंगयांग-बीजिंग-मास्को त्रिकोण को तोड़ना चाहते हैं। उनकी असली लड़ाई चीन से है, और इसका क्षेत्र मुख्य रूप से इंडो-पेसिफिक है, जहां उत्तर कोरिया निर्णायक भूमिका निभा सकता है। वे शायद अच्छी तरह जानते हैं कि सिंगापुर में उनसे मिलने से पहले किम जोंग उन बीजिंग पहुंचे थे और राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात की थी। यह भी संभव है कि सिंगापुर पर में ट्रंप-किम मुलाकात के लिए किम की स्क्रिप्ट बीजिंग में ही लिखी गई हो। यही नहीं किम जोंग उन इसके बाद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से भी मिलने गए थे। मध्य-पूर्व, मध्य एशिया और यूरेशिया से लेकर प्रांत तक बीजिंग-मास्को बॉण्ड निरंतर मजबूती हासिल करता जा रहा है जो अमेरिकी खेमे के लिए बड़ी चुनौती है। ट्रंप इसी बॉण्डिंग को कमजोर करना चाहते हैं।
लेकिन यह इतना आसान नहीं है। कारण यह कि किम जोंग उन अपने परमाणु हथियारों को वैधानिक बनाना चाहते हैं जबकि ट्रंप उनका खात्मा। इसके बाद भी ट्रंप ने उन्हें मुलाकात का प्रस्ताव दिया और बीजिंग ने वाशिंगटन से पहले ही उनकी मेजबानी कर ली। इसका अर्थ तो यही निकलता है कि प्योंगयांग सामान्य हैसियत से ऊपर उठ चुका है। चूंकि अमेरिका अच्छी तरह जानता है कि बीजिंग-प्योंगयांग धुरी की तरफ शक्ति संतुलन शिफ्ट कर रहा है और ट्रांस-पेसिफिक क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव को बनाए रखने के लिए बीजिंग-प्योंगयांग बॉण्ड का टूटना जरूरी है। एक बात और, कारोबारी युद्ध और हिंद-प्रशांत में अमेरिका और चीन (या चीन-रूस) की हलचलें कुछ हद तक शीत युद्ध का संकेत दे रही हैं। हालांकि अभी दोनों ही सॉफ्ट पॉवर का इस्तेमाल कर रहे हैं।
फिलहाल, उत्तर कोरिया के सामने इराक और लीबिया जैसे उदाहरण हैं, इसलिए किम जोंग उन कम से कम उन गलतियों को नहीं दोहराना चाहेंगे जो सद्दाम हुसैन और मुअम्मर गद्दाफी ने की थीं। साथ ही वे चीन को भी नाराज करना नहीं चाहेंगे बल्कि उनकी कोशिश होगी कि रूस भी उनके साथ रहे। अमेरिका यह भली भांति जानता है। इसलिए वह जोंग उन की तरफ निरंतर पासा फेंकने का काम करेगा, जब तक वे फंस न जाए।
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