अवसाद : इलाज हैप्पीनेस करिकुलम

Last Updated 01 Jul 2019 12:14:47 AM IST

अवसाद और हैप्पीनेस दो प्रतिगामी शब्द हैं, लेकिन दोनों ही मन की स्थितियों से जुड़ीं समान गहन अवस्थाएं हैं।


अवसाद : इलाज हैप्पीनेस करिकुलम

अवसाद जहां न्यूरोट्रांसमीटर की गड़बड़ी से उत्पन्न होने वाली एक मानसिक अवस्था है, वहीं हैप्पीनेस, एनडोर्फिन नामक हार्मोन के स्रव से पैदा होने वाली एक खुशनुमा स्थिति। हाल के दिनों में अवसाद से जुड़े मामले एक खास तरह के साइको-इम्पैक्ट के रूप में सामने आ रहे हैं। अवसाद के चलते होने वाली हत्याओं और आत्महत्याओं की घटनाओं ने इसे एक बड़ी त्रासदी के रूप में प्रतिस्थापित किया है। एक अनुमान के अनुसार भारत की लगभग 4.5 प्रतिशत आबादी इस समय अवसाद के उच्चतम स्तर यानी ‘एक्यूट डिप्रेशन’ से जूझ रही है। 13 से 15 साल की उम्र के हर चार किशोरों में से एक को अवसाद है।
डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पूर्व एशिया के करीब 8.6 करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में हैं। रिपोर्ट से एक और चौकाने वाला तथ्य सामने आया है कि 10 दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में सर्वाधिक आत्महत्या दर भारत में है। इसमें ‘दक्षिण पूर्व एशिया में किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति’ संबंधी रिपोर्ट में यह बताया गया है कि भारत में 15-29 उम्र वर्ग के प्रति एक लाख व्यक्ति पर अवसाद संबंधी आत्महत्याओं की दर 35.5 है । अवसाद संबंधी ये आंकड़े स्थिति की गंभीरता और भयावहता की ओर इशारा करते हैं। दिल्ली में हालिया घटित हत्या की क्रूरतम घटनाओं ने यह साफ कर दिया है कि अवसाद अब एक मन:स्थिति से कहीं अधिक एक क्रूर मनोविकार का रूप ले चुका है। यह लोगों के सामाजिक और पारिवारिक जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। इसके चलते आपसी संबंधों में बिखराव, टकराहटें, क्लेश और अकेलापन तेजी से पैर पसार रहा है। वैयक्तिक रिश्तों में उलझनें पैदा हो रही हैं तो सामाजिक ताने-बाने बिगड़ रहे हैं। भागदौड़ भरी जिंदगी, असीमित आंकाक्षाएं और बढ़ती एकांतिक जीवनशैली ने अवसाद और तनाव जैसी समस्याओं को गहरे भीतर तक उतरने का अवसर दे दिया है। अकारण चिंता, उदासीनता,असंतोष,खालीपन,अपराध बोध,निराशा, मिजाज परिवर्तन, घबराहट, कार्य से असंतोष, शारीरिक अतृप्ति अवसाद की बड़ी वजहें बन रही हैं।

खुशनुमा माहौल, दोस्तों और सहयोगियों का सहयोगात्मक रवैया और सकारात्मक सोच व्यक्ति को अवसाद के क्षणों से निकालने के कुछ कारगर कदम माने जाते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक फ्रेमवर्क में सभी स्कूलों में हैप्पीनेस करिकूलम को समवेत रूप से स्वीकारने संबंधी दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं। वास्तव में स्कूल ही ऐसी जगह है, जहां बच्चों का उचित शारीरिक और मानिसक विकास होता है और  उनमें अच्छी प्रवृत्तियां प्रस्फुटित होने की तमाम संभावनाएं साकार रूप लेती हैं। खुश रहने की प्रवृत्ति अगर बच्चों में बचपन से ही विकसित हो जाये तो आगे चलकर युवावस्था में वे आसानी से कठिन परिस्थितियों में खुद को स्थिर और समयानुकूल बना पाने में सक्षम हो पाएंगे। दरअसल, खुश रहने की प्रवृत्ति एक लंबी प्रयोगात्मक प्रक्रिया है, जिसे स्कूली बच्चों की आदत में प्रत्यारोपित कर उम्र के ढ़लान तक अवसाद के क्षणों से बड़ी सरलता से निपटा जा सकता है। खुशहाली पाठ्यक्रम के तहत बच्चों को आभासी दुनिया से बाहर निकलकर वास्तविक दुनिया में घुलने-मिलने, शिक्षक और दोस्तों के साथ अपने भावनाओं को साझा करने और व्यवहार में साकारात्मक प्रवृत्ति विकसित करने का अवसर दिया जाता है। खुश रहने का सबसे आसान तरीका है, स्वयं को सकारात्मक बनाये रखना और यदि इसे स्कूली स्तर पर लागू कर दिया जाये तो निश्चित तौर पर आनेवाली पीढ़ी को अवसाद जैसी त्रासद स्थिति से मुक्ति दिलायी जा सकती है।
अवसादग्रस्त मानव बल से न कभी राष्ट्र के विकास में योगदान की अपेक्षा की जा सकती है और नहीं खुद व्यक्ति के परिवार व समाज की तरक्की की अभिलाषा। हमारी सांस्कृतिक विविधता और समुत्थानशक्ति समाज में एक खुशहाल समुदाय की सकारात्मकता का पैमाना माना जाता है; इसे स्कूली वातावरण में विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से बढ़ावा दिया जाये तो सकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं। बड़ों को सम्मान, विपरीत लिंग के प्रति सहयोगात्मक और आदरसूचक रवैया, अन्य संस्कृतियों के प्रति सम्मान, दूसरों के मूल्यों-विचारों को आदर, छोटों के लिए प्यार, व्यवहार-शिष्टाचार में बदलाव और मूल्य आधारित हैप्पीनेस की विभिन्न प्रविधियों के जरिये स्कूल स्तर पर ही बच्चों की प्रवृत्ति में इसे डाला जाना जरूरी है। तभी एक स्वस्थ्य-खुशहाल पौध तैयार किया जा सके।

डॉ. दर्शनी प्रिय


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