बतंगड़ बेतुक : कोपभवन से बाहर आया बालक
वह बढ़ती उम्र का छोटा बालक था। वंश परंपरा का पालक था। बजन उठाने लायक था या नहीं, इसका मूल्यांकन परंपरा में नहीं था।
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इसलिए वह अपनी पुरा पार्टी का संचालक था। उसके चारों तरफ क्षत्रप थे, महामंत्री थे, मंत्री थे, सलाहकार थे, चिंतक-विचारक थे, कुछ धर्मनिरपेक्ष थे तो कुछ धर्मसापेक्ष थे, धनपति थे, बलपति थे पर सब उसके मुखापेक्ष थे। वे पीठ पीछे चाहे जैसे दांत किटकिटाते हों पर उसके सम्मुख दांत निपोरते थे, मुंह बंद रखते थे, हाथ जोड़ते थे, उसकी प्रशस्ति में लंबी-लंबी छोड़ते थे। ये सब गुण कौशल, नीति-रणनीति जानते थे, पर अकेले दम कुछ कर पाने में स्वयं को विवश मानते थे। इनमें से हर कोई जानता था कि वह आगे बढ़ेगा तो कोई न कोई जरूर चिढ़ेगा, उसकी टांग में टांग अड़ा देगा और मुंह के बल गिरा देगा। अत: सब क्षत्रपों के बीच अलिखित समझदारी बन गयी थी कि न कोई आगे बढ़ेगा न कोई दावेदारी पेश करेगा। जो जहां है, वहीं रहेगा और जो बालक कहेगा वही करेगा।
अब क्षत्रपों का सारा कौशल इसमें निहित था कि बालक से क्या कहलाया जाये और क्या करवाया जाये जिससे उनका काम भी निकलता रहे, उनका प्रभाव भी बढ़ता रहे और जो वर्षो से उनका खेल चल रहा है, वह भी चलता रहे। उन्हें 2019 की समरभूमि में उतरना था, युद्ध क्षेत्र को उलट-पुलट करना था, पिछली बार जो बुरे परिणाम आये थे, उनका चेहरा बदलना था। युद्ध का नेतृत्व कौन करे, दायित्व का भारी जुआ अपने कंधों पर कौन धरे? वे आंख खोलते तो अपने अलावा बालक नजर आता और आंखें बंद करते तो भी पलकों पर बालक उतर आता। वे सब अंदर से खिन्न पर ऊपर से प्रसन्न बालक के समक्ष करबद्ध हुए, बोले,‘आप जन्मजात नायक हैं, आप ही संकटग्रस्त देश के रक्षक हैं, आप ही जनता के उन्नायक हैं। देश आपकी प्रतीक्षा कर रहा है, जन-जन आपको सर पर बिठाने की तैयारी कर रहा है। बस आपको आगे आना है, देश के डूबते जहाज को पार लगाना है-हम आपके साथ हैं, जनता आपके साथ है, बस यों समझ लीजिए कि जीत आपके हाथ है।’
बालक ने अपने योग्य, सक्षम, समर्थ सिपहसालारों को भर नजर देखा और अपना सीना फुलाया और थोड़ा-सा मन में और थोड़ा-सा बाहर मुस्कुराया। उसे अपनी जिन क्षमताओं का पता नहीं था, उनका अब पता चल रहा था, उसे अपने होने पर गर्व हो रहा था और उसका मन दिग्विजय को मचल रहा था। पर बालक उतना बालक भी नहीं था, राजनीति की घुट्टी पीकर बड़ा हुआ था। कोई कुछ भी कहे वह थोड़ा बहुत अपने बल पर भी खड़ा हुआ था। बाल सुलभ बालक ने विद्वता से पूछा, ‘हमारी नीति क्या होगी?’ सिपहसालारों ने एक-दूसरे को तांका, एक-दूसरे के मन में झांका और समवेत स्वर में बोले, ‘हम अलग से अपनी नीति क्यों बनाएंगे? चौकीदार जो नीति बनाएगा उसके विरोध को ही अपनी नीति बनाएंगे। वह जिसे सफेद कहे उसे काला बताएंगे, जिसे वह नीति कहेगा हम उसे भ्रम का जाला बताएंगे।’ बालक ने हलका से हुंकारा लगाया, अगंभीर-सी गंभीर मुद्रा में सर हिलाया और बोला, ‘हमारा मुद्दा क्या होगा, हमारा कार्यक्रम क्या होगा?’ सब एक स्वर में बोले, ‘चौकीदार से चौकीदारी छीनना ही हमारा मुद्दा होगा उसे हटाना ही हमारा कार्यक्रम होगा।’ बालक ने गर्दन हिलाई, अपनी अगली समझदारी दिखाई, ‘हमारा नारा क्या होगा?’ सिपहसालार नारे का महत्त्व आंकने लगे और जब कुछ समझ में नहीं आया तो बगले झांकने लगे। जय श्रीराम, भारत माता की जय, वंदेमातरम् जैसे नारे पराये हो गये थे, चौकीदार के हाथ में पहुंचकर पहुंच से बाहर हो गये थे। तब कुछ विशेषज्ञ सलाहकार बालक के कुछ ओर निकट हुए और उनके विचार यों प्रकट हुए, ‘आप मैदान में उतरिए, नारे का क्या है अपने आप मिल जाएगा और अगर चौकीदार को चोर कहेंगे तो यह नारा भी चल जाएगा।’ तालियां बजने लगीं, विद्वतापूर्ण बातें बालक के मन में बसने लगीं। वह उत्साहित हो गया। उसने अपने सलाहकार सिपहसालारों को देखा और सोचा, उसके बिना ये सब कितने निरीह, बेचारे हैं, इनकी जिंदगी तो सिर्फ उसी के सहारे है। उसका मन दया से द्रवित हो गया और वह 2019 के युद्ध के लिए तत्पर हो गया।
बालक को जो युद्ध कौशल सिखाए गये थे वे उसने खूब आजमाए और उसे जो हथियार थमाए गये वे उसने खूब चलाए। पर बुरा हो युद्ध के परिणाम का, बालक की सेना ध्वस्त हो गयी थी और बालक की हिम्मत पस्त हो गयी थी। बालक कोपभवन में चला गया। उसके छत्रप सलाहकारों में कोहराम मच गया। मां ने बालक के सर पर हाथ फिराया उसे उसके गौरवशाली अतीत का स्मरण कराया, सिपहसालारों ने बालक जिंदाबाद का नारा लगाया, हार का कारण जनता की नासमझी को बताया और अगला युद्ध बालक के ही नेतृत्व में लड़ने का संकल्प दोहराया। वे समवेत स्वर में बोले, ‘इस बार जनता समझ नहीं पायी थी, उसे फिर से समझाएंगे और समझाने के लिए पहले से ज्यादा जोर से चिल्लाएंगे।’ बालक को सिपहसालारों का संकल्प भा गया और वह कोपभवन से बाहर आ गया।
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