विश्लेषण : आर्थिक उदारीकरण का सच

Last Updated 17 Jun 2019 07:43:00 AM IST

मध्य वर्ग और मीडिया के लिए किसानों की समस्याएं और गरीबी आज भी देश की मुख्य समस्याओं में नहीं आतीं।


विश्लेषण : आर्थिक उदारीकरण का सच

मध्य वर्ग के लोग आमतौर पर किसानों के प्रति रौमैंटिक और अनालोचनात्मक ढंग से सोचते हैं। किसान के मनोविज्ञान की समाज ने कभी आलोचनात्मक समीक्षा नहीं की। वहीं दूसरी ओर किसान के साथ मध्य वर्ग का दर्शकीय संबंध है। हम नहीं जानते कि किसान कैसे रहता है? किस मनोदशा में रहता है? कैसे खाता-पीता है? खेती-बाड़ी में उसे किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है? आदि समस्याओं के बारे में मध्यवर्ग और मीडिया की अनिभज्ञता ने बृहत्तर किसान समाज के साथ अलगाव पैदा किया है। वहीं दूसरी ओर मीडिया में किसान के बारे में सही चेतना पैदा करने वाले पत्रकार बहुत ही कम हैं। 
पिछले दो दशक में हजारों किसानों की आत्महत्या पर तरह-तरह के लेख लिखे गए। किसान को इस प्रक्रिया में हमने जाना कम और सनसनीखेज ज्यादा बनाया। ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया एक ऐसा मीडियम है, जिसके जरिए हम किसानों के बारे में अपने इलाकों के अनुभवों और समस्याओं को उठा सकते हैं, लेकिन वहां पर भी सन्नाटा पसरा हुआ है। भारत के किसान की आज केंद्रीय समस्या क्रांति नहीं है। किसान की प्रधान समस्या कर्जा भी नहीं है। किसान की कई प्रधान समस्याएं हैं। ये हैं, कृषि उपज के सही दाम, समय पर फसल की खरीद, विनिमय-वितरण की अत्याधुनिक व्यवस्था, गांवों में शिक्षा और बिजली की व्यवस्था, साथ ही भूमि के केंद्रीकरण के खिलाफ सख्त कानून, वितरण और खरीद की व्यवस्था के साथ-साथ कृषि उपज के काम आने वाली वस्तुओंकी सहज रूप में गांव में बिक्री की व्यवस्था। जिन किसानों के पास पैसा नहीं है उनको सस्ती ब्याज पर बैंकों से कर्ज मुहैया कराने की व्यवस्था की जाए,बैंकों के कर्ज वसूली सिस्टम को सहज और जनहितकारी बनाया जाए।

