लैंगिक समानता और नीचे लुढ़के हम
देश के नीति-निर्माता स्त्री-पुरुष के बीच असमानता को खत्म करने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत क्या है।
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इसका खुलासा वैश्विक स्त्री-पुरुष समानता सूचकांक की हाल ही में आई रिपोर्ट से होता है। इसमें भारत, दुनिया के 129 देशों में से 95वें पायदान पर है। यह सूचकांक गरीबी, स्वास्थ्य, शिक्षा, साक्षरता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और कार्यस्थल पर समानता जैसे पहलुओं का आकलन करता है। इस सूचकांक में हमारे पड़ोसी देश चीन को 74वां स्थान मिला है। वहीं भारतीय महाद्वीप के दीगर देश पाकिस्तान 113वें और बांग्लादेश 110वें पायदान पर है जबकि पहले स्थान पर डेनमार्क है। रिपोर्ट से मालूम चलता है कि स्त्री-पुरुष के बीच समानता के मामले में हमारे यहां स्थिति सुधरने की बजाय और भी बदतर हुई है। तमाम सरकारी, गैर सरकारी कोशिशों के बावजूद देश में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता और भी बढ़ी है। स्त्री-पुरुष के बीच असमानता की खाई को यूरोपीय देशोें ने अपने यहां ज्यादा बेहतर तरीके से पाटा है। जबकि हमारे देश में स्त्री-पुरुष के बीच समानता की कोशिशें अभी भी नाकाफी हैं। सरकार को हर क्षेत्र में पहले से ज्यादा काम करने होंगे।
यह रिपोर्ट ब्रिटेन की इलि मेजर्स 2030 ने तैयार की है। यह अफ्रीकन वुमेंस डेवलपमेंट एंड कम्युनिकेशन नेटवर्क, एशिया पैसेफिक रिसोर्स एंड रिसर्च सेंटर फॉर वुमेन, बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, इंटरनेशनल वुमेन्स हेल्थ कोलिन समेत क्षेत्रीय और वैश्विक संगठनों का एक संयुक्त प्रयास है। रिपोर्ट में खास तौर से यह देखने की कोशिश की जाती है कि दुनिया में लैंगिक समानता के स्तर पर क्या सुधार आया? और विभिन्न देश अपने यहां स्त्री एवं पुरुष के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा, राजनीतिक भागीदारी, संसाधन और अवसरों का वितरण किस तरह से करते हैं? नए सूचकांक में 17 आधिकारिक सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में से 14 के 51 संकेतक शामिल हैं।
सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि भारत, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में निचले पायदान पर है। एशिया और प्रशांत के 23 देशों में उसे 17वें स्थान पर रखा गया है। ऐसा नहीं कि भारत की स्थिति हर क्षेत्र में निराशाजनक है, कुछ क्षेत्रों में देशों ने तरक्की भी की है। मसलन, भारत का सबसे ज्यादा स्कोर, एसडीजी तीन के स्वास्थ्य क्षेत्र (79.9), भूख और पोषण (76.2) और ऊर्जा क्षेत्र (71.8) में रहा। वहीं सबसे कम स्कोर भागीदारी क्षेत्र (18.3), उद्योग, बुनियादी ढांचा और नवोन्मेष (38.1) और जलवायु (43.4) में रहा।
लैंगिक समानता के मामले में भारत की स्थिति में गिरावट कोई नई बात नहीं है। हमारे यहां यह सूचकांक कई सालों से ज्यों का त्यों हैं। इसमें कोई खास तब्दीली नहीं आई है। सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर देखें, तो कई स्तरों पर हमारे देश में महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है। देश में जब उदारीकरण, निजीकरण और वैीकरण जैसी आर्थिक नीतियां अमल में आईं, तो एकबारगी यह लगा कि अब महिलाओं की स्थिति सुधरेगी। उनको भी पुरुषों की तरह हर क्षेत्र में समानता का अवसर मिलेगा। श्रम का फेमिनाइजेशन होगा। लेकिन यह भ्रम बहुत जल्द ही टूट गया। खासकर भूमंडलीकरण के दौर के बाद हमारे यहां महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ी है।
उदारीकरण का पिछले दो दशकों का तजुर्बा हमें यह बतलाता है कि समाज में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता बढ़ी है। देश में तमाम क्षेत्रों में विकास की प्रक्रिया के दौरान महिलाओं के हिस्से में असमानता ही आई है। आंकड़े खुद गवाही देते हैं कि उदारीकरण के दौर में लाखों महिलाओं के हाथ से काम छिना है। एनएसएसओ के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक शहरों में महिलाओं की बेरोज़गारी दर 10.8 प्रतिशत पर है।
एक महत्त्वपूर्ण बात और, जिन क्षेत्रों में महिलाएं कार्यरत हैं, वहां भी महिलाओं के लिए कार्य दशाएं उपयुक्त नहीं हैं। उन्हें सुरक्षित माहौल नहीं मिलता। उनके साथ मानसिक और शारीरिक हिंसा की जाती है। हर साल देश में महिला हिंसा के लगभग 30 हजार मामले दर्ज होते हैं, जिसकी वजह से उनके मन में हमेशा असुरक्षा का भाव रहता है। राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी और योजनाओं को ठीक ढंग से लागू करने में नौकराही की कोताही लैंगिक समानता के स्तर पर भारत के पिछड़ने की मुख्य वजह रही हैं। यह स्थिति सुधर सकती है बशत्रे की कोशिश की जाए। सबसे पहले हमें समाज में महिलाओं के प्रति हिंसा और अपराध को कम करना होगा। उन्हें हर जगह सुरक्षित माहौल देना होगा। अगर सामाजिक क्रांति होगी, तो महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी भी बढ़ेगी। इसके लिए मजबूत पहल लाजिमी है।
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