इसके अलावा किसानों के जीवन में व्याप्त भूख, गरीबी, खान-पान और जीवनशैली के वैविध्य पर भी बहस होनी चाहिए। किसान को मिथकीय या रूढ़िबद्ध मान्यताओं के बाहर लाकर विश्लेषित किया जाना चाहिए। किसान नेताओं का किसानों के साथ अनालोचनात्मक संबंध भी एक बड़ी समस्या है। जो लोग किसानों में काम करते हैं, उनको अपने सामंती भावबोध और सामंती आचरण से निजी और सामाजिक तौर पर संघर्ष करने की जरूरत है। हमारे अनेक किसान नेता किसान के मनोविज्ञान की गहरी पकड़ से वंचित हैं। यह बात उनके लेखन और कर्म में आसानी से देखी जा सकती है। जो लोग किसानों में क्रांति का बिगुल बजाते रहते हैं, वे कृपया किसानों में कुछ समय उनके मनोविज्ञान की मीमांसा पर भी खर्च करें तो बेहतर होगा। क्रांति और कर्ज की महत्ता पर लिखने की बजाय किसान खाएं-पीएं इस सवाल पर ध्यान दें तो बेहतर होगा। अब तक का अनुभव बताता है कि किसानों से विगत सरकारों के जरिए हथियाई गई दस लाख एकड़ से ज्यादा जमीन पाने के बावजूद देश की उत्पादकता में कोई इजाफा नहीं हुआ है। नये कारखाने बहुत कम इलाकों में खुले हैं, अधिकतर सेज के इलाके सूने पड़े हैं।
मोदी सरकार कम-से-कम सीएजी की रिपोर्ट को ही गंभीरता से देख लेती तो उसे सेज प्रकल्पों की दशा का अंदाजा लग जाता। मगर सरकार ने तय कर लिया है कि हर हालत में राष्ट्रीय संपदा और संसाधनों को कारपोरेट घरानों के हाथों में सौंप देना है। किसानों में बड़ा हिस्सा दलितों और आदिवासियों का है। जनगणना के ताजा आंकड़े दलितमुक्ति, आदिवासी मुक्ति या विकास की पोल खोलते हैं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि इन वगरे में गरीबी अभी भी बड़े पैमाने पर है। ताजा सर्वे के अनुसार देश में 24.39 करोड़ परिवार रहते हैं। इनमें से 17.91 करोड़ परिवार गांवों में रहते हैं। गांवों में रहने वाले परिवारों में 10.69 करोड़ परिवार अतिगरीब और पिछड़े हैं। जनगणना में बताया गया है कि गांवों में रहने वाले 30 फीसद परिवार अनुसूचित जाति-जनजाति के हैं। इनकी सटीक संख्या 29.43 प्रतिशत है। पंजाब में सबसे ज्यादा एससी जनसंख्या है। यानी 36.74 प्रतिशत। इसके बाद पश्चिम बंगाल में 2.8.45 प्रतिशत, तमिलनाडु 25.55 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश 23.97 प्रतिशत। इसके अलावा अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या के मामले में मिजोरम अव्वल है। मिजोरम में 98.79 प्रतिशत, लक्षद्वीप 96.59 प्रतिशत, नगालैंड 93.91 प्रतिशत, मेघालय 90.36 प्रतिशत।
जनगणना में अनुसूचित जाति की आबादी 18.46 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की आबादी 10.97 प्रतिशत आंकी गई है। इनमें अधिकांश अतिदरिद्र हैं। इन तक कोई क्रांति नहीं पहुंची है। देश की ग्रामीण आबादी में तकरीबन 24 फीसद परिवार ऐसे हैं, जिनमें 25 साल की उम्र तक का कोई भी व्यक्ति साक्षर नहीं है। लंबे वाम शासन के बाद भी  मैला ढोने की प्रथा में देश में त्रिपुरा अव्वल है। जबकि गुजरात, हिमाचल, गोवा,  तेलंगाना, आंध्र, तमिलनाडु, केरल, मणिपुर, असम में मैला ढोने की प्रथा खत्म हो चुकी है। ताजा आंकड़े कह रहे हैं कि नव्य आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने कोई बुनियादी बदलाव नहीं किया है। खासकर ग्रामीण भारत के लिए तो ये नीतियां तबाही और विस्थापन लेकर आई हैं। तकरीबन 75 फीसद ग्रामीण परिवारों की आमदनी 5 हजार रु पये प्रतिमाह से भी कम है और मात्र 8.3 प्रतिशत ग्रामीण परिवार हैं, जिनकी आमदनी 10 हजार रुपये प्रतिमाह है। संचार क्रांति से असमानता कम नहीं होती बल्कि बढ़ती है। ये आंकड़े चेतावनी है डिजिटल इंडिया का सपना बेचने वालों के लिए। इससे आर्थिक और सूचना दरिद्रों की संख्या में इजाफा हुआ है। 
ताजा आर्थिक जनगणना आंकड़े बताते हैं कि संचार क्रांति गांवों तक पहुंची है-56 प्रतिशत लोगों के पास जमीन और संपत्ति के नाम पर कुछ भी नहीं है, लेकिन 68.35 प्रतिशत ग्रामीणों के पास मोबाइल फोन है। भाजपा शासित राज्यों और गैर भाजपा शासित राज्यों में संचार क्रांति की दशा की अवस्था देखनी हो तो ताजा आंकड़े आंखें खोलने वाले हैं। मसलन, यूपी का ग्रामीण इलाका मोबाइल फोन क्रांति में अव्वल है और दस साल तक भाजपा शासित रहा आदर्श राज्य छत्तीसगढ़ सबसे निचले पायदान पर खड़ा है। देश में मोबाइल की पहुंच 68.35 प्रतिशत है, उत्तराखंड में 86.60 प्रतिशत है, यूपी इसके पास ही खड़ा है, इसके बाद सिक्किम आता है जहां पर 84.90 प्रतिशत तक मोबाइल की पहुंच है। कह सकते हैं कि उदारीकरण ने हमें भले काफी कुछ महैया कराया मगर मध्य वर्ग के लिए अभी भी बहुत कुछ करना शेष है।

जगदीश्वर चतुर्वेदी


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